सपने बेचने की आजादी कब तक Freedom to sale the DREAMS
दुनिया गोल है या चपटी। उष्ण है या शीतोष्ण। उत्तरी गोलार्द्ध में है या दक्षिणी गोलार्द्ध में। वहां किस जाति- धर्म के लोग बसते हैं। उनका रहन-सहन, जीवन स्तर कैसा है। बोली-भाषा कैसी है। वे आक्रामक हैं या विनम्र। गोरे हैं या काले। वे मतवाले हैं या निराले। विविधताओं से भरी इस रंग-बिरंगी दुनिया में बेशक कोई अन्य समानता हो या न हो लेकिन दुनिया भर में जहां भी नजर उठाकर देखो, आजादी के दीवाने जरूर मिलेंगे। हाँ, यह भी सत्य है कि सबकी आजादी अलग है क्योंकि उनकी गुलामी के आकार- प्रकार भिन्न हैं। किसी फूल को कांटों के पहरे से आजादी चाहिए तो कोई कांटों के पहरे को आजादी मान रहा है। किसी को साम्राज्यवाद से आजादी चाहिए तो किसी को रूढ़ियों से। कोई गरीबी को गुलामी का पर्याय मानते हुए उससे आजादी चाहता है तो कोई अमीरी के आडंबर तले दबी कुचली अपनी अंतर्रात्मा को उसकी गुलामी से मुक्त कराने की जद्दोजहद में है। केवल इतना ही नहीं, ऐसे हजारो-लाखों अन्य कारण भी हो सकते हैं जिन्हें गुलामी की श्रेणी में रखा जाता हो। कारण कुछ भी हो, चाह सबकी एक ही है - आजादी!
वास्तव में आजादी एक खूबसूरत अहसास है, अनूठा विश्वास है, प्राणधर्मा श्वास है। केवल स्वप्न नहीं यथार्थ की जमीन पर साक्षात है। आजादी एक पड़ाव नहीं, सर्वागींण विकास की ओर सतत् यात्रा है। केवल भौतिक विकास ही नहीं, मानसिक और बौद्धिक विकास भी। इस अर्थ में आजादी और विकास सहोदर हैं। और हाँ, आजादी को केवल राजनैतिक आजादी से तक सीमित नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा होता तो आज लगभग पूरी दुनिया समस्याओं से मुक्त होती। कहीं भी गुलामी न होती। लेकिन सत्य तो यह है कि राजनैतिक आजादी एक ऐसी ‘एयरबस’ है जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, बौद्धिक आजादी के सुनहरे पंख लगे हैं जिनकी शक्ति और सामर्थ्य से ही कोई राष्ट्र विश्व में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकता है। हम भी तो उसी दौर से गुजर रहे हैं जहां सभी को इन पंखों को मजबूती की चाह है ताकि अधिकतम आजादी को प्राप्त कर सके।
जब हम आजादी की बात करते हैं तो उसमें केवल अधिकार ही नहीं, जिम्मेवारी भी निहित है। बिना कर्तव्य के अधिकार का कोई अर्थ नहीं होता। अनुशासन के बिना स्वतंत्रता अराजक हो जाती है। स्वतंत्रता के आनंद को बाधित कर सकती है। जिस सड़क पर सभी यातायात के नियमों का पालन करेंगे वहां सभी को अपने गंतव्य पर जाने की सुरक्षित पहुंचने की आजादी होगी। यदि किसी चौराहे पर नियमों को ताक पर रखकर सभी एक- दूसरे से पहले निकलने को आजादी का पर्याय मानने लगेंगे तो सभी को ‘ट्रैफिक जाम’ बंधक बना लेता है। यदि हम अपने परिवेश की सफाई का ध्यान नहीं रखेंगे तो इधर -उधर कचरा होना स्वाभाविक है। ऐसे में हम किस अधिकार से गंदगी को कोस सकते हैं। किस नैतिक अधिकार से प्रशासन को कोस सकते हैं? अतः स्पष्ट है कि आजादी को अनुशासन की सहधर्मिणी क्यों कहा गया है। दोनो कदम मिलकर चले तो जय-जयकार वरना ‘हाहाकार’।
राज्य, सत्ता और जनता का संबध दुनिया भर में लगभग एक सा है। हर स्थान पर जनता को सत्ता से कुछ-न-कुछ शिकायत होती ही है। वे उसके विरूद्ध आवाज भी उठाती है। अगर आवाज लगातार अनसुनी होती रहे तो लोकतंत्र में जनता उचित अवसर पर सत्ता को भी ‘अनसुना’ कर देती है। सत्ता से ‘आजाद’ होते ही उनका ‘विवेक’ लौटने लगता है लेकिन तब तक नये नायक भी जनता से किये ‘वादो की गुलामी’ से स्वयं को आजाद करने लगते हैं। यह चक्र चलता रहता है। चलता रहेगा। लेकिन इधर राज्य से आजादी की कुप्रथा सिर उठा रही है। राज्य केवल भौगौलिक सीमाओं का नाम नहीं है। उसका संविधान भी राज्य है। संविधान के नियम- कानूनों में ही राज्य की शक्ति निहित है। लेकिन कुछ लोग संविधान की परवाह भी नहीं करना चाहते। स्वयं को ‘सुप्रीम’ मानने वाले ‘स्वच्छंदता’ को स्वतंत्रता मानते हैं। श्रेष्ठता ग्रन्थी के गुलाम ऐसे लोगों से आजादी कोई पाप या अपराध नहीं है बल्कि जनता का अधिकार ही है।
