ताश के पत्ते
‘दुनिया के रिश्तों और ताश के पत्तों में कोई अन्तर नहीं होता इसलिए आधुनिक लोग इनपर निर्भर नहीं रहते। मैं भी हर सप्ताह ताश की नई गड्डी लाता हूं।’
‘पर आदमी और ताश के पत्तों में बहुत अन्तर होता है आप इन्हें एक श्रेणी में नहीं रख सकते।’
‘हां, ठीक कहते हो, आदमी और ताश के पत्तों में अन्तर होता है क्योंकि ताश के ये पत्ते खेल में कभी-कभी जिता भी देते हैं पर .....।’
दूसरा पहलू
शवयात्रा की तैयारी हो रही थी। शव को दही से स्नान करवा ईत्र-चन्दन लगाया गया, नए वस्त्र और उस पर एक के बाद एक पन्द्रह गर्म शालें डाली गई, पुष्प चक्र चढ़ाया गया। बेटे-पोते दहाड़े मारकर रो रहे थे।
यह दृश्य देखकर सभी मृतक के परिवार वालों को सराह रहे थे पर मृतक की आत्मा अब भी वहीं एक कोने में बैठी कराह रही थी, ‘अरे कम्बख्तों, अगर ये सब मुझे मेरे जीते जी दे देते तो मुझे भूख, ठण्ड और उपेक्षा की पीड़ा क्यों सहनी पड़ती।’
छोटे-छोटे बच्चों को पाल पोसकर किसी काबिल बनाने के लिए शारदा ने क्या नहीं किया। दूसरों की नौकरी, दिनभर मेहनत मजदूरी उस पर भी बच्चों की हर इच्छा पूरी की।
यह बातें पुरानी हो गई थी इसलिए शारदा के बच्चें भी माँ का त्याग याद नहीं रख सके। अपना-अपना घर बसा तो माँ बोझ बन गई इसलिए एक आँगन में रहते हुए भी शारदा को अलग-अलग चूल्हें का आश्रित होना पड़ा तो वह टूट गई और भगवान से मुक्ति की प्रार्थना करती। आखिर शारदा की सजा खत्म हुई, बेटों-बहुओं ने दुनिया को दिखाने के लिए खूब आँसू बहायें।
दुनियादारी निभाने के लिए पतित पावनी माँ गंगा को शारदा के अंतिम अवशेष समर्पित करने बड़ा बेटा जा रहा था तो एक बहु ने बुढ़िया के पुराने कपड़े भी उसे सौंप दिये तो दूसरी बहु शारदा की पुरानी ब्लैक एण्ड वाईट फोटो भी दे गई।
‘यह किस लिए?’ बेटे ने पूछा।
‘माँ की सभी निशानियाँ गंगा के हवाले कर आओ ताकि उन्हें देखकर आपको बार-बार भावुक न होना पड़े’ कुटिल मुस्कान के साथ बहू ने उत्तर दिया।
‘ठीक ही तो है क्यों न उसके बेटों से भी आज ही मुक्ति पा ली जाए क्योंकि वे भी तो उसी बुढ़िया की निशानी है’ पास बैठे एक वृद्ध की खरीखरी सुनते ही सभी के होश गुम हो गए।
व्यावहारिक ज्ञान
प्राईमरी स्कूल के दो बच्चों ने गाय और मां पर निबंध कुछ इस प्रकार से लिखें-
1. ‘गाय एक फालतू पशु है। दूध निकालने के बाद ग्वाला उसे घर से बाहर धकेल देता है तो इधर-उधर घूमती गाय को बाजार वाले वहां से भगाते हैं। वह गली-गली कूड़े में मुंह मारती है। भूख से परेशान इधर-उधर भटकती गाय को आवारा पशु कहा है जो खतरनाक हो सकती है।
गाय को हम माता भी कहते हैं और इस तरह से उसकी पूजा भी होती है।’
2. ‘चेहरे पर झुर्रियाँ, आँखों पर चश्मा, कांपते हुए हाथ-पांव, यह है उस महिला की पहचान जिसे मम्मी चाचा के घर तो चाची हमारे घर धकियाती हैं। पापा के सामने वह मां जी होती हैं पर पापा के आफिस जाने या टूर पर जाने के बाद मम्मी उसे मुसीबत कहती हैं। बुढ़ापे के बावजूद वह दिनभर कुछ न कुछ काम करती हैं तो कभी-कभी हमें बाबा-आदम के जमाने की कहानियाँ भी सुनाती है। वह अपने आपको हमारे पापा की मम्मी बताती हैं। पापा के पास उनके लिए समय नहीं है पर वह कभी शिकायत नहीं करती। सच ही तो है कि मां महान होती है।
कितने व्यवहारिक है आज के बच्चें, जो किताबों पर लिखा हुआ ही नहीं बल्कि दीवार पर लिखा हुआ भी पढ़ते हैं, समझते हैं, याद करते हैं और याद भी रखते हैं ताकि कल को अपने बच्चों के दादा-दादी को भी ....
इन्तहा..
