कविता से कर्कशता की ओर व्यंग्य- Vyangy-- Kavita se Karkashta



व्यंग्य- कविता से कर्कशता की ओर

बचपन से अब तक अनेको बार सुन चुका हूं कि मनुष्य होना भाग्य है लेकिन कवि होना सौभाग्य। इसलिए एक बात जो मेरे मन- मस्तिष्क में फैविकोल से चिपकी है, वह यह कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने जिस ‘बड़े भाग्य मानुष तन पावा’ का उल्लेख किया है, ‘कवि मन’ उससे भी बढ़कर है।  बचपन में पाठ्य पुस्तकों में कुछ कवितायें पढ़ते, सुनते, गुनाते कवियों के प्रति श्रद्धा का सुनामी उमड़ता रहा है। मुझे कविता करनी तो नहीं आई पर लेकिन अनुभव ने कविता समझने की थोड़ी तमीज जरूर सीखा दी। इधर बाजारवाद की दस्तक के बाद से हमें बताया गया कि कविता नहीं, कवि महत्वपूर्ण है। इसलिए कविताओं से अधिक कवियों को समझना जरूरी है। वह जमाना गया जब कवि फटे कुर्ते वाले हुआ करते थे। आज के मंचीय कवि डिजाइनर कुर्ते, चमकीली जाकेट, तिल्लेदार जूती, गले में अंगवस्त्रम् में प्र्रकट होते हैं।’