हमें अभिव्यक्ति की आजादी है। सूचना प्राप्त करने की आजादी, भ्रष्टाचार से आजादी, जाति- धर्म, भाषा, भूषा, क्षेत्र, लिंग अर्थात् संकीर्णता से आजादी, शिक्षा प्राप्त करने की आजादी, समान रूप से बढ़ने की आजादी, अपनी प्रतिभा के विकास की आजादी, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के संरक्षण की आजादी, शीघ्र एवं समान न्याय प्राप्त करने की आजादी, वंशवाद से आजादी, अपनी इच्छानुसार अपना प्रतिनिधि चुनने की आजादी, अवैज्ञानिक अंधविश्वासों से आजादी हर हालत में मिलनी ही चाहिए लेकिन अश्लीलता फैलाने के लिए नैतिकता से आजादी नहीं दी जा सकती। किसी को भी राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज का अपमान करने की आजादी नही है। छूआछूत की आजादी का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। असमानता फैलाने की आजादी भारत भूमि में हर्गिज, हर्गिज नहीं दी जा सकती। द्वेष फैलाने की आजादी की कामना भी अक्षम्य है। राष्ट्रद्रोह की आजादी शरीर को आत्मा से आजादी को निमंत्रण है। शोषण की आजादी नहीं, मनमानी की आजादी नहीं, व्यवस्था पर चरित्रहीनों के हावी होने की आजादी हर्गिज नहीं। बदलते दौर में बहुसंख्यक जनता को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, भावनात्मक रूप से आहत करने वाली हर बुराई से आजादी का अधिकार रहेगा।
70 वें स्वतंत्रता दिवस पर हमारे सामने यक्ष प्रश्न है कि क्या इन वर्षों में आजादी का लाभ आखिरी पायदान पर खड़े आम व्यक्ति तक पहुंचा? आम आदमी? यहां ‘आम आदमी’ के नाम पर राजनीति से राजनैतिक दल तक तो हो सकते हैं लेकिन उसकी सुनवाई असंभव नहीं तो बहुत कठिन जरूर है। उसे हर दल में ‘छला’ क्योंकि छलना ही राजनीति की ‘कला’ है। संसद से सड़क तक गांव और गरीब के नाम पर लच्छेदार भाषण जरूर हो सकते है लेकिन सत्य यह है कि विश्व सूची में भारतीय किसान या मजदूर नहीं, भारतीय अरबपति चौथे स्थान पर पहुंचते है। इसका श्रेय लेने के लिए तो सभी सीना ताने तैयार हैं लेकिन तमाम दावों- प्रतिदावों के बावजूद शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, बेरोजगारी में हमारा स्थान नीचे से किस क्रम पर है इसकी चर्चा को भी कोई तैयार नहीं है। जब तक हम अपने देश को गरीबी, भुखमरी, बेकारी, सामाजिक-आर्थिक अन्याय, असमानता, भय, आतंक, असहिष्णुता, अशिक्षा, कुपोषण, शोषण, अपसंस्कृति, लूट, झूठ, फूट, कट्टरता, असमानता, तुष्टीकरण, ,अलगावावाद, चुनावी भ्रष्टाचार जैसे गुलामी के पोषकों से पूरी तरह न सही, दो-तिहाई भी आजाद कराने में सफल नहीं होते हमारी आजादी पर प्रश्नचिन्ह रहेगा।
आजादी सुनिश्चित करना केवल सरकारों की जिम्मेवारी नहीं हो सकती। व्यक्तिगत स्तर पर भी हम सबको भी अपनी भूमिका के बारे में पूर्वाग्रहों से हटकर एक ‘आजाद सोच’ के साथ चिंतन करना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण जल संरक्षण से वैचारिक प्रदूषण तथा नारी सम्मान व दहेजप्रथा के पक्ष अथवा विरोध में हमारा खुद का व्यवहार कितना विरोधाभासी है। योग्यता को ज्ञान की बजाय नकली डिग्रियों से किसी सरकार ने नहीं हमने जोड़ा है। नैतिक चरित्र की बजाय अंकतालिका अथवा फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने से जोड़ना शिक्षा का अवमूल्यन है। मानसिक गुलामी है। दुःखद पहलु यह है कि इससे आजादी की सुगबुगाहट तो कहीं नजर नहीं आती। हाँ, गुलामी की ओर बढ़ने की होड़ जरूर सर्वत्र दिखाई देती है।
कभी ‘गरीबी हटाओं’ का नारा लगाकर सत्ता पाने वालों को आज ‘अच्छे दिनों’ का ताना देने की आजादी है लेकिन हमें यह आजादी नहीं है उनसे या इनसे उनकी कारगुजारी के बारे में जवाब तलब करें। जब तक सपने दिखाने वालों के लिए उसका रोडमैप बताने और सत्ता पाकर अपने वादे पूरे न करने वालों पूरे न करने वालों को दंडित करने का प्रावधान नहीं होगा, आजादी अधूरी रहेगी। उन्हें स्वप्न बेचनेे का अधिकार तो है। लेकिन सपनों का सपना बने रहना किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र और उसकी व्यवस्था के मस्तक पर लगा कलंक है। अगर सपने गलत है तो उन्हें बदला जाना चाहिए और अगर सपने सही है तो उन्हें साकार करने की दिशा बदलने की आजादी भी चाहिए। फिलहाल 69 वर्षों की आजादी के सबसे बड़े रक्षक और विपरीत परिस्थितियों में भी अदम साहस और शौर्य के प्रतीक हमारे वीर जवानों को कोटिशः नमन!
डा. विनोद बब्बर संपर्क- 09868211 911
सपने बेचने की आजादी कब तक Freedom to sale the DREAMS
Reviewed by rashtra kinkar
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