मैं क्यों लिखता हूं

ऑथर्स गिल्ड ऑफ इण्डिया की ओर से पुस्तक मेले के अवसर पर  उपरोक्त विषय पर परिचर्चा आयोजित की।  विनोद बब्बर ने अपनी रचना धर्मिता पर प्रकाश डाला- 
आजादी के बाद की पीढ़ी की तरह मैं भी सरकारी स्कूल में पढ़ा। जहाँ नाममात्र की फीस होती थी लेकिन अधिकांश बच्चे उसे भी नहीं दे पाते थे। तब तक अध्यापक ‘टीचर’ और ‘सर’ या ‘मैडम’ नहीं गुरुजी, मास्टर जी थे। जब मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में था तो मेरे अध्यापक अक्सर कहा करते थे- ‘तू तो कविता बोलता है।’ पहली बार यह सुनकर तो मैं डर गया था कि आखिर मुझसे क्या गलती हुई। मैं तो किसी कविता को नहीं जानता था। उन दिनों स्कूल आज की तरह सहशिक्षा नहीं थे। इसलिए किसी सहपाठी का नाम कविता होने का प्रश्न ही न था। मैंने बहुत सोचा कि माननीय अध्यापक महोदय ने ऐसा क्यों कहा तो मुझे लगा कि शायद मेरे बोलने में कुछ तुकबंदी हो जाया करती थी। परंतु इस तुकबंदी और पराई पीर के प्रति संवेदना के बावजूद भी मजबूरी तो कभी मजदूरी ने मेरी कविता को दबाये रखा। लेकिन मन में समाज की विद्रुपताओं के विरूद्ध रोष बार-बार उबाल मारता था। तो पत्र-पत्रिकाओं में संपादक के नाम पत्र लिखता। परिस्थितियों ने राहत दी तो लेखनी ने कुछ रफ्तार पकड़ी। आज 15 पुस्तकंे प्रकाशित हैं तो  कुछ का अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। बहुत कुछ अप्रकाशित है।  लगभग हर रोज देशभर के किसी न किसी समाचार पत्र में सम सामयिक विषयों पर मेरे लेख प्रकाशित होते हैं। लेखन मेरा व्यवसाय नहीं है। व्यवसाय बनना आसान भी नहीं है।  हर जगह गुट-काकस सक्रिय है। परंतु लेखन मेरी विवशता बन गया है।  परई पीर से उपजा आक्रोश कलम के माध्यम से व्यक्त करते हुए कुछ राहत मिलती है।
मुझसे पूर्व एक मित्र ने कहा- मैं और मेरा लेखन से पहले मैं को अलग करना पड़ता है। सच ही तो है लेखक जब तक ‘मैं’ से ‘हम’ नहीं होगा उसका लेखन  निष्प्रभावी होगा लेकिन मेेरा मानना है कि केवल मैं हटाने  से भी बात नहीं बनती। लिखने से पहले पढ़ना जरूरी है। केवल किताबे नहीं, परिस्थितियों को, दूसरों के दर्द को, दूसरों की पीड़ा को भी पढ़ना होता है।  अनेक ऐसी घटनाएं, दुर्घटनाएं होती है। ये घटनाएं भुलाने वाली होती है तो रूलाने वाली भी है।एक लेखिका बहन ने कहा कि पुरुष रोते नहीं है तो दूसरी बहन का कहना था- रोते नहीं पर रूलाते तो है। इस रोने ओर रूलाने  में मैं भी यह जोड़ना चाहता हूं कि जब हमारी संवेदना पराई पीर को अपने हृदय में महसूस करते हुए उसकेे आंसू उसके मन- मस्तिष्क में इतना पके-इतना उबले कि स्याही बन जायंे तो समझना लेखन के लिए जमीन तैयार है।  
यू ंतो ब्रह्माण्ड में असंख्य शब्द है। लेकिन जब शब्द अनुशासित ढ़ंग से जुड़ते हैं तो उनमें लय, ताल होती है। तभी वह गीत, कविता, कहानी, व्यंग्य बनते है। शब्द का अनुशासन, कलम का अनुशासन तो कलमकार का अनुशासन क्यों नहीं? कहने को बहुत कुछ है लेकिन यहां उपस्थित सभी साहित्यकार मेरे आदरणीय हैं। उनके अनुभव जानने के लिए आया हूं। इसलिए अपनी बात समाप्त करने हुए मैं आप सभी को प्रणाम करता हूं। 
विनोद बब्बर संपादक-- राष्ट्र किंकर, 
 संपर्क-09868211911 rashtrakinkar@gmail.com
निवास- ए-2/9ए, हस्तसाल  रोड,
 उत्तम नगर नई दिल्ली-110059  
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