इन दिनों जबरदस्त सर्दी और घना कोहरा सामान्य जनजीवन को बाधित कर रहे हैं तो अनेक समस्याएं भी लोगों को बेचैन किए हुए हैं। सारा देश नारी अस्मिता को लेकर आंदोलित है लेकिन माननीय गृहमंत्री जी आन्दोलनकारी छात्रों से सख्ती से पेश आने की वकालत करते हुए उनकी तुलना नक्सलवादियों से कर बैठे। दूसरी ओर गुजरात चुनाव को लेकर टीवी पर चर्चा के दौरान कांग्रेसी सांसद संजय निरूपम अपना विवेक तक खोकर भाजपा नेता स्मृति ईरानी के खिलाफ अमर्यादित टिप्पणी कर बैठे तो माननीय राष्ट्रपति जी के ‘सुपुत’ नवनिर्वाचित सांसद भी शब्दिक संतुलन खोकर निंदा के पात्र बने। यह संतोष की बात है कि कांग्रेसी प्रवक्ता ने इन टिप्पणियों से स्वयं को अलग करते हुए उसे गलत बताया। ऐसे वातावरण में ठण्ड और कोहरे से ज्यादा कोहरा हमारे देश की राजनीति का उत्पन्न किया हुआ है, देश की जनता पहले के मुकाबले जागरूक नजर आ रही है। इससे यह उम्मीद जगती है कि हमारी युवा पीढ़ी अब अन्याय सहन करने को तैयार नहीं है इसलिए अंधेरे के सामने छटने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं बचेगा। लोग इस जागरूकता का श्रेय सोशल साईट्स आदि को देते हैं लेकिन तभी सामने आती है तीसरी तस्वीर। फेसबुक पर एक ‘हैवीवेट’ साहित्यकार टिप्पणी करते हैं--
‘कोई ऐसा देश बताये जहाँ महिला सुरक्षित हो। पता हो तो बताएं! फिर?’ कुुछ लोग चिंतन की बजाय उसे टालने का प्रयास करते हैं। लेकिन हमने इसका सख्त नोटिस लेते हुए पूछा- हम दुनिया में ऐसा देश ढ़ूंढ़ने की बजाय स्वयं को ऐसा बनाकर दिखाने के बारे में क्यों नहीं चिंतन करते? जब किसी अन्य देश में नारी को देवी का दर्जा देने का उदहारण मौजूद नहीं है तो हमें आपने पाप पर से ध्यान हटाने के लिए चिंतन का ढ़ोंग क्यों करना चाहिए? हमने उनसे जुड़े वरिष्ठ बुद्धिजीवियों से भी प्रश्न किया- क्या ख्याल है आपका? क्या आप भी दुनिया भर को गलत बताकर अपना पाप ढकने के समर्थक है या आत्मालोचना के लिए तैयार है? मगर अफसोस की दो-तीन को छोड़ शेष खामोश रहे। अपने साथी की इस टिप्पणी को गलत बताने का नैतिक साहस वे नहीं दिखा सके जबकि दिल्ली गैंगरेप के दोषी के पिता तक ने कहा है- यदि मेरा बेटा दोषी हो तो उसे फांसी दी जानी चाहिए। दोषी भी कोर्ट में स्वयं को दोषी मानते हुए अपने लिए फांसी की मांग कर चुके हैं। ऐसे में देश के स्वनाम धन्य लोगों से पूछा जा सकता है कि जब वे ही खामोश रहेगें तो किसी नई सुबह की उम्मीद करे भी तो कैसे?