विभाजन ने लाखें लोगों से उनकी जन्मभूमि छीन ली तो हजारो के परिजन हमेशा-हमेशा के लिए उनसे जुदा हो गए मगर दीनू का तो सब कुछ लुट गया।
जमीन-जायदाद, व्यापार, धन दौलत ही नहीं पत्नी, बच्चे, बेटा-बहू सब कुछ तो तबाह हो गया था उसका पर भी संतोष कि दूध मुंहे पोते को जैसे-तैसे बचाकर सीमा के इस पार पहंुचा।
दिन भर कड़ी मेहनत के बीच उस शिशु की परवरिश कठिन साधना थी पर दीनू ने हार नहीं मानी।
पिछले कुछ दिनों से दीनू का दर्द बहुत बढ़ गया। हुआ यह है कि उसका पोता अब जवान हो चला था। कुछ करना-धरना तो दूर बूढ़े दादा को परेशान किया करता। न पढ़ाई-लिखाई, न मेहनत उल्टा बुरी संगत में पड़ दादा की खून पसीने की कमाई को नष्ट करना। दीनू के समझाने पर वह घर छोड़कर जाने की घुड़की देता तो दीनू उसे खानदान के चिराग समझकर उसकी हर जायज-नाजायज मांगे मान लेता। एक दिन दीनू के सब्र का घड़ा भर गया पोते ने घर छोड़कर जाने की घुड़की दी तो दीनू फट पड़ा, ‘जा तू भी मर जा, जब सबके बिना नहीं मरा तो तेरे बिना भी जी लूंगा।’
फुटबाल
‘माँ, तू हर समय! छोटे की तरफदारी करती है, लगता है जैसे मैं तेरा सौतेला बेटा हूँ। मुझे मालूम है कि तू अपने सारे जेवर आदि उसे ही देगी।’
‘क्या कर रहे हो बेटा, तुझे जितना प्यार मिला है छोटे को तो उसका आधा भी नहीं मिला। तुझे तो वहम है वरना तुझे भी तो पता है मेरे पास कौन से जेवर बचे हैं, जो थे तुम्हारे पिता की बीमारी में चले गये जो बचा था वो तुम्हारी शादी में काम आ गया।’
‘हाँ, हाँ तू तो मुझे कुछ देना ही नहीें चाहती तो फिर मैं क्यों रखूं तुझे अपने साथ। जा, अपने लाडले के पास रह वही रखेगा तुझे।
फुटबाल की तरह माँ छोटे के पाले में पहुंच गई पर बहु ने जमा घटा का हिसाब लगाकर बुढ़िया को घाटे का सौदा करार दे दिया और एक दिन छोटे ने भी माँ से जेवर मांगे तो माँ ने उसे वही बताया कि उसके पास तो सोने की एक कील भी नहीं हैं, इस पर छोटा भी फट पड़ा, ‘सुनीता ठीक कहती थी तुझे तो बड़ा बेटा ज्यादा प्यारा है, सारा कुछ उसे और उसके बच्चों को ही दे दिया मगर हमारे बच्चों को सभी फूटी कौड़ी भी नहीं दी। जैसे मैं तेरा बेटा हूंॅ ही नहीं। माँ अब मुझसे भी ज्यादा उम्मीद मत करो और जाओ भैया के साथ रहो जिसे सब कुछ दिया है, वही संभालेगा तुम्हारा बोझ।’
इस तरह उधर से भी फुटबाल पर लगी किक ने उसे दोनों पालों से बाहर कर दिया और वह अभागी फुटपाथ पर पड़ी ईश्वर से अपने लिए मौत माँग रही थी। उसके लिए एक-एक क्षण यातना के समान था पर फिर भी वह अपने बेटांे की भलाई के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती।
फुटपाथ पर भूख, बेबसी, पीड़ा की लम्बी सजा उस समय समाप्त हो गई जब एक रईसजादे की कार उसकी मुक्ति का पैगाम लेकर फुटपाथ पर चढ़ कर उसे दर्द से मुक्त कर गई।
उसका शव सड़क पर था और बेटे-बहुएं उसे अपने-अपने घर जाने के लिए लड़ते हुए थाने में थे। वाह रे जमाने! कल तक माँ फुटबाल थी, क्योंकि वह बोझ थी पर आज मरी हुई माँ के वे लम्बे लम्बे आँसू बहा रहे हैं क्योंकि उस बेजान फुटबाल से आखिर मुआवजे के लाख रूपये का गोल जो करना था।
कुत्ता
बाबूजी का स्वर्गवास हो गया, थोड़े दिन रोना धोना हुआ और फिर सभी अपने काम में लग गए। बहु को तो बोझ उतर जाने जैसा महसूस होता था आखिर बाबूजी की वजह से बंदिशें भी तो थी। उन्हें अकेला छोड़कर नहीं जा सकते थे और खास जगहों पर उन्हें साथ ले भी जाते तो कैसे? मायके से आने वाले के साथ दो घड़ी जोर से हंसते बोलते हुए भी उसे ’बुढा सुन रहा होगा’ का भूत डराता रहता था। वैसे बाबूजी ने कभी किसी चीज की मांग नहीं की थी और न हीं किसी काम में हस्तक्षेप करते पर फिर भी बहु उन्हें बंधन समझती थी। एक बार अपने भाई भाभी और बच्चों को पिकनिक पर ले जाते हुए बाबूजी को अकेला घर छोड़कर गए थे पर उन्होंने कभी बुरा नहीं माना और न ही शिकायत की।
बाबूजी के बाद बरामदा खाली थी इसलिए बच्चों ने एक प्यारा सा कुत्ता पाल लिया बच्चे तो प्यार करते ही थे पर उनकी माँ उसका बहुत ध्यान रखती। कई बार पिकनिक पर उसे साथ ही ले जाती। एक बार कार में जगह नहीं थी और वापसी में उन्हें किसी रिश्तेदार के घर जाना था इसलिए कुत्ते को घर छोड़ गए। जाते समय उसके पास
दूध का कटोरा, बै्रड और न जाने क्या-क्या रखा। देर रात जब घर लौटे तो कुत्ता उदास था। उनके आने की आहट पर वह न तो चौंका और न ही हमेशा की तरह अभिवादन किया। कई दिन बीत चुके हैं पर कुत्ता अब भी मुह फुलाए है और मेमसाहब उसकी चिरौरी करती है कि कुछ खा लो। रवि यह सब देखते हुए अपने स्वर्गवासी बाबूजी को याद करने लगा, जिन्हें अनेक बार अकेले रहना पड़ा, मगर उनके आने की आहट सुनते ही वे झट से दरवाजा खोलते। अपनी बीमारी में भी उन्होने कभी दुःखी नहीं किया पर उसकी पत्नी ने कभी भी बाबूजी से किसी चीज के खिलाने-पिलाने के लिए चिरौरी तो क्या कहा तक नहीं। उनकी टेबल पर खाना रखना भी उसके लिए भारी थी। बाबूजी सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनें रहते, सदा मुस्कराते उनका स्वागत करते। बाबूजी की सौम्यता की तस्वीर रवि की आंखों के सामने उपस्थित हो गई तो दिल में यह टीस ‘काश! हमने बाबूजी के साथ कम से कम कुत्ते जैसा तो व्यवहार किया होता।
