वादे हैं, वादों का क्या! -- डा. विनोद बब्बर
यह हमारा सौभाग्य है कि हम एक लोकतांत्रिक देश में जन्मे हैं। आज भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। कौन नहीं जानता कि दुनिया को गणतंत्र की अवधारणा हमने दी। हम सदियों से जनभावनाओं का आदर करने वाले समाज का अंग रहे हैं। वास्तव में, लोकतंत्र उन अनेक खूबियों को समेटे है जो लोक की इच्छा को तंत्र के माध्यम से व्यक्त करते हैं। जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का यह माध्यम वोटों के सौदागरों की चालबाज़ी से अशांत और असंतुलित दिखाई दे,तो यह हमारे दुर्भाग्य से अधिक अति सहनशाीलता का परिणाम है।
यूं, देश में हर पाँच वर्ष बाद लोकसभा, विधानसभा, स्थानीय निकायों के चुनाव का प्रावधान है। पर पिछले कुछ वर्षों से अस्थिरता के कारण सारा साल चुनावी मौसम रहता है, कभी लोकसभा के चुनाव, तो कभी इस राज्य विधानसभा के, तो कभी दूसरी के। चुनाव हो और भाषणबाजी न हो, बढ़-चढ़कर वादे न हांे, अपने आप को दूसरे से बेहतर साबित करने की होड़ न हो, तिकड़मबाजी न हों, ऐसा कैसे हो सकता है? चुनाव के समय हर क्षण आपकी सेवा में तत्पर रहने का वादा करने वालों को चुनाव जीतने के बाद चिराग लेकर ढूंढ़ना पड़ता है। बेलगाम वादों की यह दास्तां किसी एक राज्य की नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र का सत्य है। अब तो वादे पूरे न कर पाने पर शर्मिंदा होने की बजाय उसे ‘चुनावी जुमला’ कह कर अपना दामन बचाने का प्रचलन भी है। ताजा उदाहरण है कि केन्द्र को मात्र छ महीनों में सारे वादे पूरे न करने के लिए दोषी ठहराने वाले ‘श्री ईमानदार जी’ खुद के लिए समय सीमा की बात भी सुनने को तैयार नहीं हैं।
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर राजनीतिक दलों को मनमाने वादे करने से रोकने की गुहार लगाई गई थी तो माननीय न्यायालय ने नीतिगत वायदे कर उनसे मुकरने को गलत कहा था लेकिन इसके बावजूद हमारे नेताओं रवैया बदलना तो दूर लगातार गिरावट की ओर है। मुफ्तटेलीविजन, मंगलसूत्र, साइकिल आदि से शुरू हुआ सिलसिला लैपटॉप के बाद मुफ्त बिजली पानी से वाई-फाई तक आ चुका है। यह स्पष्ट है कि जब तक कोर्ट कोई स्पष्ट निर्देश नहीं देता तब तक बेलगाम वादों का सिलसिला न केवल जारी रहेगा बल्कि और तेजी पकड़ सकता है। राज्यों के मुखिया अपनी असफलता का सारा दोष केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक सहायता न दिए जाने पर डाल सकते हैं। खुद को ठगा हुआ महसूस करने वाली जनता उनसे कैसे पूछे कि क्या उन्होंने ‘वादा’ करने से पूर्व केन्द्र से ऐसा कोई ‘वादा’ प्राप्त किया था?
यह सत्य है कि हमारे समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी साधनहीन है। लेकिन उन्हें गरीब से मुक्त कराने में असफल व्यवस्था अपना ‘अपराध’ स्वीकारने की बजाय मनमाने तरीके से रेवड़ियां बांटने का दिखावा करते हैं। वे कब समझेगे कि इस देश के हर युवक को उच्च शिक्षा, रोजगार, आवश्यक सुविधाएं प्राप्त करने योग्य बनाने के लिए हर संभव प्रयास किए जाए न कि मुफ्तखोरी का ‘झासंा’ देकर उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ हो।
वैसे अनेक चुनाव लड़ चुके एक ‘नेता’ के अनुसार चुनाव लड़ने वाला व्यक्ति ‘बेचारा’ होता है, उससे जो वायदा भी लेना चाहे वह फौरन ’हाँ’ कर देता है। उसमें वायदा पूरा करने की क्षमता चुनाव जीतने के बाद भी हो या न हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। नगर पालिका का चुनाव लड़ चुके एक अन्य महारथी ने बताया कि ‘उसके चुनाव-प्रचार के दौरान एक युवक ने विदेश का वीज़ा दिलवाने का आग्रह किया तो उसने भी बिना सोचे-समझे हाँ कर दी। उसने चुनाव जीत कर पूरी निष्ठा के अपने अधिकार के अनुसार, काम किया। पर उस युवक को अमेरिका का वीजा न दिलवा पाने के कारण वायदा-खिलाफी के प्रचार के चलते हुए वह अगला चुनाव हार गया।
