शांति के लिए दंड विधान Punishment for Peace
दिल्ली में दिन दहाड़े चलती सड़क पर एक युवती पर एक बदमाश द्वारा 22 वार करके उसकी जान लेने की दिल दहला देने वाली घटना पर किसी को कानून व्यवस्था के प्रति रोष है तो कोई समाज के चेतना शून्य होने की शिकायत कर रहा है। लेकिन दोषी को कठोर दंड देने की मांग पर सभी एकमत हैं। इसी प्रकार जब कोई बदमाश पड़ोसी देश हमारी मातृभूमि पर बार-बार वार कर उसके वीर पुत्रों की जान लेता है तो भी हर देशवासी का रोष होना भी स्वाभाविक है। देश की जनता एकस्वर में दोषी को दंडित करने की मांग करे तो सरकार भी लम्बे समय तक जनभावनाओं की उपेक्षा नहीं कर सकती।
युद्ध और शांति परस्पर विरोधी शब्द प्रतीत होते हैं लेकिन कभी- कभी शांति बरकरार रखने के लिए युद्ध की ओर बढ़ना विवशता होती है। किसे याद न होगा श्रीकृष्ण ने कौरवों और पांडवों के बीच समझौते से शांति करनाने के लिए हरसंभव प्रयत्न किया। लेकिन क्या हुआ? क्या दुर्योधन माना? यह सत्य है कि युद्ध से बचना चाहिए। लेकिन जब कोई राह शेष न रहे तो युद्ध से भागा भी नहीं जा सकता। आखिर युद्ध और शांति के संबंधों को नकारा नहीं जा सकता है। क्रूर अपराधी को कठोरतम दंड अर्थात् फांसी देने वाले की उससे कोई व्यक्तिगत शत्रुता नहीं होती लेकिन वह विधि द्वारा सौंपे गये अपने कर्तव्य का पालन करता है। राज्य के अपराधी को दंडित करने की जिम्मेवारी शासन की होती है। उसे सबक सिखाना दंड ही है। जिस प्रकार एक अपराधी के बेगुनाह बच्चे अपने अपराधी पिता की करनी का फल भोगते हैं उसी प्रकार एक उदंड राज्य की बेकसूर जनता भी अकारण सजा पाती है। उनकी दुहाई देकर दंड विधान को समाप्त नहीं किया जा सकता।
यह भारत का दुर्भाग्य है कि उसे परिस्थितियों ने पाकिस्तान जैसा दुष्ट पड़ोसी दिया है जिसके सैंकड़ों मुख है। हर मुंह अलग बोली बोलता है। एक तरफ वह दोस्ती का हाथ बढ़ता है तो दूसरी ओर आतंक की पूरी खेप भेजता है। उसका एक मुंह ‘खुशामदीद’ कहता है तो हम खुश होकर ‘शांति के कबूतर उड़ाने लगते हैं। गत वर्ष केवल कबूतर नहीं बल्कि खुद हमारे प्रधानमंत्री ही अचानक उड़कर पाकिस्तान जा पहुंचे। सारी दुनिया ने उनके साहस की प्रशंसा की। ‘शरीफ’ ने भी खूब शराफत भरी बाते की। अमन और दोस्ती का विश्वास दिलाया। अभी दुनिया भारतीय उपमहाद्वीप की बदलती तस्वीर का अनुमान ही लगा रही थी कि ‘पठानकोट’ ने उस तस्वीर को बदनुमा बनाया। इसके बावजूद सार्क सम्मेलन में जब हमारे गृहमंत्री वहां गए तो पाकिस्तान ने केवल उनका ही बल्कि नहीं भारत का अपमान किया। इस पर हम खामोश रहे लेकिन कश्मीर में सेना मुख्यालय उड़ी पर हुए हमले ने यह सिद्ध कर दिया कि बेशक पाकिस्तान शांति के नाम पर पांखंड़ तो कर सकता है परंतु अमन की ख्वाहिश को दमन करने वाले इस आतंकी को किसी की परवाह नहीं है। ऐसे में इस सहस्रमुख वाले भस्मासुर पर विश्वास किया भी जाये तो आखिर कैसे?