कुत्ता-2
अस्पताल की हड़ताल को चार दिन बीत चुके थे पूरी व्यवस्था अस्त-व्यस्त थी। सभी मरीजों को घर भेज दिया गया था। आपातकालीन सेवा भी मरहम-पट्टी तक ही सीमित थी। अनेक मरीज अपनी जान से हाथ धो चुके थे पर हड़ताली डॉक्टर टस से मस होने को तैयार नहीं थे।
सुबह हुई बैठक में डॉ. आनंद ने हड़ताल जारी रखते हुए आपातकालीन सेवायें ठप्प न करने का सुझाव दिया पर यूनियन नेता उन्हीं पर बुरी तरह बरस पड़े, ‘तुम्हें मरीजों की पड़ी है, अगर थोड़े दिन ऐसे ही चलता रहा तो देखना सरकार हमारी मांँगे मानने के लिए मजबूर हो जाएगी। क्या, हुआ जो दस-बीस मरीज चल बसे। आखिर हर संघर्ष में कुछ कुर्बानी तो देनी ही पड़ती हैै।
डा. आनंद अपने नेता की बात सुनकर चुप रहे पर उन्हें ऐसी संवेदनहीनता स्वीकार्य नहीं थी जो मानवता की सीमाओं से बाहर हो। वे बैठक से सीधे अपनी ड्यूटी पर पहुँच कर घायलों के उपचार मंे लग गये। जब यूनियन नेता को डा. आनंद के ड्यूटी पर पहँुचने का समाचार मिला तो वह बौखला उठा। एक टूटे प्याले में दूध और सूखी ब्रेड डा. आनंद के सामने रखते हुए नेताजी ने उन्हें ‘कुत्ता’ कह कर संबोधित किया और यह क्रम पूरे एक सप्ताह तक जारी रहा पर डा. आनंद निर्विकार भाव से अपने काम में लगे रहे?
कुछ दिनों बाद हड़ताल समाप्त हो गई, बात गई आई हो गई। आज लगभग 5 वर्ष बाद डा. आनंद सेवानिवृत हो रहे थे तो साथियों ने उनके सम्मान में एक कार्यक्रम का आयोजन किया। सभी ने डा. आनंद की सेवा-भावना की प्रशंसा करते हुए उनकी सुखी जीवन की कामना की। डा. आनंद को पुष्प गुच्छ भेंट करते हुए उसी यूनियन नेता ने उन्हें वही घटना याद दिलवाते हुए पूछा, ‘डाक्टर साहिब, उस दिन मैंने आपके सामने टूटे कप में दूध और सड़ा हुआ ब्रेड रखते हुए कुत्ता कह संबोधित किया था पर आपने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी, आखिर क्यांे?
डा. आनंद ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, ’इसमें बुरा मानने वाली बात थी ही कहाँ? मैं तो इतना जानता हूँ कि जिसकी जैसी भावना होती है, उसका व्यवहार भी उसी के अनुरूप होता है। एक भला आदमी किसी को कुत्ता थोड़े ही कह सकता है।’ नेताजी को काटो तो खून नहीं, उन्हें लगा कि जैसे उसे किसी ने ऐसा तमांचा मारा कि वह पाताल में धंस गया हो। उनकी आँखें लाल हो गई पर प्रतिक्रिया के लिए नहीं, प्रायश्चित के लिए।
इंसानियत
तो उसी लड़की के साथ उसकी शादी के लिए तैयार हो गई। नई बहु घर आई तो बात-बात पर उसे ताने देना, कोसना, ‘‘पैसों पर साँप की तरह कुंडली मारकर बैठी हो,’’ ‘‘न जाने कब छुटकारा मिलेगा, इस माई से?’’ जैसे जली कटी सुनाने लगी। अब उससे बहुत मेहनत भी नहीं हो पाती थी। दुकान का काम नौकरों पर छोड़ना पड़ा पर वे भी लापरवाही करते। धीरे-धीरे दुकान बंद हो गई। अब तक घर की हालत काफी ठीक हो चुकी थी। पुराना मकान नया बन चुका था। सबसे छोटा भाई विजय डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर चुका था। राहुल भी अपनी गृहस्थी में रूचि लेने लगा था, वह भी दो बच्चों का बाप बन गया था। बड़े भैया का बेटा जवान हो रहा था, उसे भी एक अच्छी नौकरी मिल रही थी। पर अब दीदी तो जैसे सब पर बोझ बन चुकी थी। उसे दौरे पड़ने लगे।
डाक्टरों ने महंगी दवाईयां लिखकर दी पर एक-दो बार के बाद दवाई नहीं लाई गई। दवाई तो दूर दीदी को समय पर खाना भी नहीं मिलता। बार-बार मन में झुंझलाहट होती ‘‘आखिर यहीं है मेेरे त्याग का फल’’
पर कभी किसी से शिकायत नहीं की। जब ईश्वर ने ही मेरा भाग्य ऐसा लिखा दिया तो फिर कोई उसमें क्या कर सकता है।’’आज सारा परिवार इक्कठा है क्योंकि विजय जो अब डाक्टर बन चुका था, शादी करने वाला है। घर पर तैयारियां हो रही है पर दीदी से किसी ने न तो कुछ पूछा और न ही बताया। शहनाई की आवाज सुनकर वह अपने आपको रोक न सकी। अपने भाई को दुल्हा बने देखने के लिए बाहर आई तो सभी उस पर झपट पड़े।
‘‘तुम आराम से अंदर क्यों नहीं बैठती? क्या हमारी नाक कटवाओगी? देखते नहीं बड़े-बड़े लोग है?
‘‘अरे यह भी अजीब मुसीबत है कुछ समझती ही नहीं।
‘‘हाँ, तुम ठीक कहते हो, अब तो मैं बोझ ही हूँ। ईश्वर भी न जाने कहाँ सो गया है, जो मुझ बोझ को किनारे लगाना भूल गया है’’
‘‘हाँ, मैं बोझ हूँ, बोझ हूँ, बोझ ही तो हूँ........’’
