सवा सौ करोड़ का देश और पदक 2



ब्राजील के शहर रियो डी जेनेरियो में आयोजित ओलम्पिक में भी हमारा प्रदर्शन निराशाजनक रहा। 1900 से आरम्भ हुए ओलम्पिक में भारत ने मात्र 26 पदक जीते हैं जिनमें 9 स्वर्ण भी शामिल है। इनमें से अधिकांश पदक उस दौर के हैं जब हाकी में हमारी तूती बोलती थी।   लेकिन आज हमें ओलम्पिक में प्रवेश भी बामुश्किल मिला और हम हाकी फाइनल तो क्या सेमीफाइनल में भी अपना स्थान नहीं बना सके। 2012 के लंदन ओलंपिक में हम सर्वाधिक छह पदक लाने में सफल रहे थे। वैसे इस बार हमारी धावक दीपा कर्मकार जिमनास्टिक में कांस्य से मामूली अंतर से चूक गई और उसे चौथे स्थान पर संतोष करना पड़ा। बीजिंग ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले निशानेबाज अभिनव बिंद्रा भी एक मुकाबले में चौथे स्थान पर रहें। लेकिन इसबार कुश्ती की खींचतान ने हमें पूरी दुनिया के सामने शर्मसार किया लेकिन हम गर्व कर सकते है महिला पहलवान साक्षी मलिक और बैडमिंटन में रजत जीतकर पीवी सिंधु  पर जिसने रक्षाबंधन के दिन पदक जीत कर देश की इज्जत बचाई। शेष लगभग सब टॉय-टॉय फिस्स रहा।
जब हम पदकों की तालिका पर एक नजर दौड़ाते हैं, तो अनेेक ऐसे देशों के नाम भी दिखाई देते हैं जो क्षेत्रफल में भारत के जिलों के बराबर भी नहीं हैं परंतु वे भी सफलता के मामले में हमंे मुँह चिढ़ाते नजर आते हैं। अपने आपको विकसित देशों की कतार में देखने के लिए मचल रहे हमारे कर्णधारों को इस विसंगति पर भी दृष्टिपात करना चाहिए, आखिर हमारे खेल संस्थान सफेद हाथी क्यों बने हुए हैं। खेल-संघों पर नेताओं के काबिज़ होने का औचित्य, चयन में प्रतिभा के स्थान पर भाई-भतीजावाद, प्रांतवाद, लेन-देन कब तक, हर प्रतियोगिता में जाने वाले दल में खिलाड़ियों से ज्यादा अधिकारी क्यों?  
हमारे कर्णधारों को अपनी जय- जयकार के झूठे शोर के बीच इस ओर भी ध्यान देना चाहिए कि गौरव के क्षणों को प्राप्त करने के लिए क्या किया जाए? क्या पदक पाने या करीब से चूकने वालों पर लाखों -करोड़ों  लुटानेे मात्र से ही खेलों के प्रति उनके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है? 
