राजनीति बनाम सर्कस

यह दुनिया का दस्तूर है कि मुश्किल में अपने ही और मुश्किलंे बढ़ाते हैं। घोटालों की चपेट में जकड़ी कांग्रेस के लिए उसके अपने वरिष्ठ सिपाही ही मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं। ताजा मुश्किल पार्टी के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर की टिप्पणी से खड़ी है जिसमें उन्होंने राजनीति की परिभाषा बदलते हुए अपनी ही पार्टी को सर्कस बताया है। केन्द्रीय मंत्री रह चुके बड़बोले कांग्रेसी सांसद ने कांग्रेस से संबंधित एक पुस्तक का लोकार्पण करते हुए कांग्रेस को सर्कस घोषित किया। उनके अनुसार इस सर्कस में तीन प्रकार के लोग हैं। पहले वे जिन्हें सब कुछ मिल चुका है, वे 10 जनपथ जाते हैं। दूसरे जिन्हें कुछ मिलने की उम्मीद है वे 23 वेलिंगटन रोड जाते हैं और तीसरे वे जिन्हें कोई उम्मीद नहीं है, वे 24 अकबर रोड जाते हैं। 10 जनपथ (सोनिया का निवास), 23 वेलिंगटन रोड (सोनिया के सचिव अहमद पटेल का निवास) तथा 24 अकबर रोड (कांग्रेस मुख्यालय) की ओर इशारा करने वाले अय्यर साहब राष्ट्रमंडल खेलों से पूर्व खेलों का बेड़ा गर्क होने की सार्वजनिक कामना कर पहले भी काफी यश अर्जित कर चुके हैं।
बेशक अय्यर साहब की टिप्पणी से अनेक कांग्रेसी आहत हैं लेकिन वे चुप रहना बेहतर समझते हैं क्योंकि ‘मणि’ से सभी डरते हैं। हाँ, कांग्रेस महासचिव रहे राज्यसभा सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी ने जरूर साहस दिखाया और अय्यर साहब को सर्कस का जोकर बताया है। किसी भी कुशल नेता की तरह अब अय्यर भी अपने बयान से मुकर चुके हैं। उन्होंने फरमाया, ‘मैंने कांग्रेस पार्टी को नहीं, बल्कि उसके मुख्य्ाालय्ा पर रोज़ लगने वाले ‘मेले‘ को ‘सर्कस‘ कहा था। न तो मैं जोकर हूँ और न ही सर्कस के झूले का कोई कलाकार। लेकिन पिंजरे में बंद शेर हूँ।’
जब सर्कस की बात होगी तो नटों और जोकरों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अनुभवी लोग जानते है कि सर्कस कलाकारों की चलती-फिरती कम्पनी होती है जिसमें नट, विदूषक, अनेक प्रकार के जानवर एवं अन्य प्रकार के भयानक करतब दिखाने वाले कलाकार होते हैं। यह सब एक विशाल तम्बू के नीचे व्यवस्थित होता है। बदलते माहौल और लोगों की रुचि में बदलाव की वजह से आज सर्कस अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। ऐसे में सर्कस शब्द आने वाली पीढ़ी के लिये अपरिचित हो सकता था लेकिन भला हो राजनीति वालो का जो इसे बचाने का दायित्व अपने ‘मजबूत’ कंधों पर लेने को तैयार हैं। सबसे पहले तो इस सत्य भाषण के लिए ‘मणि’ को बधाई।
जहाँ तक आज की राजनीति और सर्कस में समानता का प्रश्न है, आज की राजनीति में भी हर दल एक तम्बू बन चुका है, जहाँ रंग-बिरंगें ‘कलाकार’ मौजूद होते हैं। हर तम्बू भीड़ से ही शोभा पाता है अब वह चाहे सर्कस का हो या राजनीति का। कल तक सर्कस का आकर्षण था, आज सबसे बड़ा आकर्षण राजनीति का है। इसी कारण जिसे देखों वही राजनीति की ओर भाग रहा है। कभी सर्कस की टिकटों की मारामारी होती थी, आज राजनीति तो टिकी ही टिकटों पर है। सर्कस में अपनों को फ्री पास देकर उपकृत करने की परम्परा रही है। राजनीति में भी ‘अपनों’ को फ्री-हैंड देकर उसी परम्परा को आगे बढ़ाया जा रहा है। जिन दिनों सर्कस में ‘शेर’ हुआ करता था, तब राजनीति में भी ‘शेरदिल’ हुआ करते थे। आज राजनीति और सर्कस दोनो जगह शेर देखने को नहीं मिलते।
