भारी बस्ते के बोझ तले कराहता बचपन Childhood Crushed by Heavy School Bags
अपने कंधों पर भारी बस्ता लादे 5 से 7 किमी दूर सकूल आने वाले महाराष्ट्र के चन्द्रपुर के बारह वर्ष दो छात्रों द्वारा स्थानीय प्रेस क्लब में पहुंचकर पत्रकारों को अपनी व्यथा कथा सुनाने का समाचार चाैंकाता नहीं है। उनके अनुसार -उन्हें प्रतिदिन आठ विषयों की कम से कम 16 पुस्तके, कापियां आदि बस्ते में लेकर जाना पड़ता है। कभी-कभी यह संख्या 20 भी हो जाती है। कई किमी चलने के बाद स्कूल में उनकी कक्षा भी तीसरी मंजिल पर है।
यह व्यथा केवल चन्द्रपुर के छात्रों की नहीं है। देशभर में छोटे-छोटे बच्चे भारी भरकम बस्ता लादे देखे जा सकते हैं। छुट्टी के बाद स्कूल से लौटते बच्चों की चाल देखकर समझा जा सकता है कि उन्हें भारी वजन के कारण पीठ दर्द और मांसपेशियों की समस्याओं व गर्दन दर्द से जूझना पड़ रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार चूकि इन दिनों लगभग सभी स्कूलों में व्यायाम और खेलों का प्रचलन घटा है अतः छात्र बेशक घुलघुल हो लेकिन 18 वर्ष तक हड्डियां नरम ही रहती हैं और रीढ़ की हड्डी भारी वजन सहने लायक नहीं होती। अतः स्पाइन पर बुरा प्रभाव पडता है। सिरदर्द, गर्दन दर्द व कंधों में दर्द होता है।
बचपन एक ऐसी उम्र होती है, जब हम तनाव के मुक्त होकर मस्ती से जीते है। नन्हें गुलाबी होंठों पर बिखरती फूलों सी हँसी, मुस्कुराहट। बच्चों की शरारत, रूठना, जिद करना, अड़ जाना ही बचपन है। लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर हमें बताना चाहिए कि क्या हमारे बच्चों को ऐसा वातावरण मिल रहा है? क्या यह सत्य नहीं कि उनका बचपन तनाव की काली छाया से कलुषित हो रहा है? क्या आप इस बात से इंकार कर सकते हो कि हर सुबह स्कूल जाने से बचने के लिए वे पेट दर्द से लेकर सिरदर्द तक के अनेक के बहाने नहीं बनाते हैं और मुस्कुराते हुए भारी बस्ता टाँगे खचाखच भरी स्कूल वैन पर सवार होते हैं? क्या उनके नन्हे चेहरों पर उदासी व तनाव नहीं होता?
स्कूल के बाद टयूशन, होमवर्क, ऐसे- ऐसे प्रोजेक्ट जो उन बच्चों से तो क्या उनके बाप से भी न बने और न जाने क्या-क्या? उसपर भी हमने उन्हें गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, कुश्ती, कब्बड़ी, खो-खो, फुटबाल, वालीवाल, हाकी लट्टू, कैरम के स्थान पर वीडियोगेम पकड़ा दिया है। रही सही कसर टीवी, मोबाइल इंटरनेट पूरी कर रहे है। इसपर भी हम सामान्य बच्चों को अपेक्षाकृत अधिक चिड़चिड़ा, गुस्सैल प्रवृत्ति को उन्हें कोल्डड्रिंक, पिज्जा, बर्गर, पासता, चाऊमिन खिलाकर शांत करने की भूल करते हैं। लेकिन भारी बस्ते के बोझ तले कराहते उसके बचपन की दूसरों से तुलना कर उसे हीन बताने का अपराध भी करते है।
लगता है व्यवस्था ने मान लिया है कि वह रोजगार उपलब्ध कराने में असमर्थ है। उसपर कल उन्हें देश का भावी कर्णधार बनकर देश का बोझ भी उठाना है। अतः उन्हें शुरु से ही क्षमता से अधिक बोझ उठाने का अभ्यास कराया जाए। इस पर कभी मैंने लिखा था-
नन्हे मुन्नेे फूलों की, यह कैसी लाचारी,
डगमग चले स्कूल को, लादे बस्ता भारी।
लादे बस्ता भारी, कलेजा मुँह को आता,
वजन में क्या ज्ञान, बेचारा समझ न पाता।
कह किंकर कविराय, भेद हम बतलावेंगे,
गर न मिली नौकरी, तो कुली बन जाऐंगे।।
इसमें कोई संदेह नहीं कि केवल प्राथमिक कक्षाओं का ही नहीं बल्कि माध्यमिक स्तर के छात्रों का बस्ता काफी भारी है। यह समस्या 1990 से संसद से सड़क तक उठाई जाती रही है। प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक समिति बनी। 1993 में प्रस्तुत उसकी रिपोर्ट पर आगे बढ़ना था। लेकिन ‘मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों-ज्यों दवा की’। पाठ्यक्रम बनाने वालों ने हर बार कुछ नया जोड़ने के नाम पर पुस्तके को बढ़ाया ही है। निजी स्कूल की एक शिक्षिका ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि ‘अपने लाभ के लिए हमारे जैसे सभी स्कूल एक ही विषय की अनेक पुस्तकें, अभ्यास पुस्तिका उन्हें वर्ष के आरम्भ में देकर मोटी रकम बना लेते हैं। जबकि अनेक बार तो कुछ पुस्तकें खोले बिना ही पूरा वर्ष बीत जाता है। अगर बस्ते का बोझ घटाने की प्रथम शर्त स्कूल प्रबंधन द्वारा पुस्तकें बेचने पर प्रतिबंध लगाना होना चाहिए। व्यवहारिक शिक्षा दी जानी चाहिये। इधर जिस तरह से ई- शिक्षा का प्रचलन बढ़ा है उसके बावजूद भारी बस्ते की अवधारणा पूर्ण व्यवसायिकता के कारण शेष है। इसके लिए किसी विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट की नहीं मात्र व्यवहारिक बुद्धि की जरूरत है।’
