ढोंग नहीं, ढंग कहिये जनाब! Dong nahi, Dang

ढोंग हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। जमाने भर की हर मुसीबत से बच निकलने का महामंत्र है। यह ऐसा रक्षा कवच है जिसे ब्रह्मास्त्र भी नहीं काट सकता। लेकिन समस्या यह है कि इसे रखैल की तरह रखना तो सभी चाहते है कोई भी इसे अपने नाम के साथ जोड़ना स्वीकार नहीं करता।
बचपन से जवानी तक ढोंग ही तारणहार है। जरा सा सिरदर्द या पेटदर्द का ढोंग बच्चे को स्कूल की कैद से छुटकारा दिलवा सकता है। मजेदारी यह है कि दुनिया का बड़े से बड़ा डाक्टर भी इस ढंग (ढोंग) को नहीं पकड़ सकता। कुछ बड़े होने पर स्कूल की बजाय बाहर क्लास लगाने वालों को जब परीक्षा में फेल होने पर लानत-मलानत का भय सताने लगता है तो बचाव का केवल एक ही उपाय सूझता है। ‘चक्क्र आते हैं’ की चक्रधन्नी घुमाकर वे फटकार की बजाय सहानुभूति के पात्र बन सकते हैं। अब आप उसे ढोंग कहकर उसका अपमान करना चाहे तो इसे आपकी धृष्टता के अलावा और क्या नाम दिया जा सकता है?
अपने जीवन को सहज बनाने के लिए मुझे भी ऐसे अनेक ढंग (ढोंग) सीखने पड़े। वैसे आपकी जानकारी के लिए इतना भी बता दूं कि इन गुणों की आपमें भी कमी नहीं है। हाँ, सुविधा के लिए इन्हंे संस्कार का नाम देकर आप कुछ राहत जरुर प्राप्त कर रहे होंगे।
कभी-कभी लगता है कि ढोंग हमारा राष्ट्रीय चरित्र है। हम सभी एक-दूसरे से होड़कर रहे हैं। क्या यह गलत है कि हम कन्या-पूजक हैं लेकिन कन्या भ्रूण हत्या से भी हमें परहेज नहीं। हम नदियों को पवित्र मानते हैं लेकिन जमाने भर की गंदगी उनमें बहाते हुए हम झिझकते तक नहीं। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से बढ़कर है’ के गीत गायंेगे लेकिन जननी को ओल्ड होम नहीं तो घर के ओल्ड सामान की तरह किसी कोने में प्रतिष्ठित करेंगे। एक बार विदेश की धरती पर पैर रखते ही जन्मभूमि को गरियाने में हमारी बराबरी कौन कर सकता है।
आज नेता-अभिनेताओं को प्राप्त प्रसिद्धि और पैसे का एकमात्र कारण तलाश रहंे हो तो जान लो ढोंग देवता की कृपा से ही उन्हें सब कुछ प्राप्त हुआ है। इनका ढोंगी चरित्र जगजाहिर है। बाहर फुल, अंदर फुस्स। हर क्षण नया रूप धरने में माहिर हमारे नेताओं की महिमा अपरमपार है। इनकी माया सात समुद्र पार के बैंकों में भी देखी जा सकती है। इसीलिए तो जिसे देखों, वही नेता बनने की फिराक में है। बहुत बड़ा न सही, कम से कम गली-कूचे की नेतागिरी की जुगाड़ तो भिड़ा ही रहा है। सितम (ढोंग) यह देखिये कि हम सभी नेताओं को कोसने में फिर भी कोई कमी नहीं छोड़ेंगे।
नारी स्वतंत्रता के हम पक्षधर है लेकिन इसका अर्थ वह नहीं जो आप समझने की भूल कर रहे हैं। वास्तव में हम अर्धनग्न चेहरों का स्वतंत्रता पूर्वक अवलोकन करने की स्वतंत्रता चाहते है। अगर चार पैसे हाथ लग जाये तो हर रात नवशयन की सुविधा को भी उपरोक्त का अंग माना जा सकता है। बाल मजदूरी के हम विरोधी हैं लेकिन अपने घर में ‘छोटू’ रखते है। मनुष्य और मनुष्य में किसी भी प्रकार के भेदभाव को हम स्वीकार नहीं करते। समान सम्मान दिलाने के लिए हम किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि अपने से छोटे लोगों और नौकर-चाकरों को डाटने-फटकारने का हमारा अधिकार समाप्त हो गया।
हम भाग्यवादी नहीं, कर्मफल में विश्वास रखते हैं इसीलिए तो अपने से कमजोर के कर्म के फल बटोरना हमारा प्रिय शौक है। सिद्धांतों के मामले में सारी दुनिया में हम अपना झंडा सबसे ऊंचा रखते है जो अकारण नहीं है। चोर को सख्त से सख्त सजा देने के पक्ष में हमारी आवाज सबसे बुलंद होती है लेकिन अपने या अपनों के मामले में हम माखनचोर को आड़ बना लेते हैं। ऐसे में अपराध धार्मिक कृत्य बन जाता है। हाँ, इतना सनद रहें कि यदि फिर भी जाल में फंसने की संभावना खत्म न हो तो इसे छोटी- मोटी भूल का नाम देकर अपना पिंड छुड़ाने को भी हम तैयार हैं। क्या आप अब भी ढोंग और ढंग के सूक्ष्म अंतर को नहीं समझ पा रहे हैं?