उपरोक्त प्रश्न अपनी जगह बरकरार है इसी बीच हम पड़ताल करते हैं अंधेरों और कोहरों की। चारों ओर भ्रष्टाचार के अंधेरों से लड़ने वाले लोकपाल को नई सुबह की गारंटी मानते हैं। उनका दावा है इससे भ्रष्टाचार का अंधेरा छटेगा लेकिन वे यह समझने को तैयार नहीं कि भ्रष्टाचार बीमारी नहीं अव्यवस्था रूपी बीमारी का लक्षण मात्र है। जैसे चेहरे का रंग पीला होना बीमारी नहीं, लक्षण मात्र है। यदि कोई डाक्टर पीलेपन का इलाज पाउडर क्रीम लगाकर दूर करने की राय देगा तो बताओ उसे डाक्टर माना भी जाए तो आखिर क्यों? देश में भ्रष्टाचार का कारण राजनैतिक व्यवस्था है, महंगे चुनाव है, छोटे-छोटे चुनावों पर भी मोटे खर्चे से आंखें मूंदे रखने वाली मशीनरी हैं। बरसों से लटके मुकदमे हैं। अपराधियों की गलबहिया करती राजनीति है। नेतृत्व के नाम पर प्रतिनिधि मुखिया है, जिम्मेवार पदों पर बैठे हुए की निष्ठा संविधान से भी पहले उस पद तक पहुंचाने वाले के प्रति है। नैतिकता के मामले में लगातार हम गरीब हो रहे हैं। राजनैतिक प्रतिद्वंद्वता व्यक्तिगत क्षुद्रता में बदल रही है। यही नहीं ऐसे हजारों अन्य कारण है जो देश में अन्धेरा और आशंकाएं बढ़ाते हैं लेकिन हम इलाज कर रहे हैं लक्षण का। ठीक उसी प्रकार जैसे खेत में काम करते हुए ख्ुारपी गर्म हो जाने पर मूर्ख व्यक्ति द्वारा हकीम से उसका इलाज पूछने पर उसने ख्ुारपी को रस्सी में बांधकर कुएं में लटकाने को कहा। थोड़ी देर बाद जब खुरपी निकाली गई तोे वह ठण्डी पड़ चुकी है। उसके बाद से तो वह मूर्ख व्यक्ति स्वयं को वैद्य समझने लगा। एक बार उसकी मां को बुखार हुआ तो उसने उसे भी रस्सी से बांध कुएं में लटका दिया। क्या आज हम भी अपनी मातृ-भूमि, के साथ कहीं ऐसा ही व्यवहार तो नहीं कर रहे हैं?
यह सही है कि कुछ शहरों की चमक-दमक बढ़ी है लेकिन ये शहर ही तो भारत नहीं है। यदि ईमानदारी से बात करें तो इन चमकते शहरों में भी अंधेरे कम नहीं हैं। झोपड़पट्टियां, अनाधिकृत कालोनियां तो सहन की जाएं लेकिन फुटपाथ पर सोने वालों, बाल मजदूरों, भिखारियों बेरोजगारों, भूखों की अनेदेखी कैसे की जा सकती है? भारत को इण्डिया बनाने पर तुले लोगों ने भारत के एक छोटे से हिस्से को इण्डिया बना दिया है लेकिन वे लोग भारत को भारत भी नहीं रहने देना चाहते। आज खेती की जमीनों को औने-पौने दामों पर हड़पा जा रहा है। नदी, पर्वत, भूसम्पदा, खनिज तक की लूट मची है। ऐसे लोगों को राजनैतिक प्राश्रय हासिल है। गरीब किसान, मजदूर परेशान हैं। आदिवासी बेघर हो रहे हैं। आधुनिकता का संगीत सुनकर उनके पीछे चलने वाले गरीब किसान भूखो मर रहे हैं। कर्ज आत्महत्याओं का कारण बन रहा है तो रासायनिक खाद, बीज का बढ़ता उपयोग कीमती भूमि को बंजर बना रहा है। भूजल को प्रदूषित कर रहा है। आज सारे देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां लूट मचा रही थी अब एफडीआई कों अनुमति देकर यह विनाश और तेजी से हो, इसकी व्यवस्था भी कर दी गई है। फुटकर में विदेशी पूंजी निवेश से बेरोजगारी बढ़े या व्यापारी भिखारी बने, हमारे र्माअ-बाप अपने आका को हर कीमत पर खुश करने के लिए तर्क से कुतर्क तक प्रस्तुत है। लेकिन इतना अंधेरा भी जिन्हें नहीं डराता उन खादीधारियों को कौन समझा सकता है। अफसोस तो इस बात का भी है ये लोग हर दल में हैं।
आज शिक्षा ही सारे समाज को नये वर्गों में बांट रही है। सरकारी स्कूल बदहाल हैं क्योंकि उसमें राजनैतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार है। जरूरत से ज्यादा बोझ है और उसपर नैतिकता व जिम्मेवारी की भावना का अभाव है जबकि प्राईवेट स्कूल लूट बनकर लगातार फल-फूल रहे हैं। दोनों के स्तर में इतना ज्यादा अन्तर है कि एक स्कूल का बारहवीं पास दूसरे के छठी के छात्र के समक्ष बौना है। क्या अफसर और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियांे के उत्पादन के समानान्तर केन्द्र बन कर रह गई इस व्यवस्था पर कभी छोटी से बड़ी पंचायत तक कोई उठी? क्या देश की बहुमत जनता को पिछड़ा बनाये रखने के इस मौन षड्यंत्र को किसी कोहरे, अन्धेरे से कमतर माना जा सकता है? देश की बहुसंख्यक जनता की भाषा हिन्दी होते हुए भी अल्पसंख्यक अंग्रेजी हावी है। दफ्तर से अदालत तक, शोषित से शोषक तक। क्या यह अंधेरा नहीं कि न्यायिक प्रक्रिया जिसके लिए हो रही है उसे भी समझ नहीं आता कि उसकी तरफ से अथवा उसके लिए क्या कहा जा रहा है। वह टुकर-टुकर वकीलों के चेहरों की तरफ देखता है। वे अपने तर्कों का शब्दानुवाद करके बताते हैं, तभी समझ पाता है देश का आम आदमी। क्या आम आदमी के लिए उसी की भाषा में काम-काज नहीं होना चाहिए? क्या राष्ट्र-भाषा पर राष्ट्र को गुलाम बनाने वाली भाषा को महत्व देना गर्व की बात है?