राजनीति को सर्कस बनाने वाले लगातार प्रयास कर रहे हैं। इसलिए शीघ्र ही शेष रहे फासले भी मिट सकते हैं। ऐसे में यह स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि केवल कांग्रेस ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण राजनीति ही सर्कस में बदल रही है। आज राजनीति में स्टेटसमैनों के स्थान पर स्टंटमैनों की भूमिका बढ़ रही है तो अच्छे वक्ताओं की कमी को ‘कुछ’ जोकर पूरा कर रहे हैं। अनेक जोकर राजनीति के मंच पर मुख्य भूमिका निभा रहे हैं। कुछ बे-चारे श्रीविहीन हैं लेकिन उनका बड़बोलापन जारी है। कम से कम दो पूर्व मुख्यमंत्री तो जोकर शिरोमणि कहे जा सकते हैं। कारण- अकारण कुछ भी बोल देना उनकी नेतृत्व (अभिनय) कला का ही विस्तार है। एक पूर्व सीएम तो हर बमकांड के दोषियों को जानते हैं। यहाँ तक कि विस्फोट होने से पहले भी उन्हें मालूम होता है कि कौन बम विस्फोट करने वाला है। वैसे उन्होंने अपने सबूतों की पिटारी कभी खोली नहीं है क्योंकि अभिनय की सीमाएं होती है। यह ‘महापुरूष’ देशद्रोहियों से लोहा लेते हुए वीर गति को प्राप्त हुए शहीद का अपमान करने से भी नहीं चूकता। तभी तो उस मुठभेड़ को ही फर्जी करार देते नहीं थकता। कहा जाता है कि वह खास वोटों को साधने के लिए ‘खास’ करतब कर रहे हैं इसीलिए तो वह दल जहाँ कोई भी नेता अपने ढंग से अपने विचार की व्यक्त नहीं कर सकता, हाईकमान की बात दोहराना अनिवार्य है, ये जोकर ‘जी’ अपनी अलग धारा कैसे बहा सकते हैं? कभी विदूषकों के गुरू रहे एक पूर्व सीएम के सितारे आजकल गर्दिश में हैं। राज्य में कोई नाम लेवा नहीं बचा, ‘रेल’ भी पटरी से उतर चुकी है लेकिन उनका मशखरापन अब भी बरकरार है। कब, क्या कह दे, कहा नहीं जा सकता।
यह लिस्ट काफी लम्बी होती जा रही है। कभी केन्द्रीय मंत्री तो फिर राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के सर्वेसर्वा रहे महापुरूष जो इन दिनों कृष्ण जन्मभूमि में रहने को विवश हैं, आजकल इसी श्रेणी में आने को बेचैन हैं। फंसने पर याद आया कि उन्हें तो भूलने की बीमारी है। स्वयं सीबीआई ही बता रही है कि खेलों में ठेके, टेंडर बांटते समय उन्होंने भूल कर भी किसी बाहरी को उपकृत नहीं किया। वैसे उनकी भूलने की बीमारी उनके निर्वाचन क्षेत्र की जनता के लिए अच्छा संदेश हो सकती है कि यदि वे चाहे तो ऐसे लाल भुलक्कड़ को जल्द से जल्द भूल जाए।
राजनीति को सर्कस बनाने का श्रेय और एकाधिकार सत्ताधारियों के पास ही रहे, भला यह मुख्य विपक्षी दल को कैसे स्वीकार हो सकता है? भाजपा भी अपने यहाँ सर्कस शुरू कर चुकी है। गैरों के भ्रष्टाचार पर शोर मचाने वाले अपने येदूरप्पा के मामले में तर्क प्रस्तुत करते हैं कि दिल्ली के लोकायुक्त की रिपोर्ट पर भी तो कांग्रेस ने अब तक कोई कारवाई नहीं की है। इसे जोकर जैसी हरकत के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? वैसे आपस में मार-धाड़, टांग खिंचाई, बड़ों की छोटी बातें, रूसने-मनाने का मौसम तो चलता ही रहता है लेकिन गंभीर चर्चा के लिए लाफ्टरमैन की नियुक्ति जैसे करतब ‘चेहरा, चाल, चरित्र की प्रमुखता देने वालों की सर्कस का मुख्य आकर्षण बना हुआ है। छोटे दलों में भी सर्कस के बड़े-बड़े दृश्य है। लाल झण्डे का रंग बेशक उड़ गया लेकिन सर्कस में उनके करतबों की कमी नहीं है। छोटे चौधरी तो किसी भी सर्कस कम्पनी के साथ मिलकर करतब दिखाने को तैयार हैं बशर्ते उन्हें रिंगमास्टर मान लिया जाए। मुलायम का अमर- प्रेम एक सिंह अर्थात् स्टंटमैन का दूसरे सिंह के लिए प्रेमालाप हैं या विदूषक का, वे स्वयं ही बता सकते हैं।
