क्या यही है आजादी के मायने? IS IT FREEDAM? Vinod Babbar


स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
डा. विनोद बब्बर आजादी के मायने क्या है, यह प्रश्न आजादी के 65 वर्ष बाद पूछा जाना चाहिए भी या नहीं? मन कहता है, ‘जब आजादी का जश्न मनाने का अवसर हो ऐसे सवाल खड़े करना उचित नहीं’ लेकिन बुद्धि का तर्क है ‘आजादी की बात करने का इससे बेहतर अवसर और हो ही नहीं सकता इसलिए जरूर बोलो वरना तुम भी मौन रहकर अपराधी माने जाओंगे।’ आजादी? कैसी आजादी? क्या लूटपाट की आजादी? भ्रष्टाचार की आजादी? असमानता बनाये रखने की आजादी? देश की एकता को कमजोर करने की आजादी? राजनैतिक षड़यंत्रों की आजादी? धरना-प्रदर्शन की आजादी, आंदोलन की आजादी, आखिर पहले यह तय तो करले कि आजादी आखिर है किस चिड़िया का नाम? देश में अनाज खुले में पड़ा सड़ रहा है तो दूसरी ओर लोग भूख से परेशान है। भूख की समस्या को अनाज को संभालने की समस्या से अलग रखने वाले आखिर कौन हैं और क्यों आजाद घूम रहे हैं? काला धन विदेशों से वापस आना चाहिए। जिनके धन विदेशी खातों में है उनके नाम सामने आने चाहिए। ऐसे लोगों को सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए लेकिन इससे भी पहले सवाल यह है कि यह धन देश से बाहर गया कैसे? किसकी लापरवाही से ऐसा हुआ? किसी की जिम्मेवारी तय होनी चाहिए कि आखिर इतने काबिल मंत्री, अफसर कौन से थे जिन्होंने देश की व्यवस्था को संभालने की अपनी जिम्मेवारी के प्रति आंखें मूदते हुए चोरों को इतनी आजाद दी कि वे देश का धन लूट कर बाहर ले जाने में सफल रहे? भ्रष्टाचार देश के आम आदमी की आजादी को बाधित करता है लेकिन भ्रष्टाचार के प्रति नरम रवैया अपनाने वाले आजाद क्यों है? आजादी के बाद से आज तक कांग्रेस से दूसरी पार्टियों तक सभी अपनों की गलती को अनदेखा करने और दूसरों के पाप को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने के पाप में शामिल रहे हैं तो भ्रष्टाचार मिटता भी तो आखिर कैसे? आखिर आज तक किसी भ्रष्टाचारी मंत्री को सजा क्यों नहीं हुई? आखिर कितनांे की सम्पति जब्त हुई? किस पार्टी ने अपने भ्रष्टाचारी को पार्टी से निकाला? क्या इसलिए कि चुनाव लड़ने के लिए सभी को मोटा पैसा चाहिए। अब पैसा पेड़ पर तो लगता नहीं। कुछ तिकड़म भिड़ानी पड़ेगी। केसरी, सुरजीत, महाजन, अमर आखिर इसीलिए तो राजनीति के प्यारे थे। क्या किसी ने भी भ्रष्टाचार की जड़ पर प्रहार किया? जड़ तो महंगे चुनाव है। चुनावों में धन और बल का बढ़ता प्रचलन भ्रष्टाचार को सशक्त कर रहा है। उसे संस्थागत स्वरूप प्रदान कर रहा है लेकिन हम समाधान तलाश रहे हैं धरना प्रदर्शन में। भूख हड़ताल अनशन में। नारों और लोकपाल में। एक लोकपाल जादू की छड़ी से सब ठीक कर देगा ऐसी सोच पर हंसा भी नहीं जा सकता है। राजनीति की गंदगी को दूर करने की बजाय उसी में आने वालों ने चुनाव प्रणाली की विफलता पर कभी आवाज तक नहीं उठायी। ऐसे में तय है कि वे भी कीचड़ में सनकर ही कुर्सी तक पहुंचेगे। भ्रष्ट व्यवस्था का अंग बनकर कोई उसे सुधार सकता है, यह भ्रम पालने की आजादी अपनी सोच न दी जाए तो ज्यादा बेहतर है। देश की दुर्दशा का मुख्य कारण दोहरी शिक्षा प्रणाली है। सरकारी स्कूलों का परिणाम बेहतर होने के लाख ढ़ोल पीटते रहो लेकिन शिक्षा