देश में आर्थिक असमानता बढ़ी है। जबकि योजनाएं खूबी बनती है लेकिन उनका क्रियान्वयन ईमानदारी से नहीं होता। अफसर-लीडर गठजोड़ गरीब की बेबसी का मजा लूट रहे हैं। विदेशों में खाते हैं तो अपने देश में भी कालेधन के पहाड़ं है क्योंकि जिनकी जिम्मेवारी आंखें खुली रखने की है, वे आंखें मूंदे रखने की कीमत वसूल कर रहे हैं। ऐसे में उन्हें कोहरा-अंधेरा दिखाई देने के प्रति भी आशंकाएं हैं।
देश को जाति- धर्म में बांटकर अपनी गद्दी सलामत रखने वाले समाज को इतना बांट देना चाहते हैं कि उनका विरोध असंभव अथवा अशक्त जाए। अब आरक्षण को ही लें- यह सत्य है कि कमजोर की मदद होनी चाहिए लेकिन कमजोर का फैसला उसकी आर्थिक दशा की बजाय उसकी कोख देखकर करने वाले अब धर्म की बातें कर रहे हैं। क्या यह उचित नहीं होगा कि अंधेरे वाले हर स्थान पर रोशनी का प्रबन्ध सुनिश्चित किया जाए। हर जाति, धर्म, लिंग, वर्ग, वर्ण भेद के पिछड़ों को शैक्षिक व आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने वाली सुबह कब आएगी? अंधेरे, कोहरे बहुत हैं लेकिन हमारी सीमाएं हैं। सभी की चर्चा संभव नहीं इसलिए आशंकाओं के प्रति सजग रहते हुए अपने कर्णधारों को लगातार सावधान करते रहना लोकतंत्र की सफलता के लिए जरूरी है। लोकतंत्र देश के हर नागरिक को अधिकार देता है तो यह जिम्मेवारी भी सौंपता है कि वह अपने परिवेश को बेहतर बनाने के प्रति जागरूक भी रहे।
अंग्रेजी नववर्ष आरम्भ होने जा रहा है। कोहरा, अंधेरा, ठिठुरन के रहते इसे उत्सव कैसे कहें। प्रकृति भी सहमी सिकुड़ी हुई है। पेड़ों के पत्ते झड़ रहे हैं मगर न जाने क्यों हम पश्चिम की उपनिवेशवादी सोच अर्थात् ‘परायी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ की तरह अड़ रहे हैं। हम हर नई सुबह का स्वागत करने वाली संस्कृति के वारिस है। हमारे नववर्ष चैत्र में चहूं ओर आनंद होगा, सुंदर मौसम होंगे, कोयल कूकेगी, पेड़-पौधे पर बहार होगी। वैसे इतना भी याद रख पश्चिम वाले भी एक जनवरी को नहीं, एक अप्रैल को अपने वित्तीय वर्ष का प्रथम दिवस मनाते हैं। खैर नववर्ष जब होगा तब होगा फिलहाल इंतजार है सूर्य की उस किरण कi जिसकी कामना हम सब कर रहे हैं। इंतजार है युवा पीढ़ी की जागरूकता जरूर कुछ गुल खिलाएगी। क्या ताजा तूफान उसी नई सुबह का आगाज है? उस नई सुबह की इंतजार करने के अतिरिक्त कुछ और कर भी तो नहीं सकते।
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