यदि हम वास्तव में ही खेलों का स्तर सुधारना चाहते हैं, तो पहले क्रिकेट और उसके ‘स्टारवाद‘ के प्रति अपनी सोच बदलनी पड़ेगी। यह ठीक नहीं है कि एक खेल पर जरूरत से ज्यादा धन और ध्यान, परंतु दूसरे खेलो की अनदेखी। यह भी एक प्रकार का अपराधपूर्ण तुष्टीकरण है। महंगे और बहुत अधिक समय बर्बाद करने वाले खेल की बजाय हमें अपने परम्परागत खेलो की ओर भी ध्यान देना चाहिए। आखिर हमें अब तक प्राप्त कुल सर्वाधिक स्वर्ण पदक हाकी से ही मिलें है। लेकिन आज हाकी की दशा कैसी है यह किसी से छिपा नहीं है। साधारण तो क्या अच्छे स्कूल कालेजों में भी हाकी के संवर्धन के लिए कोई प्रयास नहीं किये जाते।  अगर खेलों के प्रति इसी तरह का व्यवहार जारी रहता है, तो फिर पदकों की आशा क्यों? खेल का स्तर सुधारने के लिए सबसे पहले स्कूल स्तर पर कोशिश होनी चाहिए। पर दुर्भाग्य की बात यह है कि जिस समाज में ‘खेलोगे, कूदोेगे तो बनोगे खराब‘ वाली मानसिकता हो, वहाँ खेलों का स्तर सुधारने की चिंता किसे है? शिक्षा नीति के प्रारूप में खेलो के प्रति कहीं कोई संवेदनशीलता दिखाई नहीं देती। वर्तमान में भी देश के अधिकांश स्कूलों में खेल का मैदान और खेल प्रशिक्षक ही नहीं है, अगर हैं तो सुविधाएं नहीं हैं। यदि दोनों चीजे हैं तो भी खेल प्रशिक्षकों को दूसरें कामों मे लगाये रखा जाता है। आज दिल्ली ही नहीं, देश भर का शायद ही कोई ऐसा स्कूल हो जहाँ नियमित रूप से खेल तो क्या, केवल शारीरिक प्रशिक्षण (पी.टी.) ही किया जाता हो। जब तक छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया जाएगा, उनका मानसिक स्वास्थ्य भी नहीं सुधरेगा। 
आश्चर्य है कि जो लोगों अनिवार्य सैनिक प्रशिक्षण की बात करते रहे है, अवसर पाकर भी वे अनिवार्य खेल प्रशिक्षण अथवा व्यायाम की व्यवस्था नहीं कर पा रहे हैं। छोटे शहरों की दूर देश की राजधानी  दिल्ली मे भी खेल के मैदान कितने हैं? बड़े-बड़े स्टेडियमों का क्या लाभ जब तक आम आदमी को उसमें प्रवेश ही न मिल सकें। इन स्टेडियमों तथा डी.डी.ए. द्वारा बनाये गए खेल-परिसरों का सदस्यता -शुल्क भी हजारों में है। ऐसे तुगलकी नियम बनाकर खेलों को ‘बढ़ावा‘ देने की सोच रखने वाले खेल- प्रशासकों ने क्या कभी यह सोचा हैं कि वास्तव में कितने लोग हजारों रूपये सालाना देकर इनकी सदस्यता ले सकते हैं? ज़रा इस विषय पर गंभीरता से सोचिए और उसके बाद खेलों में पदक जीतने की उम्मीदें लगाए। जिस देश में गरीब बच्चों को ढंग का भी खाना नहीं मिलता, आप उनसे कुश्ती में पदक माँगते हैं, तो आपकी यह मांग अपराधपूर्ण नहीं तो और क्या  है? उन्हें सुविधाएं दो, प्रोत्साहन दो, नियमित खुराक और अभ्यास सुनिश्चित करो। यदि फिर भी पदक नहीं मिलता, तो  आपकी शिकायत जायज़ हो सकती है। 
लगभग यही दर्द बीजिंग ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले निशानेबाज अभिनव बिंद्रा का है। उनके अनुसार- ब्रिटेन ने हर पदक पर 55 लाख पाउंड खर्च किए हैं। इतनी मात्रा में निवेश किए जाने की जरूरत है। जब तक देश में व्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया जाता, तब तक पदक की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।  पर अफसोस की बात यह है कि हमारे मीडिया को भी क्रिकेट के अलावा कुछ और दिखाई  ही नहीं देता। अपने राष्ट्रीय खेल हाकी की क्या दशा है, बाकी खेलों का क्या हाल है? क्यों नहीं सोचते। क्रिकेट के खिलाड़ी तो विज्ञापनों में ही करोड़ों कमाये और दूसरे खेलों के खिलाड़ी पाई-पाई को तरसे, यह भी गलत है। रियों में दूतावास द्वारा आयोजित एक समारोह में हमारे खिलाड़ियों का भूखा रहना इसका निकृष्ट उदाहरण है।
ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेने वाले अब तक के सबसे बड़े भारतीय दल के पिछले ओलम्पिक की तुलना में निराश लौटने के बाद शोर के बाद जांच कमेटी बनेगी परंतु उसकी रिपोर्ट फुटबाल बनी रहेगी। कभी इसके पास तो कभी उसके पास। परंतु उसका ‘गोल’ कर पाना हमेशा की तरह स्वप्न ही बना रहेगा। अभी ओलम्पिक खेल हुए है तो उसके बाद राष्ट्रमंडल खेल और एशियाई खेल होंगे। फिर ऐसी ही उम्मीदें लगाने से पहले जानना जरूरी है कि आखिर क्या कारण है शुरु से अब तक हमने ओलम्पिक में जीतने पदक जीते हैं उतने ही पदक एक तैराक माइकल फेल्पस ने कैसे जीते?