कहाँ तक गिनाये, नीचे से ऊपर तक राजनीति का हर रंग बदरंग है। विचारधारा, आदर्शों का स्थान नट, जोकरों के कौशल ने ले लिया है। राजनीति को सर्कस बनाने वालों को कौन समझाये कि सर्कस के भी कुछ नियम, कुछ मर्यादाएं होती है। जोकर का काम रिक्त स्थान की पूर्ति होता है। यदि वह ही मुख्य भूमिका में आ जाए तो सर्कस ‘कर्कश’ ही बनेगी। यदि यहीं नियम राजनीति पर भी लागू कर देखें तो समझा जा सकता है कि नेतृत्व को मशखरेपन से बचते हुए गंभीरता क्यों दिखानी चाहिए? बिना गंभीरता देश के समक्ष चुनौती के समाधान की बात सोची भी नहीं जा सकती। नेता केवल सर्कस ही करते रहे तो देशद्रोही, आतंकवादी, नक्सलवादी, अपना खूनी खेल खेलते रहेंगे। भ्रष्टाचार से जंग किसी जंग खायी हुई किसी बेकार तलवार का रूप ले सकती है। गरीबों की स्थिति, विकास की चुनौती, अर्थव्यवस्था का सकंट किसी मेले में लगी सर्कस के हवाले नहीं किया जा सकता। राजनीति का अर्थ ‘जैसे भी हो, राज करना है’ बनाने वालों को अपनी सोच बदलनी चाहिए। राजनीति को मानवीय मूल्यों की रक्षा करते हुए निजहित त्याग कर समाजहित के लिए कार्य करने का माध्यम होना चाहिए। विफलताओं के लिए एक दूसरे को दोषी ठहराना लेकिन मौका पड़ते ही स्वयं भी वैसा ही आचरण करने की प्रवृति त्यागनी होगी।
यह सत्य है कि राजनीति में आने वालों से साधु-सन्तों जैसे व्यवहार की कामना नहीं की जा सकती लेकिन गंभीर समस्याओं के रहते सर्कस के जोकर जैसी भूमिका को भी ज्यादा देर तक बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया अर्थात आतंकवाद को राजनीति का हथियार बनाने वालों का ‘दिग्दर्शन’ न रोका गया तो यह निश्चित है कि दोषियों को नियंत्रित कर पाना संभव नहीं होगा। भ्रष्टाचार पर दोहरे आचरण वालों का स्वयं को ‘सबसे अलग पार्टी’ बताना जनता की नजरों में उसे और गिरा सकता है। गलत, गलत है। अपना करें या गैर, उसे सहन नहीं किया जाना चाहिए। यदि हम वास्तव में गंभीर हैं तो अपने आंचल पर लगे छोटे से छोटे दाग पर हमें अपराधबोध होना चाहिए, अन्यथा हमारा नैतिक अभियान ढोंग ही साबित होगा। देश के सभी दलों को राजनीति के अवमूल्यन पर आत्मचिंतन करना चाहिए। लगातार गिर रही राजनीति की साख को बचाने के लिए जरूरी है कि जोकर टाइप लोगों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। बिहार की जनता ने एक उदाहरण सारे देश के सम्मुख प्रस्तुत किया है। आशा है मध्यप्रदेश के जोकर ‘जी’ को भी जनता की मार पड़ेगी और कर्नाटक का भ्रष्टाचारी भी अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यह याद रखना जरूरी है कि बिना साधन शुद्धि के किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। आज की राजनीति में चहूं ओर दिखाई दे रहा ह्रास अशुद्ध साधनों और अगंभीर विचारों के घालमेल का परिणाम है। क्या हमारे राजनैतिक दलों के आका स्वयं को सर्कस का नहीं, सदचरित्रता का राष्ट्रनायक बनाना चाहेंगे? आज का यक्ष प्रश्न यही है। फिलहाल उत्तर मौन है क्योंकि सर्कस जारी है। हर तरफ। हर समय। हर मंच पर। लगातार।

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