जन-चेतना से जल चेतना--डा विनोद बब्बर


जल जीवन की प्रथम शर्त है। हमारे शरीर में दौड़ता रक्त भी नदीजल के ‘चेरावेति- चेरावेति’ को सार्थक करता जल ही तो है। हमारे ऋषियों ने इसे ‘आपो ज्योति रसोअमृतम’। घोषित किया तो ‘अप् सुक्त’ (ऋचा- शं नो देवीर् अभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योर् अभिस्त्रवन्तु नः.....- ऋग्वेदः 10/9/4) जल पर लिखी विश्व की प्रथम कविता है। अंजुली में जल लेकर पवित्र संकल्प से जल को अभिमंत्रित कर जनकल्याण का भाव रखने वाले ऋषियों की धरा पर जल के संबंध में अनेक जनश्रुतियां प्रचलित हैं। अथर्ववेद 3/12/9 में भी कहा गया है- इमा आपः प्र भराम्ययक्ष्मा यक्ष्मनाशनीः। गृहानुप प्रपसीदाम्यतेन सहाग्नि।। अर्थात् भली भांति रोगाणु रहित तथा रोगों को दूर करने वाला जल लेकर आता हूँ। इस शुद्ध जल के सेवन से यक्ष्मा टीबी जैसे रोगों का नाश होता है। अन्न, दूध, घी आदि द्रव्यों में जल का महत्वपूर्ण स्थान है और इसमें जल अग्नि सहित निवास करता है। भारतीय साहित्य ने ही विश्व को मेघदूत सरीखा महाकाव्य प्रदान किया। हम गंगापुत्र भीष्म के चरित्र से परिचित हैं तो इन्द्र पुत्र अर्जुन का पराक्रम भी किसी से भूला नहीं है। आज भी हम वरुण देव की पूजा करते हैं। विश्व की हर सभ्यता नदी घाटी सभ्यता कहलायी। हमारी अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ति की जल के बिना कल्पना ही संभव नहीं हैं। इसीलिए तो भारतीय संस्कृति में नदियों को जीवनदायिनी माता कहा गया है। नदी किनारे पवित्र स्नान, उसकी आरती उतारना, हर मांगलिक अवसर पर कलश की स्थापना केवल कर्मकांड नहीं हो सकते। इसी सप्ताह प्रयाग में होने वाले कुम्भ के अवसर पर यह चिंतन सामयिक होगा कि आज हमारे अविवेकी स्वार्थ ने नदियों की क्या दशा कर दी है। कभी जीवनदायिनी रहीं हमारी पवित्र नदियां आज कूड़ा घर बन जाने से कराह रही हैं, दम तोड़ रही हैं। नदियों के तट माफिया एवं उद्योगों के कब्जे ने स्थिति को बद से बदतर बना रहा है। प्रदूषण फैलाने और पर्यावरण को नष्ट करने वाले, जलस्रोतों को पाट कर दिन -रात कुबेर बनने के खेल में लगे हुए हैं लेकिन वे समझ नहीं पा रहे हैं कि कराहती नदियां अपनी पीड़ा कहें तो किससे कहें? कौन सुनेगा उनकी दर्दभरी दास्तान- है अपना दर्द एक, एक ही कहानी, सूखेंगी नदियां तो, रोयेगी, सदियां, ऐसा न हो प्यासा, रह जाये पानी। हमने जो बोया वो काटा है, तुमने, मौसम को बेचा है बांटा है, तुमने, पेड़ों की बांहों को काटा है, तुमने। सूखे पर्वत की धो डालो, वीरानी, सुनो नदी का दर्द,दर्दभरी कहानी। नदियों में पर्याप्त जल होना चाहिए, लेकिन केवल इतने भर से प्रदूषण कम नहीं होगा। पर्यावरण असंतुलन का मुख्य कारण प्राकृतिक चक्र में व्यवधान हैं। हम अपने फायदे के लिए प्राकृतिक स्रोतों का ज़बरदस्त दोहन कर रहे हैं। इसी कारण कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा