जात न पूछो साधु की Not Caste, but Cost ( Moral Value) is Valuable
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ सारा विश्व एक परिवार है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।। अर्थात् सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। ‘अहम् ब्रम्हास्मि‘-मैं ब्रह्म हूं और तत्वमसि-तुम भी वही हो। ‘हिंदवः सोदराः सर्वे’ सभी हिन्दु सहोदर है। क्या यह आश्चर्य नहीं कि जिस समाज में उपरोक्त श्रेष्ठ उक्तियां लगभग प्रतिदिन सहज प्रयुक्त होती हो वहां जातिवाद, असमानता, छुआछूत जैसी बुराईयां न केवल हिन्दू समाज में बल्कि समानता का दावा करने वाले धर्मान्तरित मुस्लिम ईसाई समाज में भी फल-फूल रही हैं।
असमानता का पर्याय बना जातिवाद कहां से आया, इसपर अनेक मत हो सकते है। अधिकांश विचारको का मत है कि अंग्रेजों से पूर्व मुगलों ने एकता की प्रतीक हमारी संस्कृति कोे क्षीण करने के लिए हमें बांटने का षड्यंत्र रचा। दुर्भाग्य से वे सफल रहे क्योंकि हम असावधान थे। निसंदेह नासमझ भी। शायद लालची भी। शायद ऐसे ही अनेक अन्य कारण भी हों। कालान्तर में कबीर, नानक, नामदेव, दादू, तुकाराम, रैदास, चोखामेला से दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द, ज्योति राव फुले, गांधी, बाबासाहिब अम्बेडकर, गुरुजी, तक अनेक समाज सुधारको ने इस बुराई को दूर करने का प्रयास किया।
अक्सर कहा जाता है कि मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ भेदभाव, असमानता के पक्षधर है। बहुत संभव है इसकी कुछ बाते समय, काल, परिस्थिति अनुसार अप्रासंगिक हो चुकी हो। लेकिन हम यह भूलते हैं कि मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है - जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विजः उच्यते।
अर्थात् जन्म से सभी शूद्र होते हैं पश्चात संस्कारों से द्विज बनते है।
जाति को जन्म से जोड़ने वाले भी आज जाति परिर्वतन की अनुमति नहीं देते लेकिन मनुस्मृति (अध्याय 10 श्लोक 65) के अनुसार-
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चौति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवम तु विध्याद्वैश्यात्तथैव च।। अर्थात् ब्राह्मण शूद्र बन सकता है और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपना वर्ण बदल सकते हैं। वर्ण (जाति) बदलने के उदाहरण भी मिलते हैं। महाराज अग्रसेन क्षत्रिय से वैश्य हुए। श्रीकृष्ण यदुवंशी कहलाये। क्षत्रिय विश्वामित्र ब्रह्म-ऋषि हुए। यह किसे याद न होगा सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र बिके तो क्षत्रिय का खरीददार एक डोम हुआ। आज भी हमारे समाज की सभी जातियों के गौत्र एक समान ऋषि पर हैं। देश के विभिन्न भागों में ठाकुर ंक्षत्रिय है तो शुद्र भी। यही दशा शर्मा, राठौर, चौधरी सहित अनेक उपनामों की है। माना जा सकता है कि एक ही परिवार के पुत्र न जाने किन कारणों से धीरे -धीरे इतने दूर हो गए कि सहोदर होते हुए भी उनमें असमानता की दीवार आ गई। न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक स्तर पर भी।