के स्तर में अंतर से इंकार करने का साहस किसी में नहीं है। क्या यह यह उचित नहीं होगा कि हर सरकारी कर्मचारी- अधिकारी, हर निर्वाचित प्रतिनिधि वह पंचायत का सदस्य हो या संसद का, उसके आश्रितों के लिए निकट के सरकारी स्कूल में ही शिक्षा का प्रावधान क्यों नहीं है। आखिर जो लोग सरकारी व्यवस्था का लाभ तो लेना चाहते हैं उन्हें सरकारी स्कूलों के स्तर पर प्रश्न उठाने का क्या अधिकार है? यदि ऐसा ही नियम स्कूलों के साथ-साथ सरकारी आदमी सरकारी अस्पताल के रूप में भी लागू कर दिया जाए तो देश की तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। परंतु क्या ऐसा हो सकेगा? शायद नहीं क्योंकि ‘सरकारी लोगों’ की आजादी देश की आजादी और विकास से ज्यादा महत्वपूर्ण है। क्या कोई परिपक्व राष्ट्र अपनी सीमाओं को अवैध रूप से पार कर आने वाले घुसपैठियों को आजादी दे सकता है? दुनिया भर से इसका उत्तर जो भी हो लेकिन हमारे देश का सत्य यह है कि बंगलादेशी घुसपैठिये करोड़ों में है। अभी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘लुकिंग बैक इन टू द फ्यूचर’ के अनुसार 10 अप्रैल, 1992 को असम विधानसभा में मुख्यमंत्री ने स्वीकार किया था कि ‘असम में बीस से तीस लाख के बीच अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं। उनके अनुसार उस समय के तेरह में दस जिलों में जनसंख्या वृद्धि का कारण बांग्लादेशी घुसपैठियों की उपस्थिति है। इस वक्तव्य पर 30 अप्रैल, 1992 को मुख्यमंत्री की ही पार्टी के एक नेता ने चेतावनी देते हुए कहा था-मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी मुसलिम वोटों पर टिकी है। अगर असम के मुसलमान चाहे तो पांच मिनट में मुख्यमंत्री को बाहर कर सकते हैं। इस वक्तव्य के बाद 7 मुख्यमंत्री ने बयान बदलते हुए कहा था- असम में एक भी अवैध घुसपैठिया नहीं है। इतना कह क्यों, सीमा सुरक्षा बल के तत्कालीन महानिदेशक ने कहा था, ‘1972 से 2005 के बीच बारह लाख बांग्लादेशी पक्के वैध दस्तावेजों से भारत आकर फिर कभी वापस नहीं लौटे।’ तत्पश्चात गुवाहाटी हाईकोर्ट ने भी इन बांग्लादेशी घुसपैठियों पर कड़ी टिप्पणी करते हुए सरकार से कार्यवाही करने को कहा था लेकिन स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गई। वर्तमान चुनाव आयुक्त एसएस और भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी के एक लेख के अनुसार- आज असम के सत्ताईस जिलों में से ग्यारह मुसलिम बहुमत वाले जिले बन गए हैं, जिनकी वजह सिर्फ बांग्लादेश से आने वाले अवैध घुसपैठिए हैं। धुबरी जिला कभी हिंदू बहुल था लेकिन आज बांग्लादेशी मुसलिम घुसपैठियों के कारण वहां बानबे प्रतिशत मुसलिम हैं। असम में हो रहे दंगों का सत्य सरकार की अकर्मण्यता और सीमाओं की आजादी के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। क्या यह सत्य नहीं कि 15 अगस्त 1947 को देश का शासन भारतीयों के हाथों में जरूर आया, लेकिन, शासन तंत्र का भारतीयकरण करना आज भी शेष है। जो नियम व्यवस्थाएं अंग्रेज शुरू करके गए थे, वे आज भी जारी है। चाहे वह पुलिस व्यवस्था हो, शिक्षा व्यवस्था हो, शासन व्यवस्था हो, न्याय, कृषि, चिकित्सा हो या फिर समाज व्यवस्था हो। पुलिस अधिनियम 1860 का, सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1861 