हम अभी कबीर, मीरा, सूरदास, तुलसीदास, रैदास जैसे संत कवियों के बाद भारतेन्दू, दिनकर, मैथली शरण, निराला, पंत जैसे कवियों को समझने की कोशिश में थी इधर अचानक कवियों की बाढ़ आ गई। समझाना मुश्किल हो रहा था कि आ गई की मतलब कहीं यह तो नहीं कि कोई बांध टूट गया और बाढ़ का पानी रास्ता रोके खड़ा है। 
एक मित्र ने समझाया, ‘कवियों का सर्वसुलभ होना समाज के बौद्धिक स्तर में सुधार का परिचायक है।’ तो एक दूसरे कवि के अनुसार, ‘पाठक जी का सुलभ चाहे हर नगर, गांव तक न पहुंचा हो पर कवि जरूर हर जगह सुलभ है।’ पर तीसरे मित्र जो शायद कवियों से खार खाये हए थे, बोले, ‘जरूरत से ज्यादा सुलभ होने के कारण ही पाठकजी के सुलभ और इस सुलभ में अंतर लगातार कम हो रहा है। यकीन न हो तो बेतुकी, बेसुरी पंक्तियों को कविता कहने वालों से एक मुलाकात कर लो।’
मित्रों का अपना नजरिया है। वे लाख टेस्ट बिगाड़े लेकिन अपुन कविता के दीवाने हैं इसलिए कवियों का भी आदर करते है। मंचीय कवियों संग फोटू खिंचवाने वालों की भीड़ देख हमने भी एक कवि से दोस्ती कर मन में वीआईपी भाव उत्पन्न कर लिया। एक कार्यक्रम में उन मंचीय कवि उर्फ चुटकेलेबाज मित्र से मुलाकात हो गई। जानकारी मिली कि उस दिन भी वे हमेशा की तरह सीधे मुंबई से ही आये थे। मैंने पूछ ही लिया कि आप हर बार सीधे मुंबई से बाई एयर ही आते हो लेकिन क्या कभी मुंबई जाते भी हो या सिर्फ आते ही हो?
आदमी बिल्कुल शरीफ (नवाज) हैं इसलिए बोले, ‘आना-जाना तो दुनिया का दस्तूर है लेकिन हम कवियों का जिंदगी जीने का अंदाज कुछ अलग है। हमारा आना खबर होती है, जाना नहीं। जब जाने का कोई महत्व ही नहीं तो जाने की चर्चा पर कुछ शब्द क्यों बर्बाद किये जाये। वैसे आपको मालूम होना चाहिए हम केवल मुंबई से ही नहीं आते, मौके और मंच की गरिमा का ध्यान रखते हुए हम सीधे अमेरिका, इंगलैंड में भी आते हैं। दूर देश के आने वाले की कविता में कुछ कमी भी हो तो ढक जाती है। खुद चर्चा  में आने का इससे अधिक प्रभावी सूत्र फिलहाल उपलब्ध नहीं है। इसलिए समझा करों।’
‘लेकिन यह तो ‘फिसलन वाला’ सत्य  है। इस से आपको क्या लाभ होता है?’
‘ओह! यहीं तो समस्या है। पहले तो यह समझों कि आम आदमी और कवि में अंतर होता है। उसकी सोच अलग होती है। ये बातें आप जैसे लोग समझने लगे तो हमें कौन पूछेगा। आप हमारे बहुत अपने है इसलिए बताये देता हूं, इस तरह की बातों से कवि का भाव बढ़ जाता है।’
‘लेकिन कविता का भाव?’ पूछने पर वे बोले, ‘यह चिंता उनकी है जो कविता करते हैं। अपुन तो चुटकले को कविता बताते हैं। जहां ये दांव न चले वहां किसी दूसरे की कब्जाई/ हथियाई कविता प्रस्तुत करते हैं। कविता लिखने में दिमाग खराब करने वालों को मंच के आसपास भी नहीं फटकने दिया जाता। अगर वह खुद भी कहे कि यह कविता उसकी है तो भी कोई यकीन नहीं करेगा क्योंकि हम हर मंचपर उसे अपनी बताकर तालियां बटोर चुके होते हैं।’
इस दिव्य ज्ञान चर्चा में अचानक व्यवधान आ गया क्योंकि मंच संचालक ने उनका नाम पुकार दिया। उनका दुर्भाग्य कि संचालक महोदय पक्के राग वालों की तरह कविता के भक्त थे इसलिए वे इस जिद पर अड़े थे कि कवि सम्मेलन को कपि सम्मेलन में परिवर्तित नहंीं करने  देंगे। हमारे मित्र हर कला में माहिर थे। जाते थे दो-चार चुटकले पंतग की डोर की तरह हवा में फैलाये और ऊंचाई के ख्वाब लेने लगे। लेकिन संचालक जी तुरन्त डोर को झटका देते हुए कहा, ‘अगर कविता आती हो सुना वरना माइक छोड़ कुर्सी पकड़ लें।’ 
हमारे कवि मित्र  मंच के लटको-झटकों की कला के निष्णात थे। बोले, ‘बदलते दौर में खाना बनाने के लिए कूकर जरूरी है। कूकर होगा तो सीटी जरूरी है। कविता का माहौल बनाने के लिए चुटकुले जरूरी है।’
संचालक महोदय भी कम सिरफिरे न थे बोले, ‘ठीक है तू तले बैठ, मैं कूकर और स्टोव मंगवाता हूं। जब सीटी ही सुननी है तो उस्से की सीटी ने सुन लेंगे। अरे बावले जद तेरे धोरे कुछ भी कोन्या तो तू किसे दूसरे की कविता चोरी करके सुनावेगा। पर बेटा आड़ै तेरी दाल कूकर और सीटी से नहीं गलेगी। फौरन लिकड़ ले और किसे कवि ने आन दें।’

पर जनाब हमारे कपि मित्र अड़ गये कि तय राशि की पुड़िया लेकर ही हटेंगे। उन्होंने कवि से किन्नर का रूप धारण करते हुए संचालक महोदय की वालिदा, शालिदा की शान में गुस्ताखी करने की कोशिश की ही थी कि संचालक महोदय के इशारे पर उस कपि को काबू करने के लिए दो हट्टे कट्टे लंगूर उपस्थित हो गया। अपुष्ट सूत्रों के अनुसार उन्होंने हमारे मित्र की इतनी सेवा की, इतनी सेवा की कि वे आजकल कविता की नहीं, सरिता की शरण में जाने की सोच रहे है।

- विनोद बब्बर 9868211911 , 7982170421  ईमेल1vinodbabbar@gmail.com


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