टैक्स चोरों और कालाधन बटोरने वालों को सरेआम फांसी देने में हम अन्ना से बाबा तक हर स्वर में स्वर मिलाते हैं लेकिन खुद टैक्स बचाने की जुगत भिड़ाते हैं। मामला फंसते ही ले-दे कर काम चलाने में विश्वास करते हैं क्योंकि हम व्यवहारिक हैं। चतुर और ईमानदार भी। क्या आप नहीं जानते कि जो फंदे से बचा रहे वह ईमानदार और जो अपनी नासमझी से गलती के निशान छोड़कर फंस जाए वह बेईमान, चोर। कुल मिलाकर बात फिर ढंग और ढोंग के बीच अटक जाती है।
पेट भरने के लिए किसी को ‘कुछ उपाय’ बताकर उससे कुछ ले लेने वाला ढोंगी। लेकिन वही जब टीवी पर पहुँच जाए तो बाबा। वाह इसे कहते हैं सूझबूझ! जब कोई हमारे सामने ज्ञान की बात करना चाहें तो बकवास। आखिर हमारे पास इन फालतू बातों को सुनने का समय है ही कहाँ। ....और यदि वहीं व्यक्ति टीवी तंरगों पर सवार होकर हमारे ड्रांईग रुम में आ धमके तो हम सब काम छोड़कर उसे सुनेंगे, सराहेगे। समाज और परिवार को तोड़ने वाली एकता भी हमारी प्रिय हो जाती है। आखिर हम नहीं तो कौन बढ़ाता है उसकी टीआरपी?
हम राष्ट्र-भाषा हिन्दी को देश की एकता का मंत्र घोषित करते नहीं थकते लेकिन अपने बच्चांे को अंग्रेजी स्कूलों में भिजवाते हैं। नामी स्कूल में दाखिले के लिए मोटी रकम कुर्बान करने को भी तैयार लेकिन गीत गाएगे, ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझ पे सब कुर्बान!’
और तो और, हम पाप करते हुए भी देवी-देवताओं का नाम लेते हुए नहीं डरते। अपनी जीभ के स्वाद के लिए किसी निरीह पशु की बलि देने वालों को तो आप ढोंगी कहने की हिम्मत भी नहीं कर सकते क्योंकि मामला धार्मिक आस्था का है। लेकिन अपने आपसे एक सवाल जरूर पूछ सकते है कि जब सब जीव एक ही परमात्मा की संतान है तो क्या कोई पिता अपने ही बच्चों की जान लेकर खुश हो सकता है? कबीर बाबा तो कब से कह रहे हैं, ‘एक खून एक बंदगी, ये कैसी खुशी खुदाय।’ लेकिन हम अनसुना कर रहे हैं। उसपर भी आश्चर्य यह है कि हम कबीर को खूब पढ़ते हैं। उससे भी बढ़कर खूब सराहते है। उन्हें समाज का उद्धारक बताते है लेकिन .....! खैर बात कबीर जी की चली है तो याद आता है कि वे कहा करते थे, ‘पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहाड।’ वे मूर्तिपूजा के पक्षधर नहीं थे लेकिन स्वयं को उनका प्यारा घोषित करने वालों ने उन्हीं की मूर्तियां खड़ी कर दी हैं। क्यांे, क्या यह सोचना मना है कि यदि आज स्वयं कबीरदास जी हमारे बीच आ जाये तो वे अपने चाहने वालों से खुश होगे या नाराज?