विनाशकारी साबित हो रहे हैं। गंगा का पानी कभी सबसे स्वच्छ होता था इसीलिए तो कहा गया है-गंगा तेरा पानी अमृत। मान्यता थी कि इसे पीकर या इसमें डुबकी लगाकर बीमारियां दूर हो जाती हैं। लेकिन अब स्थिति उलट है। गंगा के इर्द-गिर्द बढ़ते शहरीकरण, उद्योग धंधों से निकलने वाले कचरे, प्रदूषणकारी तत्वों के बढ़ने के कारण गंगाजल में आर्सेनिक का जहर घुल गया है। उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल में गंगा के किनार बसने वाले लोगों में भारी संख्या में आर्सेनिक से जुड़ी बीमारियां हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार केवल पश्चिम बंगाल में ही 70 लाख लोगों आर्सेनिक जनित बीमारियों के चपेट में होने का आकलन किया है। मानको के अनुसार पानी में आर्सेनिक की मात्रा प्रति अरब 10 पार्ट से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। या प्रति लीटर में 0.05 माइक्रोग्राम से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। लेकिन शोध बताते हैं कि यह इन क्षेत्रों में 100-150 पार्ट प्रति बिलियन तक आर्सेनिक पानी में पहुंच
चुका है। इस कारण प्रभावित क्षेत्रों में दांतों का पीला होना, दृष्टि कमजोर पड़ना, बाल जल्दी पकने लगना, कमर टेड़ी होना, त्वचा संबंधी बीमारियां प्रमुख हैं। कुछ अन्य शोधों से आर्सेनिक के चलते कैंसर, मधुमेह, लीवर को क्षति पहुंचने जैसी बीमारियां बढ़ने की भी खबर है। इस समस्या से निपटने के लिए आर्सेनिक बहुलता वाले स्थानों पर ट्रीटमेंट प्लांट लगने चाहिए। आर्सेनिक बहुलता वाले स्थानों में गंगा के पानी के ट्रीटमेंट के बाद ही उसे स्थानीय लोगों को पीने के लिए सप्लाई किया जाए। असल में अभी ऐसे प्लांट कम हैं जिस कारण सीधे लोग इस पानी को गंगाजल समझकर पी रहे और बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। कभी दिल्ली की यमुना की तरह प्रदुषित लंदन की टेम्स नदी को देखा तो दंग रह गया। यह जानना सुखद लगा कि टेम्स वाटर अथॉरिटी का मानदंड रखा कि जिस जल में समान मछली पैदा हो उसे ही प्रदुषणमुुक्त माना जाएगा। पानी एकदम स्वच्छ होना चाहिए। दूसरी ओर पिछले दिनों रायबरेली के डलमऊ में जाने का अवसर मिला तो गंगा स्नान का आकर्षण मुझे घाट तक ले गया। मन में श्रद्धा लिए जब आगे बढ़े तो देखा कि गंगा की धारा अत्यंत क्षीण थी। उसपर भी उसका जल लाल और झागदार था। मेरा सारा उत्साह जाता रहा। मैंने जब लोगों से गंगा की इस दुर्दशा का कारण जानना चाहा, तो पता चला कि गंगोत्री से नरौरा तक गंगा जी को कई स्थानों पर बांध दिया गया है, जिसके कारण हिमालय का यह पवित्र जल कई स्थानों पर ठहर कर सड़ रहा है, और जो जल दिखाई दे रहा है, उसमें अनेक तटवर्ती नगरों का मल-जल और कानपुर की चमड़ा इकाइयों द्वारा बहाया गया अपशिष्ट है, तो मन क्षोभ से भर उठा। आश्चर्य हुआ कि जो मीडिया एक गले-सड़े