किसे याद न होगा कि कुछ दिन पूर्व जनरल परवेज मुशर्रफ ने सार्वजनिक रूप से स्वीकारा है कि पाकिस्तान आतंकवादियों को पैसा और ट्रेनिंग देता है, जिससे वे यहां आतंकवाद को बढ़ावा दें। उसने ही लश्कर-ए- तैयबा और हक्कानी बनाए तथा मुंबई हमलें के अपराधी हाफिज सईद को हीरो बनाया। मुशर्रफ ने यह भी स्वीकारा कि सोवियत संघ से लड़ने के लिए उन्होंने मुजाहिदीन तैयार किए। धार्मिक आतंकवाद को पाला-पोसा क्योंकि यह पाकिस्तान के लिए बहुत फायदेमंद था।
कुछ लोग सेना में सुधार, उत्तम प्रशिक्षण, नई तकनीक, कूटनीति, परमाणु युद्ध के बाद की स्थिति जैसे सवाल उठा रहे है। हमेशा की तरह इस बार भी वे पाकिस्तान के पास परमाणु बम होने की बात कहकर अक्सर रोष को शांत करने में लगे है। कल पठानकोट के समय यही हुआ था। आज उड़ी है कल कोई और स्थान होगा। आखिर हम कब तक दानवों से आतंकित रहेगें? कछुआ धर्म से बाहर निकलने की चुनौती है। यदि क्षति का मूल्यांकन ही करते रहेंगे तो क्षति लगातार गुणित होती जाएगी। अपमानित होकर किश्तों में मरने से आर-पार की चुनौती स्वीकारना श्रेयकर है। ध्यान रहे चुनावी सभाओं में एक के बदले दस सिर लाने की बाते करने वाले मोदीजी की विश्वसनीयता भी दांव पर है।
‘न भय काहू को देत, न भय काहू का मानत’ के हमारी कमजोरी नहीं है। अतः अत्याधिक सुरक्षात्मक होने से बचते हुए आक्रमक होना ही होगा। केवल सैन्य शक्ति में ही नहीं हर क्षेत्र में दृढ़ता, आत्मविश्वास, शक्ति और विवेक झलकना चाहिए। इसकी शुरुआत केवल संयुक्त राष्ट्र संघ में उसे आतंकवादी राष्ट्र घोषित करने की गुहार लगाने अथवा जोरदार पलटवार से भी पहले स्वयं हमें पाकिस्तान को आतंकी राष्ट्र घोषित करना चाहिए। उससे हुई सिंधु जलसंधि रद्द कर तथा ‘मोस्ट फेवरेट नेशन’ का दर्जा अब तक वापस ले लिया जाना चाहिए था। वैसे भी सिंधु जल संधि दुनिया की एकमात्र मूर्खतापूर्ण संधि है जो स्रोत देश को जल से वंचित करती है। अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार हमें ऐसा करने का अधिकार भी है।
हमें आत्मचिंतन, मूल्यांकन करना चाहिए कि क्या पठानकोट के बाद उड़ी पर हुआ हमला हमारी अपनी व्यवस्था का दोष नहीं है? दो महीने से जारी कर्फ्यू के बावजूद आतंकी वहां पहुंचने में सफल कैसे हुए? स्पष्ट है कि उनके ‘लिंक’ गहरे हैं। जनरल वी.के.सिंह ने भी इस ओर संकेत किया है अतः सुरक्षा बलो की ‘स्क्रीनिंग’ होनी चाहिए। आखिर दोस्तोें और दुश्मनों में अंतर दिखना ही चाहिए। ‘सेना में जवान मरने के लिए ही आता है’ अथवा ‘मुश्किल से 10वीं, 12 वीं कर पाने वाले ही सेना में भर्ती होते हैं’ जैसी बकवास करने वालों के साथ भी कड़ाई से पेश आना चाहिए। पैलेट गन के उपयोग पर छाती पीटने वाले अब क्यों मौन है? सेना के पास आधुनिकतम तकनीक और शस्त्र होने ही चाहिए। उसकी जरूरतों की अनदेखी अपराध है। रिक्त पदों को भरने के लिए तुरन्त प्रभाव से भर्ती के लिए विशेष अभियान चलाया जाना चाहिए। केवल इतना ही नहीं गांव-शहर के हर विद्यालय में एनसीसी अनिवार्य की जाये। जिससे देश की युवा पीढ़ी को जागरूक एवं हर संकट के लिए तैयार किया जा सकता है।