आस्तिक-नास्तिक
बचपन के मित्र। एक आस्तिक, धर्म ग्रन्थों का ज्ञाता। सुबह-शाम मंदिर जाकर भगवान की मूर्ति को पुष्प भेंट करता। फल, मेवा, मिठाई का भोग लगाता। निज माथे पर चंदन का लेप कर कृत-कृत हुआ करता था। अपने मधुर स्वर में जब-तब भजन गाता।
दूसरा नास्तिक। कभी मंदिर- मस्जिद नहीं गया। आरती-नमाज नहीं की। मित्र उसे सदा धर्म की राह पर चलने का उपदेश दिया करता।
एक दिन दोनों किसी पर्यटन स्थल गये। पहले ने वहाँ भी मंदिर तलाशा। पूजा-प्रसाद-तिलक के नियम का पालन किया। दूसरा प्रकृति के दृश्य निहारता रहा।
वापसी में लौटते हुए सड़क के किनारे बेहोश पड़े एक विकलांग को देखकर नास्तिक उसके पास गया। अपने थैले से बोतल निकाल उसे पानी के छींटे दिये। होश में आने पर पानी पिलाया और उसकी इस दशा का कारण जानना चाहा। कई दिनों से भूखे व्यक्ति ने कुछ बताने की कोशिश की पर असफल रहा। नास्तिक उसकी मदद करना चाहता था कि तभी आस्तिक ने याद दिलाया, ‘अरे, किस चक्कर में पड़ गये। इन लोगों की मदद करना अपने आपको मुसीबत में डालना है। यदि तुम अपना नाश्ता इसे दे दोगे तो हमें रास्ते भर भूखा रहना पड़ेगा।’
नास्तिक सोच रहा था-यह कैसा प्रभु प्रेम है, जो मानवता से विमुख है।
अपने-अपने स्वार्थ
युवा मन में उठा तूफान उसे पारिवारिक मर्यादा की सीमाओं में न बांध सका। आखिर एक विजातीय कन्या को अपनी जीवन- संगिनी बनाने के कारण दृढ़ निश्चय पिता ने लोक-लाज के कारण उसे घर से निकाल दिया।
समय बीता, पर प्रतिबंध बरकरार रहा। पिता का हृदय चाहकर भी पुत्र को गले नहीं लगा सका। ... और आखिर एक दिन, अपने द्वारा लगाये गये तमाम प्रतिबंधों को साथ लिये पिता स्वर्गवासी हो गये। पुत्र चाह कर भी पिता के पार्थिव शरीर को स्पर्श तक नहीं कर सका क्योंकि परिवार आज भी उसे अछूत मानता था।
इधर पिता की चिता धू-धू कर जल रही थी, उधर पुत्र का हृदय चित्कार रहा था। अपने आपको पिता का हृदय दुखाने का
अपराधी मानने वाले युवक की आँखों से बहे आँसू उसके हृदय की निर्मलता की गवाही दे रहे थे।
समाज द्रवित था पर पारिवारिक बंधन अभी भी रूढ़ियों की झकड़न से छूटने को तैयार नहीं थे। लेकिन दूर, बहुत दूर। इस संसार के यश-उपयश, लाभ-हानि के गुणा भाग से भी दूर, स्वर्गलोक में एक आत्मा पुत्र के आंसूओं से सरोबार उसे पवित्र मान चुकी थी। अपने निश्चय पर कायम रहने के लिए उसे ही अपना सच्चा उत्तराधिकारी घोषित कर रही थी। विडम्बना यह कि तब बागी पुत्र ने उसकी नहीं सुनी और आज आज्ञाकारी पुत्र भी उसकी कहाँ सुन रहे थे!
आखिर सबके अपने-अपने स्वार्थ जो ठहरे!
केंसर
गाँव से अपने बीमार पिता को इलाज करवाने के लिए रामू को दिल्ली आना था इसलिये साहुकार की शरण में जाना जरूरी था, पर दिल्ली आकर भी बड़े अस्पताल में हफ्तों धक्के खाने के बाद बहुत मुश्किल से एक दलाल की मदद से बापू की जाँच हुई। तीन दिन बाद रिपोर्ट आई तो रामू के पैरों तले से जमीन खिसकर गई। बापू को कंेसर था, वह भी इतना फैल चुका था कि डॉक्टरांे ने जवाब दे दिया।
निराश रामू के पास गांव वापस जाने के अलावा अब कोई चारा नहीं था। बीमार पिता के लिए रेलगाड़ी में आरक्षण के लिए फिर किसी दलाल की मदद लेनी पड़ी, तब कहीं जाकर सीट कन्फर्म हुई।
भारी भीड़ और चलने फिरने से लाचार बापू को प्लेटफार्म तक ले जाना कठिन था, किसी ने रेलवे की ओर से व्हील चेयर की व्यवस्था होने की जानकारी दी तो उसने व्हील चेयर के लिए अधिकारियों से सम्पर्क किया। वहाँ कुली सहित 20 रूपये किराये का बोर्ड तो टंगा था पर दो सौ से कम में चलने को कोई तैयार न था। उसने अधिकारी से शिकायत की तो वे उल्टा रामू पर ही आग बबूला होने लगा।
कुली चलने को तैयार नहीं, अधिकारी उसे व्हील चेयर देनेे को तैयार नहीं, अब रामू करे तो क्या करे?
भला हो एक पुलिसवाले का जिसने एक कुली को सौ रूपये में राजी करते हुए जब उसने अपना मेहनताना मांगा तो रामू ने उसके हाथ पर अपनी सारी जेब खाली करते हुए कहा, ‘बस अब और कुछ भी नहीं है मेरे पास, रास्तें में पानी पीने के लिए भी नहीं।’ पुलिस वाले ने भी जो मिला उसे ही समेटने में भलाई समझी।
गाड़ी में बैठा कर रामू सोच रहा था, किसे है केंसर केवल बापू को या सारी व्यवस्था को?