एक अनुभवी नेता ने राजनीति की कार्यप्रणाली को इस कथा के माध्यम से सामने रखा। ‘एक बार एक व्यक्ति की भैंस खो गई, तो वह अपने पुत्र को लेकर उसे ढूंढ़ने निकला। रास्ते में एक मंदिर में उसने भैंस मिल जाने पर हर रोज़ 2 किलो दूध चढ़ाने की मन्नत मानी। बात यहीं तक रहती, तब भी ठीक था। राह में आए हर पूजा-स्थल में उसने जब यही मन्नत माँगी, तो बेटे ने उसे घर वापस लौटने को कहा। बेटे का कहना था कि अब अगर भैंस मिल भी गई तो घाटे का सौदा है क्योंकि उसकी सेवा हम करेंगे और दूध देवता पियंेगे। इस पर उस व्यक्ति का उत्तर था, ‘बेटा एक बार भैंस तो मिल जाने दो, इन देवताओं के तो मैं बाद में देख लूंगा।’ चुनाव जीतने के बाद आज हर दल यही तो करता है।
असंभव वादे करके सत्ता सुख भोगने वाले अपने वादों को लाख घुमाना चाहे लेकिन विपक्षी अपने स्वार्थ के लिए राख में से चिंगारियां उछालते हैं। और मजेदारी यह है कि वादाखिलाफी की धूल उड़ा कर ओहदेदार बने ये लोग भी वही करते हैं। वास्तव में चुनावी वायदों का कोई व्याकरण नहीं होता। इसलिए, कोई नियम भी नहीं है, पर उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। चुनाव आयोग ने अनेक सुधार किये हैं लेकिन अनाप-शनाप वायदों को नापने का कोई पैमाना आज तक ईजाद नहीं किया गया। देश की राजधानी दिल्ली को ही लीजिए, सब सस्ता का वादे करने वाले जब लगातार 15 वर्ष में सत्ता में थे तब ऐसा क्यों नहीं कर सके, इस पर मौन रहे। इतना ही क्यों, लगभग हर चुनाव में सभी ने दिल्ली को राज्य का दर्जा देने के वादे किए लेकिन केन्द्र में आने के बाद ‘उन’ से ‘इन’ तक किसी ने भी गंभीरता नहीं दिखाई। आज भी यदि ‘माले-मुफ्त’ का वादा करने वाले ‘किन्तु- परंतु’ के साथ उपस्थित हैं तो यह उनकी चतुराई से अधिक हमारी मूर्खता है जो ऐसे अनाप- शनाप वादों को व्यवहारिकता की कसौटी पर कसना ही नहीं चाहते। बेशक पर भ्रष्टाचार के खिलाफ पर खूब शोर मचता है परंतु वादे करके बच निकलने को भ्रष्टाचार की श्रेणी शामिल तक नहीं किया गया। और न ही हमने आजादी के 67 वर्षों बाद भी वादों की जाँच करने तथा राजनैतिक दलों पर उन्हें पूरा करने की बाध्यता का कोई नियम अथवा प्रणाली विकसित करने का चिंतन आरंभ किया है।
क्या हर वादे के साथ उसे पूरे करने की कार्य योजना चुनाव आयोग के पास जमा नहीं की जानी चाहिए? क्या अपने अधिकार-क्षेत्र से बाहर के वायदे करने वालों और वादे करके उन्हें पूरा न करने वालों के लिए दंड का प्रावधान होना चाहिए या नहीं? इस बात से शायद ही किसी की असहमति हो कि इस तरह की सतत मोनिटरिंग लोकपाल या जनलोकपाल से ज्यादा प्रभावी हो सकती है। इससे न केवल कार्यकुशलता बढ़ेगी बल्कि भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगेगा।
लोकतंत्र समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। यदि शीघ्र ही इस ओर ध्यान नहीं दिया गया, तो चुनावी वादें दबी हुई राख से असंतोष की चिंगारियां उठने का सबब भी बन सकते है। विकास के अन्तिम पायदान पर उपेक्षित खड़े व्यक्ति के प्रति सर्वाधिक समर्पण का नाम ही लोकतंत्र है। यह केवल दिखावटी नहीं होना चाहिए, बल्कि व्यावहारिक भी होना चाहिए। यदि लोकतंत्र को केवल शाब्दिक कर्मकाण्ड और बढ़-चढ़ कर वायदे करने की प्रतियोगिता मान लिया गया। तो यह देश का दुर्भाग्य होगा, क्योंकि इससे अराजकता और अशांति का वातावरण बनता है। देश के आम आदमी से प्रबुद्धजन तक सभी संसद और विधानसभाओं में शोर शराबे पर चिंतित दिखाई देते हैं। आज गंदी राजनीति को स्वच्छ बनाने के लिए किसी आचार -संहिता बनाने के लिए सार्थक पहल की आवश्यकता है जो उम्मीदवारों की शैक्षिक योग्यता, उनकी ईमानदारी, उनकी कर्तव्य-परायणता, पिछला रिकार्ड और उनके द्वारा किए जा रहे वादों को व्यवहारिकता की कसौटी पर कस सके। दुर्भाग्य से यदि ऐसा न किया गया तो लोकतंत्र अपमानित होता रहेगा और देश की खुशहाली इन झूठे वादांे की बंधक बन कर रह जाएगी।
सुभाष भदौरिया ठीक ही तो कहते हैं-
‘तेरे वादे पे जिया करते हैं.
हम भी क्या रिस्क लिया करते हैं.
एक हम हैं कि सुधरते ही नहीं,
मशवरे लोग दिया करते हैं।’
वादे हैं, वादों का क्या! -- डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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