जाति के पक्ष में अनेक तर्क भी हो सकते हैं तो अनेक विरोध भी। लेकिन तमाम विरोधाभासों के बीच जाति एक यथार्थ है। आश्चर्य यह भी कि ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र के बीच ही नहीं इन वर्गो में आपस में भी ऊँच-नीच है। ब्राह्मणों में भी छोटी बड़ी जातियाँ हैं। वे भी एक दूसरे के हाथ का पानी नहीं पीते। तथाकथित छोटी अथवा पिछड़ी कही जाने वाली जातियों भी श्रेष्ठता ग्रन्थी का शिकार है। उनमें भी एक दूसरे को छोटा-बड़ा बताने की प्रवृत्ति है। उनमें भी रोटी-बेटी का संबंध नहीं है। इसे केवल सैकड़ों हजारों वर्षों की दरिद्रता और शिक्षा से दूर रखने का परिणाम भी नहीं कहा जा सकता। यह समस्या हमारी जड़ों में कहीं गहरे तक फैली हुई है। कटु सत्य यह है कि पुराने कुसंस्कारों के लबादे को हम भी एक झटके में उतार फेंकने के लिए मानसिक रूप से आज भी तैयार नहीं हैं।
अनेक अज्ञानी जाति को पूर्व जन्म के कर्मो से जोड़ते हुए इसे उचित ठहराते हैं लेकिन उनका स्वयं का आचरण इसके विपरीत होता है। आखिर वे अगले जन्म की चिंता क्यों नहीं करते? क्यों भेदभाव, अन्याय, असमानता के पक्षाधर बन अपना अगला जन्म खराब करते हें? हमें ऐसी अवैज्ञानिक थ्यौरी से मुक्त होना होगा। जड़ हो चुकी अमानवीय परम्पराओं को आधुनिक वैज्ञानिक मानकों पर परखा जाना चाहिए। जीवनमूल्यों को मन, मस्तिष्क और व्यवहार में आचरणीय बनाना होगा। हम सभी को समझना होगा कि सामाजिक समरसता भारतीय संस्कृति की आत्मा है। बेशक हर गांव के अपने देवता है। हर वर्ग की अपनी परम्पराएं हैं। पानी और वाणी की तरह थोड़ी-थोड़ी दूरी में एक ही वर्ग में संस्कार और संस्कृति की भिन्नता देखने को मिलती है। लेकिन विविधता में एकता की भावना ही भारतीय संस्कृति का प्राण है। यह सुखद है कि न केवल आज बल्कि लंबे समय से संत, साहित्यकार, समाजशास्त्री इस विषमता को दूर करने में अपने- अपने ढ़ंग से प्रयास कर रहे है।
निःसंदेह आज शिक्षा के प्रचार-प्रसार ने इस विभाजन को कम किया है। आज की युवा शिक्षित पीढ़ी अंतर्जातीय विवाह कर रही है। आज शहरी जीवन में रहन-सहन, खानपान में कहीं छुआछूत दिखाई नहीं देती। बड़े-बड़े होटलों, रेस्टोरेंटों में ही नहीं शादी- पार्टियों में खाना बनाने वाला कूक किस जाति का है, यह बिना जाने लोग उसके हाथ से बने व्यंजनों का आनंद लेते हैं। दूसरों के उदाहरणो से हटकर स्वयं के जीवन की एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। लगभग तीन दशक पूर्व अचानक एक क्षेत्र से गुजरते हुए एक युवक ने अभिवादन करते हुए याद दिलाया कि वह मेरा छात्र रह चुका है। उसका घर सामने ही था। भयंकर गर्मी के कारण मुझे तथा मेरे साथियों को प्यास लगी थी। मैंने उसके घर चलकर पानी मांगा। लेकिन उसकी माँ ने यह कहते हुए पानी देने से संकोच किया कि वे सफाई कर्मचारी परिवार से हैं। उसने अपने बेटे को बाजार से बोतलबंद पेय लाने के लिए कहा लेकिन हमने इसका प्रतिवाद करते हुए उनके गिलास से घड़े का पानी पीना स्वीकार किया। ऐसा कर हमने कोई क्रांति कारी काम नहीं किया बल्कि अपने कर्तव्य का ही पालन किया था। ऐसे अनेक अवसर केवल मेरे ही नहीं आप सबके जीवन में भी हो सकते हैं जो रूढ़ियों की जड़ता के विरूद्ध आपका प्रयास रहा होगा। अब प्रश्न यह है कि ऐसे प्रयास बहुत प्रभावी क्यों नहीं हो पाते। कारण भी स्पष्ट है वोट बैंक सहित कुछ ऐसे तत्व है जो इस जड़ता को बरकरार रखना चाहते हैं। इसलिए