नेता पर जूता फॅंेकने की घटना पर इतना शोर मचाता है , वहीं कोटिशः जनता की श्रद्धा का केन्द्र माँ गंगा में मल डालने पर पर्याप्त चर्चा भी नहीं करता। हम स्वयं को गंगापुत्र कहलाते हुए गौरव तो अनुभव करते हैं लेकिन गंगामैया की दुर्दशा पर खामोश रहते हैं। हमारा विश्वास है कि गंगा ब्रह्मलोक से शिव की जटा में आईं, परंतु शिव ने उन्हें अपनी जटाओं में रोक लिया। राजा भगीरथ के अनुरोध पर उन्होंने अपनी जटाएं निचोड़ कर छोड़ी, जिससे गंगा की अनेक धाराएं निकली। इनमें तीन प्रमुख हैं, अलकनंदा, मंदाकिनी और भागीरथी। इनमें से एक धारा पाताल चली गई, जिसका नाम भोगावती हुआ। दूसरी धारा स्वर्ग चली गई, जिसका नाम अलकनंदा हुआ। यही धारा स्वर्ग से उतरकर बद्रिकाश्रम से प्रवाहित होती है। तीसरी धारा भगीरथ के रथ के पीछे चलकर देवप्रयाग आई और भागीरथी कहलाई। आगे चलकर देवप्रयाग में उपयुक्क्त तीनों धाराएं मिल जाती हैं। इसके अतिरिक्त शंकर की जटाओं से अनेक अन्य धाराएं निकलती हैं, जिन्हें हिमालय में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। लगभग सभी धाराएं अलकनंदा में ही मिल जाती हैं। इन धाराओं के दोनों तटों का बहुत बड़ा पर्वतीय भू-भाग अपने विकास हेतु इन्हीं धाराओं पर अवलंबित होता है, परंतु इन धाराओं पर बांधों का बनना इस क्षेत्र के विकास में बाधक हो जाता है। प्रचलित मान्यता है कि बांध विकास लाता है, जबकि बांध न केवल नदी का जीवन समाप्त करता है, अपितु नदी तट के समस्त पर्यावरणीय अपघटकों में विनाशकारी परिवर्तन लाता है। वस्तुतः बांधों में पानी के रुकने के कारण प्राकृतिक झरने बंद हो जाते हैं तथा नदी का बहुत बड़ा भू-भाग सूख जाता है। तटवर्ती नगरों के पशु-पक्षी एवं मनुष्य जलाभाव जन्य समस्याओं के शिकार होते हैं। जल जब धरती से हटाकर सीमेंट से बनी सतहों से प्रवाहित किया जाता है, तो उसकी गुणवत्ता समाप्त हो जाती है। यदि नदी वेग से प्रवाहित होती है, तो जल के अनेक दोष स्वतः समाप्त हो जाते हैं। लेकिन जब बीच-बीच में उसका प्रवाह रोक दिया जाता है, तो उसकी दोष निवारण क्षमता समाप्त हो जाती है। नदी का तात्पर्य ही है, बहने वाली जलधारा। एक आम धारणा यह भी है कि गंगा ेकेवल मैदानी क्षेत्रों में ही प्रदूषित होती है। परंतु अब देखा जा रहा है कि बढ़ते पर्यटन और भोगवाद ने बद्रिकाश्रम और गंगोत्री आदि उद्गम स्थलों से ही उसे प्रदूषण का शिकार बनाना प्रारंभ कर दिया है। धार्मिक आस्थाओं पर मौज-मस्ती हावी हो रही है इसीलिए तो हरिद्वार का पवित्र माना जाने वाला गंगाजल आज आचमन के योग्य भी नहीं रह गया है। स्थानीय लोगों के अनुसार ऋषिकेश और हरिद्वार के बीच स्थित रासायनिक फैक्टरी के अवशेष गंगा में गिरकर उसे मैला बना रहे है। प्रयाग के पूर्व ही कन्नौज एवं कानपुर तक गंगा अत्यंत प्रदूषित हो जाती है। दूसरी तरफ हिमालय के यमुनोत्री से निकलने वाली यमुना नदी की