क्यों लुप्त हो रहे हैं भारतीयता के रंग How to SAVE The Flavour of Our Culture
क्यों लुप्त हो रहे हैं भारतीयता के रंग
होली एक ऐसा पर्व है जब हम तमाम गिले- शिकवे भुलाकर एक दूसरे को रंग लगाते हैं और प्रेम भाव से एक-दूसरे को गले लगाते हैं। गुजिया मिठाई खिलाते हैं। यहां अनेक तरह की होली होती है। कहीं रंगों की फुहार तो कहीं लट्ठमार, कहीं कीचड़ की होली तो कहीं फूल और चंदन लिए घूमती टोली। कुछ लोग होली पर भांग भी चढ़ाते हैं। हमारे पूर्वजों ने सबको इतनी स्वतंत्रता सबको दी कि जिसे जो तरीका भाये, वह अपने ढ़ंग से प्रेम पूर्वक होली मनाये। क्योंकि हम जाति, धर्म, प्रांत, भाषा, अमीर, गरीब से हटकर एकसमान भारतीय है। एकसमान अधिकारों में ही नहीं, कर्तव्यों में भी। पर किसी को भी भांग पीकर मर्यादा की झीनी- झीनी लक्ष्मणरेखा पार करने की अनुमति कदापि नहीं दी जा सकती है। हम सदियों से साथ रहते आये हैं। प्रेम से मिलना और साथ में खाना-पीना, जीना - मरना, व्यापार, व्यवहार की सांझ रही है। भाईचारा रहा है। हमारे बच्चे साथ- साथ खेलते रहे हैं, पढ़ते रहे हैं। इधर कुछ समय से हमारे आसपास ऐसी अनेक घटनाएं हो रही हैं जिनसे ऐसा महसूस हो रहा है कि कुछ नासमझ लोगों के कारण से ‘भारतीयता’ का रंग फीका हो रहा है। दुःखद बात यह है कि कुछ तथाकथित ‘बुद्धिजीवी’ शिक्षा संस्थानों का वातावरण कलुषित करने यानी कीचड़ से भी खतरनाक जहरीले शब्दों की होली खेलने में लगे हैं। एक सीमा तक तो यह सहनीय हो सकता है लेकिन जब मन और बुद्धि से ‘फीके रंगों वालेे’ ये लोग देशविरोधी नारे लगाकर हमारी एकता और सदियों पुरानी सद्भावना और सहिष्णुता की परंपरा को ठेस पहुंचाने लगे तो ऐसे में यह प्रश्न उचित है कि क्या सरकार को ‘लट्ठमार’ होली के बारे में सोचना चाहिए या नहीं?
इधर समाज में नैतिकता के रंग बहुत महंगे हो रहे हैं क्योंकि सर्वत्र मानवीय मूल्यों में गिरावट देखने को मिलती है। भ्रष्टाचार की कालिख हमारे चेहरे को विकृत कर ही है। भ्रष्टाचारी रंग लम्बे समय से हमंे ऐसा चिपटा है कि हर बार रगड़-रगड़ कर नहाने के बावजूद यह कालिख कम होने की बजाय बढ़ती ही जा रही है। अनेक अभिनेता जो स्वयं को भ्रष्टाचार विरोधी विशेषज्ञ बताते रहे हैं इस रंग को उतारने के नाम पर जनता के वोट बटोरने में तो जरूर सफल हुए परंतु उन्होंने इसे कुरेदकर हटाना तो दूर छुआ तक नहीं क्योंकि जिस चुनावी सीढ़ी से वे कुर्सी पर चढ़े थे उसपर लगातार भ्रष्टाचारी रंग की मोटी परत चढ़ाना जरूरी है। ऐसे में हमारी छवि घोटालालैंड की बनती जा रही है। क्या इस होली पर हमें इस बात विचार नहीं करना चाहिए कि क्या हमारे पास कोई दूसरा ‘चारा’ नहीं है कि हम ‘बेचारा’ बनने को विवश है? क्या नैतिकता का रंग बनाने वाली फैक्ट्री भी सीलिंग की चपेट में आ गई है? क्या कोई ऐसा असली ‘रंगकाट’ नहीं है जो लोकपाल, लोकायुक्त के नारे लगाकर सत्ता प्राप्त करने तक सीमित न रहे? हमें ऐसा कान्हा चाहिए जो दरबार में जाकर भी न तो ग्वालों को भूले और न ही बांसुरी बजाना और गौ चराना भूलें।
राजनीति ही क्यों, हर जगह लगता है कि मानो सदाचारी, ईमानदार और मेहनती लोगों की कौम कहीं लुप्त हो गई है। बार- बार ऐसा लगता है कि बेइमान और चरित्रहीन लोग भीड़ से घिरे प्रतिष्ठा प्राप्त कर रहे हैं जबकि सच्चे और अच्छे अलग-थलग होकर गुमनामी की जिंदगी जी रहे है। क्या कोई ऐसा रंग नहीं है जो अच्छे लोगों के दिलोदिमाग में यह बात बैठा सके कि जब बुरे लोग मतभेदों के बावजूद अपने बचाव के लिए ‘ठगबंधन’ कर सकते हैं तो वे संगठित क्यों नहीं होते? इस होली पर ऐसा रंग जरूर तलाशो मेरे भाईयों!