मानसिक विकृति बन चुकी हमारी श्रेष्ठता ग्रन्थी बार-बार उभारी जाती है। कभी गुजरात तो कभी उत्तरप्रदेश। कभी बिहार तो कभी पंजाब। कभी कर्नाटक तो कभी आन्ध्रा। आश्चर्य यह भी है ऐसा होने पर खूब शोर कर वोटो की फसल काटने वाले भी यथास्थिति बनाये रखने का प्रयास करते है। अगर ऐसा न होता तो देश के सबसे प्रदेश में बदलाव की बड़ी-बड़ी बाते करके अनेक बार सत्ता में आने वाले स्थिति को बदल क्यों पाये। शायद उनके लिए खुद का और उनके निकटस्थ व्यक्तियों का साधन एवं शक्ति संपन्न हो जाना ही समानता का पर्याय है।
बदलते दौर में जरूरत है हम स्वयं की सोच को बदलते हुए राजनीति के चेहरे और चाल को समझे क्योंकि इससे किसी सामाजिक परिवर्तन असंभव है। वर्तमान लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात करते हुए हमें सच्चे हृदय से यह स्वीकार करना चाहिए कि जिस प्रकार जन्म लेने से ही राजा नहीं होता। राजा बनने के लिए उसे कुछ ऐसे कर्म करने पड़ते हैं जो बहुमत का दिल सके। ठीक उसी प्रकार जन्म से ही कोई महान नहीं हो सकता। यदि कोई ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर भी सामाजिक मर्यादा का निर्वहन नहीं करता है तो वह क्षुद्र है। और तथाकथित क्षुद्र परिवार में जन्म लेकर भी अपने विचार और कर्म की महानता के कारण वह ब्राह्मण ही है। बाबा साहिब अम्बेडकर सहित ऐसे अनेक ऐसे़े उदाहरण हमारे सामने है।
धार्मिक संतों को इस संबंध में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। आर्यसमाज तथा सिक्ख समाज ने इस संबंध में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि केवल भारत ही नहीं विदेशों में भी गुरुघरों में धार्मिक कार्यों का निष्पादन समाज के उपेक्षित वर्ग के लोग करते है। गुरु के लंगर में जाति-धर्म का कोई भेद नहीं। ग्रन्थी, पाठी को सम्मान देना भारत की उस परम्परा का सम्मान है जिसकी राह हम जाने-अनजाने भटक चुके हैं। भटकना इतना बुरा नहीं जितना बुरा है भटकाव पर गर्व करना। भटकाव यदि परम्परा बन जाये तो समाज का गौरव नष्ट होना तय है। हमें हर प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचार करना चाहिए कि सदियों रही गुलामी का कारण कहीं भटकाव पर गर्व करने वाली हमारी ग्रन्थी ही तो नहीं है? क्या यह सत्य नहीं कि इसी भटकाव का शिकार हमारा अपना ही समाज हुआ जिसने असमानता को ‘धर्म’ बताया तो अधर्मियों ने असमानता के शिकार हमारे ही भाईयों को समानता का स्वप्न दिखाकर धर्मान्तरण का जाल बिछाया। काश! हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को व्यवहार रूप में ला पाते। काश! हम ‘हिंदवः सोदराः सर्वे’ को असफल बनाने वालों के इरादों को असफल बनाने के लिए सजग रहते।
जो हुआ सो हुआ। बीती ताही बिसार ले और आगे की सुधि लेय। समझदार वह होता है जो अतीत से सबक लेकर वर्तमान को सुधारता है और शानदार भविष्य की नींव रखता है। हम सभी को अपने आपसे पूछना चाहिए कि आखिर हम अपनी भावी पीढ़ी को कैसा भारत सौंपना चाहते हैं? क्या बंटा हुआ, लूजपूंज अथवा एकता की नींव पर खड़ा तेजस्वी भारत! -- विनोद बब्बर संपर्क- 09868211 911
जात न पूछो साधु की Not Caste, but Cost ( Moral Value) is Valuable
Reviewed by rashtra kinkar
on
08:13
Rating:
No comments