राम का नाम बदनाम न करों! # Ram Ka Nam Badnam N kro


राम का नाम बदनाम न करों!
एक डेरे के मुखिया को उसके अपराध की सजा मिलने पर चहूं ओर से अनेक तरह की टिप्पणियां की जा रही हैं। कोई हर धार्मिक व्यक्तिं को गलत बता रहा है तो कुछ नासमझ लोग  आशाराम, राम रहीम, रामपाल, रामवृक्ष जैसे तथाकथित बाबाओं का उल्लेख करते हुए राम का नाम  बदनाम करने पर आमादा है। वास्तव में ये वे लोग हैं जो अल्पबुद्धि होने के कारण केवल ‘कापी-पेस्ट’ तक सीमित है। या फिर वे जो इस देश और इसकी संस्कृति से अपरिचित है। वे समझकर भी नहीं समझना चाहते कि बाग में लगने वाले हजारों, लाखों फलों में कुछ फल सड़ गल जाने से पूरा बाग त्जात्य नहीं होता।  लाखों नोटों सिक्कों में कुछ नकली भी निकलते हैं परंतु हम पूरी मुद्रा को चलन से बाहर नहीं मान लेते जब तक सरकार ही नोटबंदी कर उन नोटों को चलन से बाहर न कर दें। 
राम पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके स्वयं के हाथ की सभी उंगलियाँ भी एक जैसी नहीं है। परंतु वे कुछ तथाकथित बाबाओ के कारण समस्त धार्मिक सत्ता को एक जैसा यानी दोषी करार दे रहे हैं। आखिर क्यों राम नाम पर सवाल उठाये जाये जबकि हमारे समाज में यहां देवी देवताओं, फलों, फूलों आदि के नाम रखे जाते रहे हैं। चूकिं राम सर्वाधिक प्रचलित शब्द है। राम केवल देवता या भगवान नहीं बल्कि शुभ और अभिवादन भी है। आज भी लोग एक दूसरे से मिलते हैं तो गुड मार्निंग नहीं बल्कि ‘राम-राम’, ‘जय राम जी की’, ‘जय श्री राम’ कह कर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं। हर मां-बाप अपने बच्चे का नाम शुभ ही रखना चाहता है। इसलिए राम शब्द स्वाभाविक है। 
कुछ लोग की करनी के कारण राम पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों को देश पर मर मिटने वाले खुदीराम बोस और रामप्रसाद बिस्मिल के नाम में राम क्यों दिखाई नहीं देता? अंध विश्वास और कुरीतियां के विरूद्ध लड़ने वाले राजा राम मोहन राय, प्रख्यात साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर और रामवृक्ष बेनीपुरी के बारे में इन्हें जानकारी क्यों नहीं है? कबीर के गुरु रामानन्द और विवेकानंद के गुरु राम कृष्ण परमहंस  के राम इन अक्ल के क्यों नहीं दिखते। यर्जुवेद के अध्याय 29 के श्लोक 58 में जिस राम का उल्लेख है। श्रीगुरु ग्रन्थसाहिब में जिसका नाम बार-बार आया है उस पर अंगुली उठाने वालों  की आंखों में ऐसा कौन सा रोग हो जाता है जो इन्हें पूरे विश्व में गाई जाने वाली आरती ‘ओम जय जगदीश हरे’ के रचयिता श्री श्रद्धाराम फिल्लौरी तथा शुद्धिकरण के प्रबल समर्थक और कट्टरवाद के विरूद्ध बलिदान देने वाले मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानंद) या फिर छत्रपति शिवाजी के समर्थ गुरु रामदास का राम दिखाई नहीं देता। उन्हें योग गुरु रामदेव से एलर्जी हो सकती है लेकिन उन्होंने पूरे विश्व में योग को जिस तरह से प्रचारित कर पुनः स्थापित करने में योगदान दिया है वह निश्चित रूप से सराहनीय है। 
राजनीति में एकता और सिद्धांतों के पक्षधर डा. राममनोहर लोहिया के नाम में राम शायद इनसे छूट जाता हो लेकिन आज देश के सर्वोच्च्चपद पर विराजमान श्री राम नाथ कोविंद की जानकारी तो अवश्य होगी ही। इनके अतिरिक्त सर्वश्रीं जगजीवन राम, राम विलास पासवान, काशीराम जैसे असंख्य नेताओं, खिलाड़ियों, महापुरूषों के नाम में राम हैं। यह मर्यादा पुरूषोत्तम  राम के नाम की महिमा ही है कि जिसने अपने नाम मं शामिल राम की मर्यादा का यान नहीं रखा, वह मिट्टी मे मिल गया। 
यह हमारी आत्मनिंदा की ही प्रवृति है वरना अधिकांश मुस्लिम के नाम के साथ मोहम्मद होता है परंतु वहां कोई यह नहीं कहता कि यह पैगंबर मोहम्मद साहब का नाम हैं। 
जहां तक अध्यात्म का प्रश्न है, इस देश के अधिसंख्यक लोग सत्य सनातन वैदिक संस्कृति का सम्मान करते हैं। वे जानते हैं कि कोई व्यक्ति कितना भी महान हो, ईश्वर नहीं हो सकता क्योंकि हमें हमारे गुरुजनों ने समझाया है-
एको सिमरो नानका-जल थल रहा समाय। 