इधर अचानक हम भेदभाव की बातें बहुत ज्यादा करने लगे हैं। कहीं सामाजिक भेदभाव, कहीं राजनैतिक भेदभाव, कहीं कुछ तो कहीं कुछ आरोप, प्रत्यारोप। भाषा की शालीनता तक गायब। आखिर हम क्यों भूल गए हैं कि आज़ादी की लड़ाई में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी, कच्छ से कामरूप तक सारा देश एकजुट था। किसी एक व्यक्ति या दल ने नहीं, सबने मिलकर ऐसा वातावरण बनाया कि अंग्रेज़ मजबूर होकर अपने देश लौट गए। आज जबकि भारत की कमान भारतीयों के हाथ में है तो कहीं जात-पात, तो कही अलग राज्य, कहीं भाषा का झगड़ा तो कहीं दूसरी बोलियों भाषाओं के प्रति सौतेला भाव। एक दूसरे को हीन और स्वयं को श्रेष्ठ बताने की होड़ हमारी सामाजिक और राष्ट्रीय एकजुटता और प्रेम की भावना को आहत करते हैं। क्या कोई इन्हें समझा नहीं सकता कि होली सभी को एक रंग में रंगती है। पुते हुए चेहरे देखकर कहां पता चलता है कि यह मेरा बेटा है या तेरा? यहां तक कि हम ‘मैं’ को भी भूलकर ‘हम’ के रंग में रंग जाते हैं।
किसी भी सभ्य समाज में हिंसा और अपराध, दुराचार और अत्याचार का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। लेकिन आज धैर्य, संतुष्टि के रंग उड़ते जा रहे हैं। सड़को पर छोटी छोटी बातों पर ‘रोडरेज’, घर और स्कूलों में छोटे- छोटे बच्चों का आत्मकेन्द्रित हिंसक व्यवहार बढ़ रहे हैं। क्या यह सत्य नहीं कि आज अधिक सुविधाएं पाकर हम जीवन के वास्तविक अर्थ से दूर जा रहे हैं। आखिर क्यों जीवन के कठोर यथार्थ से हम आंखे चुराने लगे हैं? क्या कोई ऐसे रंग का सूरमा नहीं जो हमारी दृष्टि को बदलें?
त्योहारों का एक ख़ास नाता व्यंजनों से भी होता है। हर पर्व पर कुछ विशेष प्रकार की व्यंजन बनते हैं।. होली पर गुजिया है तो सफेद दहीे में भूरे बड़े भी है। हरी चटनी है। लाल चटनी है। हल्की आंच पर सिकी भाटी संग दाल, पीले बेसन की पकौड़े, नमकीन है और न जाने क्या-क्या। रंग-बिरंगे, स्वादिष्ट व्यंजनों की जितनी विशाल श्रृंखला हमारे यहां है उतनी कहीं हो ही नहीं सकती। मन प्रसन्न हो उठता है. लेकिन जब खाने की चीजों में मिलावट का समाचार सामने आता है तो मजा किरकिरा हो जाता है। आओ विचार करें कि धनवान बनने की हवस ने हमें इतना अनहोली क्यों बना दिया हैं?
चलते-चलते-
वे बड़े हैं, दही में पड़े हैं
गधे की तरह अड़े हैं
लेकिन सवाल यह कि
गधा होकर भी
गधों के ही क्यों लड़े है?
गधों के सामने क्यों खड़े हैं?
क्यों लुप्त हो रहे हैं भारतीयता के रंग How to SAVE The Flavour of Our Culture
Reviewed by rashtra kinkar
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04:43
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