का, भारतीय दंड विधान लार्ड, शिक्षा व्यवस्था लार्ड मैकाले की बनाई हुई। ऐसे में हम सिर उठाकर कैसे कह सकते हैं कि हम स्वतंत्र हैं? स्वदेशी, स्वभाषा और स्वाभिमान ही किसी भी राष्ट्र की स्वतंत्रता के मुख्य स्तम्भ हैं। जब तक इनके आधार पर हम अपना शासन-तंत्र नहीं बदलते, तब तक स्वराज्य को सुराज्य में बदलना भी सम्भव नहीं होगा। जब तक भारत स्वदेशी, स्वभाषा और स्वाभिमान के साथ उठकर पुनः एक बार विश्व के सामने खड़ा नहीं हो जाता, तब तक स्वतंत्रता-प्राप्ति का अर्थ और लक्ष्य अधूरा ही रहेगा। किसी देश की सबसे बड़ी पूँजी वहाँ की युवा पीढी ही होती है। हमारी लगभग आधी जनसँख्या युवा है। लेकिन, दुखद पहलु यह है कि अधिकांश युवा भ्रमित और दिशाहीन हैं। विदेशी संस्कृति, विदेशी भाषा और विदेशी जीवन शैली का अंध अनुशरण हो रहा है। क्या यह आज का कड़वा सत्य नहीं कि अधिकांश युवाओं को स्वतंत्रता सेनानियों की कम और क्रिकेट की जानकारी अधिक है। आखिर उन्हें कौन समझायेगा कि आजादी का अर्थ अनुशासनहीनता नहीं सामंजस्य है। पिछले दिनों लंदन यात्रा के दौरान एक परिचित ने दिल्ली और लंदन के अंतर के बारे में पूछा तो मैंने मुस्कारते हुए कही, ‘सबसे बड़ा अंतर तो ईश्वर प्रदत्त जलवायु का है तो दूसरा आपकी अमीरी परंतु उसका कारण आपके द्वारा भारत से लूटा गया धन है। हमारा कोहिनूर इसका एक उदाहरण है।’ मेरा उत्तर सुनकर वे जोर से हंसे और बोले, ‘तुम्हारी आधी बात ठीक है। हमें ईश्वर ने जलवायु जरूर बेहतर दी है और यह भी सच है कि हमने दुनिया को लूटा है। लेकिन अमीर हम नहीं तुम हो। देखो, लंदन में रहते बरसों बीत गये लेकिन मैंने आज तक अपने घर के सामने की सड़क बनते नहीं देखा। एक बार बन गई, आज भी वहीं है और बढ़िया है। मैं अनेक बार दिल्ली गया हूँ। जब , जहाँ देखो, सड़क, नालियाँ बनती दिखाई देती है। बताओ हमारे पास धन ज्यादा है या तुम्हारे पास?’ मैं निरुत्तर था। कैसे कहता कि हमारी सड़के बार-बार इसलिए बनती व टूटती हैं क्योंकि हमारे नेताओं-अफसरों की रोजी -रोटी उसी से चलती है। उनके शब्दकोश में विकास का अर्थ जनता का नहीं, अपना और उसके बाद अपनों का विकास है। स्वतंत्रता दिवस पर अब तक के वर्षों का मूल्यांकन करेगा कौन? संसद हंगामें में डूबी है तो नेता घोटालों अथवा आंदोलनों में। प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संदेश रस्म अदायगी जैसा ही होगा क्योंकि उनसे ‘राष्ट्रनायक’ जैसे व्यवहार की अपेक्षा करना ज्यादती होगा। इस बार भी कुछ वायदें, कुछ नई पुरानी बातें, अपनी और अपनों की उपलब्धियों के गुणगान के बीच घ्वजारोहण होगा। क्या यह सत्य नहीं कि किसी भी राज्य-राष्ट्र के असली ध्वज उसकी जनता, उसकी खुशहाली, साधन शुद्धि वाली राजनीति, निजहित पर राष्ट्र-हित को अधिमान में निहित है। जनता में अव्यवस्था, भ्रष्टाचार के विरूद्ध जिस प्रकार से जबरदस्त रोष है, उससे अहसास होता है- ‘बेशक रात अंधियारी है लेकिन सुबह अब बहुत दूर नही है। दूर से ही रोशनी की किरणों के रूप में चिंगारी सुलग रही है।’ आइए भारत माता के उन वीर पुत्रों की पावन स्मृति को प्रणाम करें जिन्होंने अपनी अस्थियां जलाकर हमारे लिए उजाला किया। जय भारत! जयहिंद!
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