प्रतियोगिता के बढ़ते दौर तथा निजी स्कूलों के तेजी से प्रचार-प्रसार और लोकप्रियता ने इस समस्या को विस्तार ही प्रदान किया है। अनन्त प्रतियोगिताओं की तैयारी के लिए हर विषय की कई-कई पुस्तके खरीदने के लिए प्रेरित करने की परम्परा भी बलवती हो रही है। ऐसा क्यों है, सभी जानते हैं। प्रकाशक के अनेक तरह के आकर्षण, यथा कमीशन पेकैज, अपना काम करते हैं। वैसे कुछ विशेषज्ञ बोझ को बस्ते अथवा पुस्तक के वजन से नहीं ‘समझ’ से जोड़ते है।
माध्यमिक कक्षाओं के बाद उच्च शिक्षा में प्रवेश की तैयारी के नाम पर देशभर में फैल रहे कोचिंग संस्थान लाखों की फीस लेकर बोझ को बस्ते में मन-मस्तिष्क तक पहुंचाने में अपना योगदान कर रहेे हैं। वैसे यह समस्या केवल भारत की नहीं है, लेकिन दुनिया के अनेक देशों ने बस्ते का बोझ कम करने में सफलता भी प्राप्त की है लेकिन के तरीके निकाले गए हैं। वहां बच्चे की रुचि और प्रतिभा के अनुसार विषय में आगे बढ़ाया जाता है। अनावश्यक बोझ का कोई प्रश्न ही नहीं होता। हमारे यहां बड़ी-बड़ी बातें तो हुई लेकिन समय के साथ शिक्षा में जो गुणात्मक सुधार होना चाहिए था, वह नहीं हुआ। किताबी कीड़ा बनकर अथवा रट्टा लगाकर ज्ञान प्राप्त करने की गलत परम्परा के स्थान पर व्यावहारिक ज्ञान देकर बस्ते का बोझ कम किया जा सकता है। नई शिक्षा नीति के प्रारूप में भी इसपर बहुत ध्यान नहीं दिया गया। अतः बहुत आशा करना व्यर्थ है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसा हो ही नहीं सकता। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के बालोद के जिलाधीश ने अपने जिले के 50 स्कूलों के पहली से पांचवीं तक के हजारों बच्चों को बस्तेे से मुक्त करा दिया है। अब वहां के बच्चे बिना बस्ता लिए हंसते-खेलते स्कूल जाते हैं।
वैसे मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार (आरटीई) एक्ट, 2009 के अनुसार बच्चे के अपने के 10 प्रतिशत से अधिक वज़न का बस्ता गैर कानूनी है। इस एक्ट के अनुसार स्कूलों को लॉकर और कपबोर्ड जैसी सुविधाएं देना चाहिए ताकि बच्चे अपना कुछ सामान वहां रख कर बस्ते के बोझ से मुक्त हो सके। लेकिन यह जांच का नहीं आश्चर्य का विषय है कि कितने स्कूलों में ऐसी व्यवस्था उपलब्ध है। यहां तो बच्चों को अपने शरीर के वजन के 30 प्रतिशत तक का बस्ता ढोते देखा जा सकता है। केवल कापी- किताबे ही नहीं, पानी की बोतल का बस्ते में होना जहां उसे भारी बनाता है वहीं मोटी फभ्स लेने वाले स्कूलों में शुद्ध और शीतल जल की उपलब्धता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है।
यह विडम्बना ही है कि शरीर से कमजोर, मस्तिष्क से कोमल बच्चे भारी भरकम बस्ते लिए स्कूल जाते हैं लेकिन कालेज जाते हुए वेे लगभग खाली हाथ या डायरी लिए होते है। यह भी विचारणीय है कि लोगों में पढ़ाई के बाद पुस्तकें पढ़ने में घटती रूचि का कारण कहीं बचपन के भारी बस्ते की दहशत का परिणाम तो नहीं। अनावश्यक पुस्तकों पर लगाम लगाने की जरूरत है। लेकिन यह समीक्षा हडबड़ाहट से नहीं वैज्ञानिक ढ़ंग से होनी चाहिए। विषय की निरंतरता, समझ के सोपान के साथ- साथ जरूरी है कि ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाये जहां छात्रों को पढने और अध्यापकों को पढ़ाने में तनाव नहीं बल्कि आनंद की अनुभूति होनी चाहिए। हमें उस मुहावरे को नहीं भूलना चाहिए जिसके अनुसार, ‘मूर्खों का बैग भारी होता है।’ इस मुहावरे को गलत या सही बताने की वैज्ञानिक अवधारणा सामने आनी चाहिए। -- विनोद बब्बर 9868211911
भारी बस्ते के बोझ तले कराहता बचपन Childhood Crushed by Heavy School Bags
Reviewed by rashtra kinkar
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20:47
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