पुत्र-धर्म
मौहल्ले भर में हलचल थी। लोग आ जा रहे थे। थोड़ी देर बाद बैंड पार्टी भी आ गई। तैयारियां हो रही थी। मंत्रोचारण के बीच, उस पर ढेरो शाल चढ़े, फूलों से सजाया गया।जब सवारी चली तो आगे-आगे बैंड, पीछे परिवार और परिचित जन।
बड़ा पुत्र फल, मेवा और रेजगारी डोली पर न्यौछावर करता हुआ आगे चल रहा था। आखिर पुत्रधर्म का पालन जो करना था।
‘पुत्र धर्म? कैसा पुत्रधर्म? जो मेवा छुआरे लोगों के पांव चले रौंदे जा रहे हैं, यदि वहीं मुझे खिला देते तो शायद मैं कुछ दिन और जी जाता!’ मृतक आत्मा कराह रही थी। ‘तेरी ही सेवा करते रहते तो काम धंधा कौन करता? आज यह सब कैसे करत? फिर उसे देखता भी कौन? पर तेरी सजी हुई डोली और बेटों की पितृ-भक्ति को तो दुनिया दे रही है। ... और फिर दोनों वक्त खाकर भी आखिर तू अमर तो नहीं हो जाता? और कितने दिन जिंदा रहता?गर्व कर कि तेरे बेटों ने तुझे घर पर प्राण त्यागने का सौभाग्य प्रदान किया,अगर ओल्ड होम भिजवा देते तो तू क्या कर लेता ?’ आत्मा की आत्मा ने जमाने के दस्तूर को याद कर उसे चुप करवा दिया।
हाथी के दात
सुनीता समाज सेविका है, नारी शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने में सबसे आगे। अपने परिवार की जिम्मेवारी में बेशक चूक हो जाए पर दूसरो की बहु को न्याय दिलाने में अपना जी-जान एक कर देती।
पड़ोसी रामदास की बेटी का घर बचाने के लिए अकेले सब से भिड़ गई, तब कहीं जाकर रामदास की बेटी को सुसराल में उचित स्थान मिला। रामदास ने उसका
धन्यवाद करना चाहा तो सुनीता का जवाब था, ‘कैसी बातें करते हो! आपकी बेटी, हमारी बेटी है। अपनी बेटी का घर बसाने के लिए जो कुछ मुझसे बन पड़ा मैंने किया। इसमें अहसान जैसी बात कहा है आखिर हम भी बेटी वाले हैं।’
पर थोड़ी दूर खड़ी सुनीता की ननद को ‘हम बेटी वाले’ शब्द सुनते ही आग लग गई। क्योंकि इसी सुनीता के कारण उसका हंसता-खेलता घर बर्बाद हुआ था। ननद-भाभी के परम्परागत संबंधों के चलते उसने उसके पति और सुसराल वालों को उसके चरित्र के बारे में उल्टी सीधी पट्टी पढ़ाई। जिससे उसका जीवन विषाक्त हो गया।
मन्नत
बेटा बीमार हुआ तो मालती ने जगतजननी माँ दूर्गा के दरबार में गुहार लगाई, ’हे माँ! मेरे बेटे की रक्षा करो, मैं तुम्हारा जागरण करवाऊंगी।’
मां ने अपनी भक्तिन की प्रार्थना सुनी या डाक्टरों ने फौरन आपरेशन कर बच्चे को खतरे से बाहर निकाला, कहना मुश्किल था पर मालती लगातार पति पर दबाव बनाये रही मां का जागरण करवाने के लिए। पति की मजबूरी थी कि छोटी सी तन्खवाह में घर का खर्च चलाये या जागरण करवाये। जैसे-तैसे, बरसों पेट काट कर कुछ रकम की इकट्ठी की कुछ इधर-उधर से उधार लिया और एक दिन मां के जागरण की तारीख निश्चित कर ही दी।
मालती फूली नहीं समा रही थी। सभी को जागरण का निमंत्रण दे रही थी क्योंकि उसकी बरसों की तमन्ना जो पूरी होने जा रही थी।
निश्चित दिन सुबह से ही घनघोर बादलों को देखकर पति का मन अशंकित हो उठा पर मालती निश्चिंत थी, ‘मां का काम है, वही देखेगी। आप निश्चिंत रहों, कुछ नहीं होगा।’
शाम होते-होते जबरदस्त तूफान के साथ बारिश होने लगी। चारो तरफ पानी भर गया, टंेट उखड़ गए यानी सब अस्त-व्यस्त हो गया। सभी ने आज जागरण की आशा छोड़ दी पर मालती...?
वह बेचारी मां से प्रार्थना कर रही थी, ‘हे जगतजननी मां, हमारी इज्जत की रक्षा करो। आज सब ठीक कर दो, मैं मन्नत मानती हूं कि एक जागरण फिर करवाऊंगी।’
कितने चेहरे
देखने में सीधासाधा, स्वभाव में मिलनसार, मृदुभाषी युवक विजय ने हम सभी को प्रभावित किया। उसकी सेवा भावना, मेरेे बीमार होने पर रात भर अस्पताल में जागना, ‘अब सो जाओ’ कहने पर पुत्रवत स्नेह, ‘आपकी सेवा में मुझे अपने पिता की सेवा सा सुख मिलता है’ कहना। इन तीन वर्षों में वह इतना घुलमिल गया कि अपने और पराये का भेद कब मिट गया, कुछ पता ही नहीं चला। ‘गांव क्यों नहीं जाते?’ पूछने पर ‘पिता का कर्ज उतारना है, वेैसे हर सप्ताह फोन और हर महीने मनीआर्डर भेजता हूं’। सुनकर संतोष मिला।
सर्दी की दोपहर, मैं धूप में बैठा था कि एक देहाती वृद्ध ने विजय का पता पूछा तो मैंने उसे बैठाया। वे विजय के पिता थे। जलपान आदि के बाद मैंने श्रद्धावश उनसे उनके घर-परिवार का कुशलक्षेम पूछा तो वह फट पड़े, ‘बाबूजी, विजय को घर भिजवाओ, उसे देखने के लिए उसकी मां की सांसे अटकी है। तीन बरस में पैसा तो क्या चिट्ठी, फोन भी नहीं। ढूंढ़ते-ढूंढ़ते आप तक पहुंचां हूं मेरी मदद करो, मैं आपके पांव पड़ता हूं’ कहते हुए उनकी आंखें नम हो गई। मैंने बामुश्किल उन्हें ढांढ़स बंधवाया।
मैंने विजय के मोबाइल पर उसे उसके पिता के आने की जानकारी देते हुए फौरन लौटने को कहा पर यह क्या! फौरन तो क्या, दो दिन बीत चुके हैं, वह अब तक नहीं आया और न ही फोन सुन रहा है। उसके साथी उसकी गतिविधियो को संदिग्ध बता रहे हैं। इधर यह बेबस पिता उसकी बाट जोह रहा है पर मेरा परेशान मन मुझे बार-बार कचोट रहा है ‘आखिर कितने चेहरे हो सकते हैं एक इन्सान के!’