यह सही है कि किसी को सबक सिखाने के लिए स्वयं को भी कष्ट उठाने पड़ते हैं। लेकिन रोज-रोज की चिकचिक से छुटकारा पाने के लिए यह कड़वा घूंट हमें पीना ही पड़ेगा। किश्तों में मरने से बचना है तो साहस दिखाना ही होगा। इससे विकास की राह बाधित हो सकती है। महंगाई बढ़ सकती है। ऐसा नहीं कि दो दिन खूब छाती पीटने के बाद तीसरे दिन हम सरकार को ही युद्धोन्माद के लिए दोषी ठहराने लगें।
हम एक महाशक्ति बनने का दावा करते है तो यह दावा केवल भाषणों में ही नहीं बल्कि हमारे व्यवहार में भी झलकना चाहिए। देश को यह जानने का अधिकार है कि फ्रांस ने पेरिस हमले के फौरन बाद जिस दृढ़ता से दुश्मन के ठिकाने नेस्तानबूद किये, क्या उससे कोई सबक नहीं लिया जा सकता? हमे विश्व जनमत को पाकिस्तान की हरकतों के बारे में लगातार जागरूक करते रहने के साथ-साथ यह स्पष्ट करना होगा कि - पाकिस्तान को सहन करना उनकी मजबूरी हो सकता है लेकिन हमारे लिए यह सब अब कतई सहनीय नर्हीं है। हम युद्ध नहीं चाहते परंतु आत्मसम्मान के लिए इस अंतिम विकल्प से भागने वाले भी नहीं हैं। छद्मयुद्ध का मुंहतोड़ जवाब देने और आतंकवादियों के ठिकानें नष्ट करने के लिए सीमा पार करना हमारा अधिकार है।
किसी के भरोसे सुरक्षा की कामना आत्मघाती है। सुरक्षा इस देश के हर नागरिक का अधिकार ही नहीं जिम्मेवारी भी है। उनमें यह कर्तव्यबोध जागृत करना तथा उसके लिए वातावरण का निर्माण करना सरकार का धर्म है। देश अपने प्रधान सेवक से अपेक्षा करता है कि वह निज लाभ-हानि पर राष्ट्र के लाभ-हानि को अधिमान देते हुए स्पष्ट आह्वान करे, ‘यह देश अमन के दुश्मनों और देश में छिपे गद्दारों को अब किसी भी कीमत पर सहन नहीं करेगा।’ मुंह तोड़ जवाब देकर ही हम अपने सीने को नापे जाने योग्य साबित कर सकते हैं। वरना सीना तो पुतलों का भी होता हैं!
जननायक अटल जी ने कहा है-
कर्तव्य के पुनीत पथ को
हमने स्वेद से सींचा है,
कभी-कभी अपने अश्रु और-
प्राणों का अर्ध्य भी दिया है।
किंतु, अपनी ध्येय-यात्रा में-
हम कभी रुके नहीं हैं।
किसी चुनौती के सम्मुख
कभी झुके नहीं हैं।
आज, जब कि राष्ट्र-जीवन की
समस्त निधियाँ,
दाँव पर लगी हैं, और,
एक घनीभूत अंधेरा-
हमारे जीवन के
सारे आलोक को
निगल लेना चाहता है।
हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर-
मरने के संकल्प को दोहराना है।
आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में-
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें -
‘‘न दैन्यं न पलायनं।’’-
शांति के लिए दंड विधान Punishment for Peace
Reviewed by rashtra kinkar
on
23:50
Rating:
गुरुवर,
ReplyDeleteआपने सारी बातें लिखीं हैं लगभग!
मोदी सरकार भरपूर रूप से आक्रामक भी है, किन्तु दुर्भाग्य से उन क्षमताओं में कुछ खास वृद्धि नहीं दिखती है जो हमारी आक्रामकता के अनुपात में हो!
उम्मीद करते हैं आने वाले दशकों में इस में भी वृद्धि हो ... !!