‘गनतंत्र’ बनते ‘गणतंत्र’ का प्रदर्शन -- डा. विनोद बब्बर
सर्वप्रथम भारत ने ही दुनिया को गणतंत्र की अवधारणा दी। भारत उत्सवधर्मी देश हैं। हर वर्ष 26 जनवरी जश्न-ए- जम्हूरियत यानि गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर शानदार परेड, झंाकियॉ, फ्लाईंग -पास्ट होता है। हर वर्ष किसी न किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष को समारोह का मुख्य अतिथि बनाया जाता है। यह संयोग ही कहा जाएगा कि जब पहली बार भाजपा की अपने बलबूते सरकार बनी है तो कोई अमेरिकी राष्ट्रपति भी पहली बार गणतंत्र दिवस परेड देखने आ रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति का आगमन अपने आप में एक महत्वपूर्ण घटना है। आखिर विश्व दादा है अमेरिका। सुरक्षा व्यवस्था को लेकर अनेक तरह की बातें सामने आ रही हैं इसलिए ही नहीं कुछ तथाकथित ‘प्रगतिशील’ लोग गणतंत्र दिवस परेड़ को ही फालतू की कवायद करार देते हैं तो अनेक लोग पद्म सम्मानों में पक्षपात के कारण के अनावश्यक मानते हैं। उन्हें सम्मानों में पक्षपात के कारण ऐसे लोगों का मत है कि शस्त्र प्रदर्शन करने की बजाय इनका उपयोग सीमाओं पर घुसपैठ, आतंकवाद, तस्कर, अपराधियों, भ्रष्टाचारियों के विरूद्ध होना चाहिए। जाहिर है ऐसे असंख्य तर्क हो सकते हैं। वैसे हर पुरानी प्रथा को गलत, बेकार और धन की बर्बादी कह कर उसे समाप्त करने की मांग करना एक फैशन-सा बन चुका है। यह सत्य है कि अंधविश्वास और सामाजिक जकड़न पैदा करने वाली हर कुरीति को समाप्त होनी चाहिएं। धनकुबेरों द्वारा संपन्नता का प्रदर्शन करने वाले विशाल शादी पार्टियों का विरोध होना चाहिए। दहेज प्रथा, बाल विवाह, सती-प्रथा, छुआछूत व नशाखोरी के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। दोषियों को कानून से भी अधिक समाज दंडित कर सकता है। ऐसे तत्वों का संपूर्ण सामाजिक बहिष्कार होना चाहिएं। हमारा मत है कि सभी पुरानी प्रथाएॅ गलत नहीं है और न ही सभी ठीक। गलत का त्याग हो, लेकिन मात्र विरोध के नाम पर देश के गौरव को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा ही एक ज्वलंत प्रश्न है कि क्या गणतंत्र दिवस अर्थात् 26 जनवरी को राजपथ पर होने वाली परेड बेकार है? क्या उसे बन्द कर देना चाहिए? जैसा-कि कुछ आधुनिक विचारधारा के लोग कह रहे हैं। हमारा मत है ‘नहीं, हर्गिज नहीं।
किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र का अपना सौंदर्यबोध और शक्तिबोध होता है। देश के विकास की तस्वीर, सांस्कृतिक कार्यक्रम और राज्यों की झंाकियाँ हमारा सौंदर्यबोध है जबकि सेना, अनुशासन, आधुनिकतम अस्त्र- शस्त्र और वायुसेना का शानदार फ्लाइंग पास्ट हमारे शक्तिबोध का प्रतीक ही तो है। इससे राष्ट्र में आत्मविश्वास एवं आत्मसम्मान की भावना का संचार होता है। आत्मविश्वास की कमी ही महाभारत युद्ध में महारथी कर्ण की पराजय का कारण बनी थी, जबकि भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन में आत्मविश्वास की भावना का संचार कर उसे विजय भी दिलवाई थी।
अस्त्र-शस्त्र के प्रदर्शन का उद्देश्य किसी को भयभीत करना नहीं है क्योंकि हमारा दर्शन सदा से ही ‘न भय काहू को देत और न भय काहू का मानत’ रहा है। यह शक्तिबोध राष्ट्र के ‘गण’ को ‘तंत्र’ की ओर से आश्वस्त करना भर है। यदि इस खर्च को धन की बर्बादी कहा जाएगा तो कल देश की सीमाओं की रक्षा पर होने वाले खर्च का भी प्रश्न उठ सकता है। तब तो कुछ भी कर पाना संभव नहीं होगा। हर खर्च का मूल्यांकन मूल्य के साथ-साथ महत्व से भी किया जाता है। क्या गणतंत्र दिवस न मनाने से भ्रष्टाचार और सामाजिक बुराईयॉ दूर हो जाएंगी? नहीं, कदापि नहीं। बल्कि, रही-सही राजनैतिक चेतना भी समाप्त हो जाएगी। अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने की बजाय गणतंत्र दिवस परेड की बलि देना अविवेकपूर्ण हैं।
यूँ-भी गणतंत्र दिवस परेड में भाग लेना हर जवान के लिए गौरव की बात है, गौरव के उस क्षण को प्राप्त करने के लिए हमारे बहादुर बच्चे, सेना के जवान जी-तोड़ मेहनत करते हैं। बहादुर बच्चे जब हाथी पर बैठकर राजपथ से निकलते हैं, तो सभी को रोमांच होता है। यह रोमांच प्रेरणा उत्पन्न करता है- कुछ कर दिखाने की। आज हम अपना राष्ट्रगान भूल रहे हैं। वन्देमातरम् तो लगभग भूल ही चुके हैं। यदि गणतंत्र दिवस परेड भी बंद कर दी जाए, तो लोग जल्द ही इसके महत्व को भूल जाएगें। आधुनिकता ओर भौतिकवाद की गिरफ्त में आई हमारी युवा पीढ़ी को कोन बतायेगा ‘क्या होता है गणतंत्र दिवस’ और ‘क्यों होता है यह सब।’ सभी पुरानी प्रथाओं का विरोध करने से पहले उसके गुण-दोषों पर विचार अवश्य करें। पुराने माता-पिता, दादा-दादी का घटता सम्मान कहीं ऐसे विरोधों का नतीजा तो नहीं है?