माँ की निशानी
छोटे-छोटे बच्चों को पाल पोसकर किसी काबिल बनाने के लिए शारदा ने क्या नहीं किया। दूसरों की नौकरी, दिनभर मेहनत मजदूरी उस पर भी बच्चों की हर इच्छा पूरी की।
यह बातें पुरानी हो गई थी इसलिए शारदा के बच्चें भी माँ का त्याग याद नहीं रख सके। अपना-अपना घर बसा तो माँ बोझ बन गई इसलिए एक आँगन में रहते हुए भी शारदा को अलग-अलग चूल्हें का आश्रित होना पड़ा तो वह टूट गई और भगवान से मुक्ति की प्रार्थना करती। आखिर शारदा की सजा खत्म हुई, बेटों-बहुओं ने दुनिया को दिखाने के लिए खूब आँसू बहायें।
दुनियादारी निभाने के लिए पतित पावनी माँ गंगा को शारदा के अंतिम अवशेष समर्पित करने बड़ा बेटा जा रहा था तो एक बहु ने बुढ़िया के पुराने कपड़े भी उसे सौंप दिये तो दूसरी बहु शारदा की पुरानी ब्लैक एण्ड वाईट फोटो भी दे गई।
‘यह किस लिए?’ बेटे ने पूछा।
‘माँ की सभी निशानियाँ गंगा के हवाले कर आओ ताकि उन्हें देखकर आपको बार-बार भावुक न होना पड़े’ कुटिल मुस्कान के साथ बहू ने उत्तर दिया।
‘ठीक ही तो है क्यों न उसके बेटों से भी आज ही मुक्ति पा ली जाए क्योंकि वे भी तो उसी बुढ़िया की निशानी है’ पास बैठे एक वृद्ध की खरीखरी सुनते ही सभी के होश गुम हो गए।
व्यवहारिक ज्ञान-2
संतजी के प्रवचनों से मुझे नई ऊर्जा प्राप्त हुई उनके दिव्य स्वरूप और सम्मोहित करने वाले शब्दों ने मेरे मन-मस्तिष्क को आंदोलित कर दिया था। सच ही तो कहा था उन्होंने, है काम आदमी का औरों के काम आना। जो समाज की पीड़ा से द्रवित नहीं होता वह मनुष्य कहलाये जाने योग्य नहीं है। उनके दिए हुए ज्ञान को धारण कर मैं घर लौटा तो पता चला कि बेटा अशोक अभी तक घर नहीं लौटा। मन परेशान हो उठा कि आखिर इतनी रात गए वह कहाँं होगा। कालेज से पांच बजे छुट्टी के बाद आधे घंटे में उसे घर आ जाना चाहिए था पर अब तो दस बज चुके हैं। मन किसी अनहोनी की आशंका से ग्रसित होने लगा कि तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। देखा तो अशोक था। देरी का कारण पूछने पर उसने बताया, कॉलेज से लौटते समय मैंने देखा कि सड़क पर एक युवक लहूलुहान बेहोश पड़ा था। मैं उसे बचाने के लिए अस्पताल ले गया। डॉक्टरों ने फौरन आपरेशन कर उसकी जान बचाई।
‘पर अस्पताल पहुंचाने में इतनी देर थोड़े ही लगती है?’ मैंने जिज्ञासा प्रकट की तो उसने डरते-डरते बताया कि उसने घायल को अपना खून भी दिया है इसीलिए देरी हो गई। यह सुनते ही मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया, ‘अरे नालायक! बाकि सारी दुनिया तो जैसे मर गई थी? तुझे क्या पड़ी थी उसे अस्पताल पहुंचाने की? अपने आप को दधिचि समझ रखा है जो उसे खून देने लगा। बेशर्म कहीं का, इतना भी नहीं सोचा कि घर पर तेरा कोई इंतजार कर रहा होगा?‘
अशोक ने सिर झुका कर उत्तर दिया, ‘यही सोचकर तो मैं उसे अस्पताल ले गया था कि उसका भी तो कोई इंतजार कर रहा होगा। और फिर पापा इंसान ही इंसान के काम आता है। सोचो उसकी जगह मैं होता और मेरी जगह वह होता तो क्या तब भी आप यहीं कहतें?’