दशा क्या है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। सैंकड़ों करोड़ खर्च करने के बाद भी देश की राजधानी दिल्ली में यमुना सफाई अभियान असफल नजर आता है तो शेष देश की वास्तविकता की कल्पना की जा सकती है। लगता है जैसे नदियों के पानी की चिंता से ज्यादा चिंता, पानी के पीछे पानी की तरह पैसा बहाने को लेकर हों। दिल्ली के नजफगढ़ नाले सहित अन्य नालों का समस्त मल-जल लेते हुए यमुना मथुरा, वृंदावन, आगरा होेते हुए प्रयाग में संगम स्थल पर अपनी सारी गंदगी गंगा की गोद में डाल देती है। उससे आगे की दास्तान भी इससे बुरी है। कुछ क्षेत्रों में तो ग्रीष्म ऋतु में गंगा जल हाथ में लेने से कीड़े दिखाई पड़ने लगते हैं क्योंकि मल-जल ही नहीं कारखानों का जहरीला पदार्थ भी इसमें शामिल हो रहा है। अब इसके तटवती क्षेत्रों के तालाब एवं नलकूप आदि जलस्त्रोतों के प्रदूषित जल से सींचे गए अन्न, फल-फूल एवं सब्जियों में भी प्रदूषण व्याप्त हो जाता है। जलस्तर के घटने की चर्चा करें भी तो क्या। आज इससे सीधे आजीविका चलाने वाले पंडे-पुरोहितों, नौका चालकों एवं पर्यटकों को ठहराने और घुमाने वालों की आजीविका खतरे में पड़ गई है। इन परिस्थितियों का अवलोकन करने पर यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि गंगा को अविरल, निर्मल बहने दिया जाए तथा जिन योजनाओं से इनमें बाधा पड़ती है, उन्हें तत्काल रोका जाए। जलपुरुष राजेन्द्र सिंह जी और उनके तमाम साथी गंगा की अविरलता और निर्मलता के लिए प्राण-प्रण से लगे हैं। सरकारी स्तर पर जो होगा, सो होगा लेकिन जल के लिए जन भागीदारी होना आवश्यक है। इसी जल चेतना को जन चेतना बनाने का संकल्प लिए बिना हम कैसे कह सकते हैं कि गंगा हमारी मां है। आज हमारे सामने यक्ष प्रश्न यह है कि सवाल आदमी के गिरने का है, या जल स्तर गिरने का। सूखा संवेदनाओं का है या जल का। कहीं ऐसा तो नहीं आज का यह भगीरथ गला फाडे़ चिल्लाते रहे और हम उसके प्रयासों से अधिक अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित परम्पराओं पर पानी फेरते रहें। स्वर्ग में बैठे हमारे पितर भी हमारी इस संवेदनहीनता के लिए पानी-पानी न हो, इसके लिए हवा में लाठी घुमाना छोड़ अपने रक्त को उबाल देना होगा वरना वह दिन दूर नहीं जब ‘लिखा है दाने-दाने पर खाने वाले का नाम’ वाला मुहावरा बदल कर ‘बूंद-बूंद पर पीने वाले का नाम’ हो सकता है। हम आज और अभी ही नहीं जागे तो कहीं ऐेसा न हो कि आज पानी के लिए कर्नाटक- तमिलनाडू अथवा हरियाणा-पंजाब के विवाद बढ़ते- बढ़ते कल हर नगर और प्रान्त के वातावरण को विषाक्त बना हमारी एकता को खंडित करने का सबब बन जाए। आशीर्वाद ‘जीते रहो’ से ‘पीते रहो’ तक पहुंचने से पहले सभलों । कहना होगा- अभी जोड ले टूटी कड़ी, बन जाएगा काम। चूूक गया तो तय है,गिरना तेरा धड़ाम।
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