हाँ, इस बात से शायद ही किसी को ऐतराज होगा कि भारत स्वतंत्र है, लोकतंत्र है और गणतंत्र भी। पर, तंत्र जिस रफ्तार से फल फूल रहा है उस अनुपात में गण सिकुड़ रहा है। क्या यह सच नहीं कि तंत्र को चलाने वाले जनप्रतिनिधि बार -बार अपना वेतन, पेंशन और सुविधाएं बढ़ा लेते हैं। पूंजीपति घराने आसमान की बुलंदियों को छू रहे हैं। पर ‘गण’ की स्थिति क्या है? हर पार्टी गरीब, किसान, मजदूर की स्थिति पर लम्बे-लम्बे आंसू बहाती हैं फर भी गरीब का शोषण जारी है। कर्ज से दबा किसान आत्महत्या को विवश है। बाल मजदूरी जारी है। अपराधी फलफूल रहे हैं। सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों का ग्राफ निरंतर गिर रहा है। तंत्र को गण की भाषा में नहीं, गुलामी की भाषा में ‘हांका’ जाता है। जिसके लिए कानून बना, व्यवस्था बनी। ‘हितों’ की दुहाई देने वाले खोखले नारे लगे, उसे भ्रम में जीने का अभ्यास कराया जाता है क्योंकि कानून से व्यवस्था तक सब विदेशी भाषा में होने के कारण उसकी समझ से परे है। ऐसे में भी यदि हम इसी तंत्र से जुड़े किसी नेता या अफरशाह को विशिष्ट सम्मान दें तो ’गण’ करे भी तो क्या? आखिर कहाँ जाकर अपना सिर फोड़े?
15 अगस्त, 1947 को मिली आजादी और 26 जनवरी, 1950 को घोषित हुए गणतंत्र के इतने वर्षों बाद भी भारतपुत्रों की उपेक्षा जारी है, देश में भी और विदेश में भी। भारत-पुत्रों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज कमजोर है। कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत-पुत्र ‘तंत्र’ के एजेंडे में ही नहीं हैं। वास्तव में, खून जमा देने वाली सर्दी में सीमाओं की रक्षा करने वाले जवान हों या अपने खून-पसीने से ‘गण’ से ‘तंत्र’ तक का पेट भरने वाले किसान, वही सच्चे भारत-रत्न हैं। पर इतने वर्षों में इस तंत्र ने उन्हें तो भारतपुत्र सा दुलार और अधिकार भी नहीं दिया। क्या यह उचित अवसर नहीं है कि जब हम विचार करें कि आखिर कब तक शानदार इमारत के सजावटी पत्थर ही पूजे जाते रहेंगे? नींव के खामोश पत्थरों की खबर कब ली जाएगी? अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति के जीवन में जब तक प्रगति की बयार नहीं पहुँचती तब तक देश का मस्तक एक व्यक्ति के बार-बार ‘परिधान’ बदलने से ही ऊंचा नहीं हो सकता।
गणतंत्र दिवस के अवसर पर हमें देश को भय, भूख, बेरोजगारी, आतंक, राजनैतिक तिकड़मबाजी के कारण समाज को जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर बाँटने की कोशिश के प्रति सजग रहने का संकल्प लेना चाहिए।:गणतंत्र’ को ‘गनतंत्र’ बनाने की कोशिश में लगे देश के दुश्मनों को कुचलने की तैयारी करनी चाहिए, वरना हमारी समस्त झांकियाँ, शस्त्र-प्रदर्शन एक कर्मकांड बनकर, जो देश को समान कानून, समान व्यवहार और समान विकास उपलब्ध करवाने में असफल रहे नेताओं-अधिकारियों और उनके चाटुकारों के गुणगान तक सिमट कर रह जाएगा। जयहिंद!
‘गनतंत्र’ बनते ‘गणतंत्र’ का प्रदर्शन -- डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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