अशोक की बात सुनकर मुझे लगा संत के प्रवचन मैंने समझे ही कहां है पर अशोक ले मुझे बिना सुने ही सब कुछ समझ लिया।
कटी हुई नाक
‘इसने गांव की नाक कटवाई है, इसके खून से ही अब हमारी इज्जत बच सकती है’ पंचायत में मुखिया ने फैसला सुनाया।
‘ठीक कहते हो मुखिया जी, अगर इसे यूं ही छोड़ दिया तो गांव की सभी लड़कियां भी ऐसा दुष्कर्म करके अपने बाप-दादा की इज्जत को मिट्टी में मिला देगी’रामलखन ने मुखिया के स्वर में स्वर मिलाते हुए उस अभागिन को जान से मारने का समर्थन किया। पंडित आत्मा प्रसाद तो उससे भी आगे बढ गए उन्होंने शास्त्रों की बात करते उस लड़की के अपनी मर्जी से शादी कर लेने को वर्णसंकरण और पाप की शुरूआत बताया।
गांव के सभी चौधरी और पंच आज अपनी ताकत दिखाने पर आमादा थे, किसी ने उसकी नहीं सुनी जो चीख-चीख कर अपने साथ हुए अन्याय का हिसाब मांग रही थी।
पेड़ पर रस्सा डालकर फांसी का फन्दा बनाया जा रहा था कि अचानक सोमा बुआ लट्ठ लिए वहां पहुंच गई। सोमा बाल विधवा थी, जो अपने मायके में रहने को विवश थी। वह दिनभर भाई-भतीजों के लिए काम करती तब कहीं जाकर उसे पेट भर रोटी नसीब होती। आज न जाने कहां से हिम्मत जुटाकर वह पंचायत में पहुंच गई और सभी को ललकारते हुए बोली, ‘खबरदार जो किसी ने इस लड़की को हाथ भी लगाया, क्या किया है इसने जो तुम्हारी नाक कट गई? क्यों पंडित जी जब तुमने इसके बाप से अंगुठा लगवाकर उसका खेत हड़प लिया तब तुम्हारे शास्त्र कहां थे? तुम्हारी वजह से तो उसने आत्महत्या की थी।
ठाकुर साहब! गांव की इज्जत बचाने के लिए आज आप इसकी जान लेने को आमादा हैं पर जब इस गरीब ने बाप के मरने के बाद अपने घर और अपनी इज्जत की रक्षा करने के लिए आपसे गुहार लगाई थी तब तुम्हारे खून नें उबाल क्यों नहीं खाया? तब अपने बेटे को फांसी लगाने का ख्याल क्यों नही आया जिसने इस बेचारी का जीना हराम कर दिया था। जब तुम पंच परमेश्वरों के बहरे कानों और ममती से अंधी आंखों ने इसकी तरफ देखा तक नहीं तो यह क्या करती?
अरे रामदीन, तू भी यहीं बैठा है, तू डूब कर क्यों न मरा कि जब तेरे सगे भाई की बेटी दर-दर भटक रही थी और तूनेइसकी सुध तक न ली उल्टा मृतक भाई का घर भी कब्जा लिया। हॉ तो आज तेरी भी इज्जत पर बन आई है?
दुष्टों! तुमने इस अकेली को खूब नोंचा, पर जब इसने अपने आपको तुम से बचाने के लिए किसी के साथ घर बसाने की सोची तो तुम्हारी नाक कट गई। अरे यह क्यों नहीं कहते कि वह तुम्हारे चंगुल से निकल रही है इसलिए तुम्हे छटपटाहट हो रही है मैं कहती हूं मेरा मुंह न खुलवाओ। मेरे सीने पर तुम्हारे जुल्मों की दास्तान लिखी है। यदि दिखा दी तो तुम सब कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहोगे।
उठो बेटी, मैं देखती हूं तुम्हें कौन रोकता है। चलो मेरे साथ चलो, मैं तुम्हारा कन्यादान करूंगी।’
भेड़ियों के बीच सहमी भेड़ सोमा बुआ के साथ चल दी और किसी की हिम्मत नहीं थी कि उन्हें रोक सके। सोमा बुआ ने सभी को ऐसा शीशा दिखाया कि जिस नाक के कटने की बात वे कर रखे थे, वह तो उनके चेहरे पर ही नहीं!
अपना बेटा
निःसंतान रमेश ने एक अनाथ बच्चे को अपना लिया। वह उसे हर सुख-सुविधा देने की कोशिश करता ताकि वह पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बन सके। रमेश उसे इतना चाहता था कि वह न तो उसके बिना भोजन करता और न ही कही जाता था। समय बीतता गया और सुनील बालक से युवा हो गया, उसे कालेज में दाखिला मिल गया लेकिन कालेज में जाते ही उसकी जिन्दगी बदल गई। स्कूल से सीधे घर आने वाला सुनील अब रोज देर से घर लौटता। मगर आज तो हद ही हो गई, रात के 11 बज गये पर सुनील अब तक नहीं लौटा, रमेश बहुत परेशान था, वह बार-बार दरवाजे की तरफ देखता, उसके मन में अनेक प्रकार की आशंकाएं उमड़ती तो उसका तनाव और बढ़ जाता। देर रात सुनील के वापस आते ही रमेश उस पर बरस पड़ा, ‘‘कहाँ थे अब तक, क्या तुम्हें मालूम है कि मैं कितना परेशान रहा? कल से ऐसा नहीं चलेगा, कालेज से सीधे घर आना होगा, समझे!‘‘ पिता की बात सुनते ही सुनील का धीरज भी जवाब दे गया, आँखो में गंगा यमुना उमड आई और होठो पर यह टीस‘‘ ठीक है जो कहोगे, करना ही पड़ेगा। काश! मैं आपका अपना बेटा होता तो मुझे इतने जुल्म न सहने पड़ते।‘‘ रमेश शायद उसे अपने प्यार का अर्थ नही समझा सका, बेचारा सुनील !