बिना योजना, बिना प्रोत्साहन, बिना संसाधनों, बिना निरंतरता, बिना तैयारी के हमारे होनहार खिलाड़ी से पदकों के ढ़ेर की आशा करने वालों की मानसिक जांच आवश्यक है। कुछ वर्ष पूर्व देश में राष्ट्रमंडल खेल हुए। स्टेडियम बनाने से लेकर, दिल्ली को सजाने- संवारने का बहुत शोर था। भ्रष्टाचार, घोटालों की जोरदार चर्चा के बीच मीडिया से कोर्ट तक तैयारियों की निगरानी के लिए सभी अति सक्रिय थे। लेकिन उसमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों को मिलने सुविधाओं और प्रशिक्षण पर लोकतंत्र के इन दो स्तम्भों ने शायद ही मुंह खोला हो। 
पदक जीतना असंभव नहीं है। लेकिन उसके लिए जरूरत है ईमानदारी से प्रयास करने की। सर्वप्रथम खेल और खेल संघों को राजनीति से अलग करना होगा। किसी भी खेल संगठन पर उस खेल का ‘ककहरा’ भी न जानने वाले ़राजनेताओं का काबिज होना   सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है। आज राजनीति सबसे बड़ा खेल बन चुकी है जिसमें बल, छल से पदक हथियाने का प्रचलन भी चल रहा है लेकिन खेल को राजनीति का खिलौना नहीं बनाया जा सकता। 
नई शिक्षा नीति में हर स्कूल में खेल का मैदान, प्रशिक्षक तथा आवश्यक सुविधाएं अनिवार्य का प्रवधान हो। एक स्वस्थ और खुशहाल राष्ट्र की परिकल्पना में खेल भावना का भी महत्व है। इसलिए खेल भावना का संचार देश के भावी नागरिकों में होना ही चाहिए।  खेलों को समय की बर्बादी मानने की अपनी संकीर्ण मानसिकता से बाहर निकलकर ही पराजय के इतिहास को विजय पताका फहराई जा सकती है।  इसलिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की कुल परिसम्पत्तियों का 75 प्रतिशत शेष खेलों के लिए खर्च करने का प्रावधान हाना चाहिए।  खिलाड़ियों की प्राथमिकता खेल होनी चाहिए न कि विज्ञापन। अन्तर्राष्ट्रीय खेलों का आयोजक बनने की बजाय सबसे पहले अपने हर गांव कस्बे तक खेलों का स्तर सुधारने पर बल देना चाहिए। पदक- तालिका में हमारा नाम सबसे नीचे हो या हो ही नहीं, इससे ज्यादा शर्म की बात और कोई हो नहीं हो सकती।
बेशक इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव ने हमारी युवा पीढ़ी को खेलो से दूर किया है लेकिन आज भी इस देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं हैं। ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में बच्चे  लम्बी कूद, छलांग, पत्थर फेंक, दौड़ आदि का अभ्यास करते हैं। यदि हमारे खेल प्रशासकों में ज़रा सा भी व्यावहारिक विवेक हो तो वे उनके इन स्वाभाविक गुणों को दिशा देकर खेलों में देश की स्थिति बदल सकते हैं। परंतु खेल की दशा सुधारने के नाम पर तो कभी खिलाड़ियों के साथ उनसे भी बड़े दल के रूप में विदेश यात्राएं करने वाले ऐसा करेंगे इसमें संदेह है। सफल खिलाड़ी के नाम पर देश भर में खेल संस्थान बनायें जाए तो इससे खेलो का बहुत भला हो सकता है। -- विनोद बब्बर संपर्क-  09868211911

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