दूआ काहे सिमरीए जो जन्मे ते मर जाय।।
वैसे कटु सत्य यह है कि दरअसल इन बाबाओं की महान घोषित कर उनकी दुकानें चलाने वाले कोई दूसरे नहीं बल्कि हम ही हैं जिन्हें धर्म की समझ ही कहां हैं?  दरअसल हमें अध्यात्म नहीं, भौतिक सुविधाएं चाहिए, कष्टों का निवारण चाहिए। इसलिए हम उन चमत्कार की तलाश में बाबाओं के पास जाकर कभी बेटा मांगते हैं तो कभी उन अनपढ़ बाबाओं से अपने बेटे के आईएएस पास होने के आशीर्वाद की गुहार लगाते हैं। कभी बेटे की नौकरी तो कभी उसकी शादी के लिए या बेटे के बेटे के लिए  बाबाओं पर अपना सब कुछ लुटाते हैं। हमें बाबाओं से बड़े मकान का तो कभी शत्रु निवारण का वरदान चाहिए।
 किसी की मुकद्दमेंबाजी में सारी जायदाद बिक गई है तो कोई रोजगार के बिना अभाव में घुट रहा है। ऐसे में कुछ लोग इन सबका कारण उसके पिछले जन्म के पापों को बताते हुए ‘सदगुरु’ की शरण में जाने के लिए दबाव डालते हैं। लेकिन सदगरु के लक्षण क्या होते हैं, वह कौन है और कहां मिलेगा, इसकी चर्चा सिरे से गायब है। ऐसे में भीड़ और कुछ झूठे सच्चे चमत्कारों की कहानियां अपना असर दिखाती है और एक और व्यक्ति बाबा का भक्त बन अपना सब कुछ समर्पण करने का संकल्प ले लेता  है। अपनी असंख्य कामनाओं का बोझ लादे का अध्यात्म से क्या नाता हो सकता है यह बात वे बाबा अच्छी तरह से समझते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सब बाबा बुरे हैं। कुछ बाबाओं ने अच्छे काम भी किये हैं। लेकिन वे चमक दमक और  प्रचार से दूर रहते हैं।
वास्तव में किसी भी राजनैतिक दल की तरह हर डेरे को भीड़ चाहिए। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि  कोई धनवान या विद्वान तो उनके यहां भीड लगाने से रहा। इसलिए वे गरीबों को आकर्षित करने के लिए तीनों टाइम लंगर, रहने की सुविधा, जरूरत पड़ने पर छोटी मोटी मेडिकल सुविधाएं भी उपलब्ध कराते हैं। अभाव, गरीबी, मजबरी के शिकार या बच्चों-बहुओं से परेशाने नियमित रूप से वहां जाकर विवादों से अपनी दूरी बनाकर मन की शांति पाते है। अनेक लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी सच्ची भावना के अभ्यास से आध्यात्मिक अनुभव भी प्राप्त करते हैं। इस भीड़ को देख या इधर-उधर से सुनकर भी अनेक लोग इन डेरों से जुड़ते हैं। वैसे ऐसे लोग भी है जो वास्तव में ही समाजसेवा के लिए जुड़ते हैं।
ध्यान रहे, कोई महापुरुष स्वयं को मानवता से परे नहीं समझता।  वह स्वयं कष्ट सहकर भी सबके हित की सोचता और करता है। इसीलिए कहा गया है-
क्षय्ते चंदनम दातुम्  सर्वेभ्यो निज सौर्वं। 
समर्पयती तथा लोके, राष्ट्रर्थम निज जीवनं।। अर्थात - जिस प्रकार चन्दन स्वयं को घिस कर दूसरो को सुगंध प्रदान करता है , उसी प्रकार महापुरुष भी राष्ट्र के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते है। जिनके धन, पद,  अहंकार, भौतिक अभीप्साएं तथा  विलासता और वासना युक्त पाप कर्मो की दुर्गंध चहूं ओर फैल रही हो वे बाबा या महापुरुष तो क्या मनुष्य भी नहीं हो सकते। विलासी जीवन से अध्यात्म नहीं पनपता है, आध्यात्मिकता त्याग, संयम और साधना से आती है। वरना तथागत बुद्ध को राजमहल छोडने की क्या आवश्यकता थी। जनक  निर्लिप्तता में सुख और आनन्द कैसे पातेे।
श्रद्धावान होना अच्छा है परंतु यह ज्ञान अत्यंत महत्वपूर्ण हैै कि श्रद्धा किसके प्रति होनी चाहिए। इसलिए सभी को ज्ञानवान होना चाहिए क्योंकि गीता के चौथे अध्याय के 38वे श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं..

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।’ अर्थात ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नहीं है.. न गंगा, न साधू संत और न ही मेले और झमेले।
 यह घोर कष्ट और खेद की बात है कि  आर्य (श्रेष्ठ) की संतान होकर भी हम अज्ञानी रहें। इसलिए हिंसा का सहारा लेकर व्यवस्था को बंधक बनाने वाले ढ़ोंगी अध्यात्मवादियों से  सावधान।
-विनोद बब्बर ( दूरभाष सम्पर्क - 9868211911. 7982 170421) 


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