भिखारी
‘‘बाबूजी सुबह से भूखा हूँ, एक रूपया दे दो‘‘
‘‘चल-चल आगे चल, पता नहीं कहाँ-कहाँ से आ जाते,? अरे कुछ काम धंधा करो, मेहनत करो, शर्म नहीं आती तुम्हे भीख मांगते हुए‘‘
‘‘कुछ मजबूरी रही होगी वरना कौन भीख मांगना चाहता है पर आप भी तो दिन भर में कई बार मांगते है, अब आपको क्या कहा जाए?‘‘
‘‘क्या बकते हो, मैं और भिखारी?‘‘
‘‘और नहीं तो क्या, आप और आपकी इज्जतदार सोसायटी के लोग कभी जागरण के लिए तो कभी किसी पार्टी के लिए चंदा लेने जाते हो तो क्या रसीद बुक पकड़ लेने से भीख का नाम बदल जाता है? यहीं क्यों? अपने आपको बडा आदमी कहने वालो जरा ध्यान से सुनो, मोबाईल रखते हो पर दूसरों को मिस काल करते समय यह भी सोचोे क्या यह मांगना नहीं है? सिगरेट पीने का शौक रखते हो और माचिस मांगते हो दूसरो से यहा क्या हैं?‘‘ खरी-खरी कहने के बाद वह ‘भिखारी‘ तो चला गया पर यह ‘भिखारी‘ अब भी वहीं खड़ा सोच रहा था, ‘बात तो ठीक कही उसने, क्यो न यह नया आइडिया अपने मित्र को बताया जाए‘‘ और उसने अपनी जेब से मोबाइल निकाल कर दोस्त को मिस काल मारी और इंतजार करने लगा उसकी घंटी का..... ।
मानवाधिकार
मानवाधिकारों पर आयोजित सम्मेलन के आयोजक बांके बिहारी जी ने उन सभी की जमकर खबर ली, जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करते हैं। अपने भाषण में वे इतना आगे बढ़ गयें कि देशद्रोही आतंकवादियों को भी अपने ही परिवार के भटके हुए सदस्य घोषित करते हुए उनके अधिकारों की वकालत करने में भी कहीं कमजोर नहीं पड़ें।
सम्मेलन के बाद स्वादिष्ट दावत का मजा लेते हुए सभी उनकी भावना की प्रशंसा करते नजर आ रहे थे। मैंने अचानक टेंट के पिछवाड़े जाकर देखा, एक आठ बरस का बालक जूठे बर्तन धोते हुए आंसू बहा रहा था। पूछने पर पता चला कि वह तेज़ बुखार के बावजूद काम करने को विवश है। आयोजको द्वारा इस तरह से मानवाधिकारों की रक्षा देख मैं बलिहारी् था।
लगाम
एक बादशाह हाथी पर बैठा। महावत ने हाथ को चलाना चाहां बादशाह बोला, ‘हाथी की लगात मुझे दो।’ महावत ने कहा, ‘जहांपनाह! मैं आपको लगाम कैसे दूं हाथी की लगात ही नहीं होती।’ बादशाह बोला ‘जिसकी लगाम मेरे हाथ में नहीं, उसकी सवारी मैं नहीं गरूंगा।’ बादशाह नीचे उतर गयां जो व्यक्ति अपने जीवन की लगाम हाथ में नही रखता, वह अच्छा जीवन कैसे जी सकता है?
कुत्ते की मौत
दिनों के बाद महीनें और फिर बरसों गुजर गये पर वह नहीं आया जिसका मुझे इंतजार था। मुझे चाहने वाले भी जरूर उस क्षण की प्रतिक्षा में रहे होंगे। उनकी आंखें इस सत्य की गवाही देती थी मगर होंठ खामोश थे।
मैं ..... मैं अज़ीज आ चुका था, इस स्थिति से। इसे मैंने अपने लिए स्वयं ही तो चुना था। अकेलापन जो मुझे प्रेरणा देता था, आज काट खाने को दौड़ता है। दिन भर बहुत से लोग मिलने के लिए आते हैं पर फिर भी इस भीड़ में मैं अकेला ही महसूस करता हूँ। अब तो दिल से चाहता हूँ कि अब किसी भीे दिन मेरी बारात सज ही जाये। बारात में धूम-धाम हो या न हो कुछ अपने जरूर हो। वे अपने जो चाह कर भी बारात और डोली को पीया के द्वार तक न पहुंचा सके।
डोली जब सजेगी, तब सजेगी, पर पीया मिलन के सपने सजते ही रहते हैं। मिलन के अवसर पर पीया से शिकवा-शिकायत हो या केवल समर्पण? हो यह भी सकता है कि पीया को मेरा इन्तजार ही न हो। उन्हें वायदा खि़लाफी का दुःख हो सकता है। मर्यादा तोड़ने पर गुस्सा भी हो सकता है।
मर्यादा? कैसी मर्यादा?
अरे हाँ, जवानी के ज़नून मंे जमाने की कहाँ परवाह की थी मैंने। जो भी मेरे रास्ते में आया, उसी ने हश्र भुगता।
एक बार तो मेरी कार से सामने एक कुत्ता क्या आया और कुचला गया। अधमरे को छोड़कर आगे बढ़ना भी तो उचित नहीं था। बहुत इत्तमिनान से कार बैक की और फिर से कार के पहिये उसके ऊपर से गुजार दिये। उसकी छटपटाहट शांत हो गई।
देखने वालों को मेरी हरकत कैसी लगी होगी, अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है। मगर न जाने क्यों, मुझे संतोष था। जमाने ने इसे मेरा जुल्म कहा होगा और हो सकता है जमाने भर की बद्दुआएं भी दी हो!
ऐसी ढ़ेरों गलतिया मुझसे हुई होगी, स्वीकार करने से पीछे नहीं हट सकता। पर जमाना पीछे क्यों हटा नहीं समझ सका। मेरे साथ भी वैसा ही व्यवहार क्यों नहीं किया गया। मैं भी तो बरसों से छटपटा रहा हूँ पर किसी ने भी मेरी पीड़ा हरने की नहीं सोची।
कभी नहीं भूलता वह दिन जब एक सड़क दुर्घटना ने मुझे भी लगभग उसी स्थिति में पहुंचा दिया, जहाँें मैंने कुत्तें को पहुंचाया था।
महीनों अस्पताल में पड़े रहने के बाद छुट्टी दे दी गई लेकिन पीड़ और छटपटाहट से छुट्टी कहाँ मिली। लोग आते, अपनी सहानुभूति दिखाते, धीरज बंधाते और लौट जाते मगर किसी ने भी मुझ पर उपकार नहीं किया। ठीक वैसा ही, जो कभी मैंने अपनी कार से कुचले गये कुत्ते की छटपटाहट शान्त करने के लिए किया था। अफसोस कि मेरे मामले में किसी की दुआ तो क्या बददुआ भी काम नहीं कर रही है। वक्त का रोलर भी न जाने किस अंधी सड़क पर भटक गया।
हर क्षण मुक्तिदाता की आहट की प्रतीक्षा में बीतता है। क्या यह सच नहीं है कि कुत्ते की मौत कहीं बेहतर थी, मेरे इस दर्दनाक और लम्बा इंतजार से?
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