शांति के लिए बम चलाने वालों को आप किस श्रेणी में रखना चाहेगे? विश्वयुद्ध से हो रहे विनाश को रोकने के लिए परमाणुबम इस्तेमाल करने के तर्क के सामने तो ढोंग शब्द भी छोटा है। कल जिन तालिबानों को दूध पिलाकर विश्व दादा ने पाला था आज वही उनका खून बहाने में सबसे आगे है। पर माफ करना वे खुद को ढोंगी नहीं, अमेरिकी कहलाना पसंद करते है।
...और फिर समरथ को नाही दोष गोसायी की बात तो हमारे बड़े-बूढ़े ही सिखा गये हैं। याद नहीं है भेड़िये और मेमने की कहानी? ‘अगर तू नहीं तो तेरे बाप ने किया होगा मेरा पानी झूठा’ कहकर जिसकी चाहे गर्दन मरोड़ दो। लेकिन गरीब को तो अपने जीने के अधिकार भी याद रखने की मनाही है। गरीबी में बिना दवा के बाप मरा तो मरा, अब तुम भी मरो उसका श्राद्ध करने के नाम पर। क्या कहा? पैसे नहीं है। कोई बात नहीं, घर जमीन, जो है रखों गिरवी और जिमाओं गांव बिरादरी को वरना पितरों के श्राप से दरिद्र हो जाओंगे। दरिद्र बनने से बचने के लिए महादरिद्रता की ओर धकेलना हमारे समाज का ढंग है। आप कौन होते है उसे पुत्रधर्म का पालन करने से रोकने वाले? चुपचाप दावत उड़ाओं और पाप-पुण्य की धूल उड़ाकर लौट जाओ अपने अगले शिकार की तलाश में।
इस देश में अक्सर बेरोजगारी पर चर्चा होती है। मैं पूछता हूँ, खाली कौन है? जरुरत के समय ढंग का आदमी नहीं मिलता। दफ्तर में आधी कुर्सियां खाली नजर आती है। फाइल आगे ही नहीं सरकती क्योंकि सरकाने वाले खुद ही सरके हुए है। क्या कालेधन पर नीले-पीले होने वालों को नहीं मालूम कि काला टांगा ही इसलिए जाता है ताकि नजर न लगे। आग लगे जमाने को जो काले पर भी नजर लगाने को तैयार बैठे हैं। वैसे चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि काली कंबली पर इनका रंग चढ़ने वाला नहीं है। काली भेड़ों का बहुमत है, उन्हें ढोंग की भी जरुरत नहीं। सीधे ढंग से ही खुद को बचा ले जाएगे। दिन के उजाले में थोड़ी बहुत शर्म रह ही जाती इसलिए रात के अंधेरे में भी लाठियां बरसाने को तैयार है।
आप पूछ सकते हैं कि ढोंग पर इतने पुष्प बरसाते हुए अंधविश्वास, जादू-टोने, पाखंड, ढकोसले आदि को उपेक्षित क्यों छोड़ दिया गया है। आपकी शिकायत सिर-आँखों पर। परंतु क्या आपने इन सभी की खंड-खंड करने वाली योग्यता का मूल्यांकन नहीं किया है? ध्यान से देखों, ये सभी एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं। इनका डीएनए भी एक ही है। जिन्हें अपने पुरूषार्थ पर विश्वास रखने की योग्यता नहीं होती, उनका व्यक्तित्व खंडित होता है तो व्यवहार पाखंडी अर्थात् ढोंगी। वहीं जादू-टोटके का जाल फैलाते हुए उसमें खुद फंसे नजर आयेगे।
इससे पहले कि ढोंग पुराण ज्यादा लम्बा हो जाए और मेरे साथ-साथ आप संपादक जी को कोसने लगे मैं अपने बचाव का कोई ढंग सोच रहा हूँ लेकिन अक्ल है कि घास चरने चली गई। यदि आपको कोई बढ़िया सा बहाना सूझे तो मेरे नाम से संपादकजी के पास भेज सकते हैं। अब तो मान ही लो कि यह संसार वृथा है का एकमात्र भाव यही है कि यहाँ भिखारी ढोंगी हैं तो दाता (सरकार) उससे भी बड़ा ढोंगी। भक्त ढोंगी है तो स्वम्भू भगवान ढोंग के पीएचडी। अपराध ढोंग है तो सदियों तक लटका रहने वाला न्याय महाढोंग। अरे वह तीर्थ ही क्या, जहाँ पंडे न हो। वह पंडा ही क्या जो ढोंगी न हो। वह ढोंग ही क्या जो खाने-कमाने का सफल ढंग न हो। मैं भी कब से इस ढोंगघाट पर अपनी पंडागिरी कर रहा हूँ। अब देखना यह है कि मानदेय से कुछ दिनों के खाने-पीने का ढंग होगा भी है या नहीं?
चलते-चलते चर्चा अमेरिका से लौटी अपनी पड़ोसन की। मिलने पर पूछा, ‘कहो कैसी रही यात्रा?’’ सुनते ही लगी सुनाने गोरो की काली करतूतें। ‘बेटी कैसी हैं? के जवाब में दामाद की खूब प्रशंसा करते हुए बोली, ‘बहुत अच्छा है। सुबह बेटी के उठने से पहले चाय बनाकर रखता है। घर के कामों में सहयोग करता है। बेटी बहुत सुखी है।’ बेटे की चर्चा करते हुए टसुये बहाते हुए बोली, ‘बेटा बहुत दुःखी है। उसकी पत्नी उससे घर का काम करवाती है। हर सुबह वही पत्नी को चाय बनाकर पेश करता है। वगैरह-वगैरह।’
मेरी पडोसन का दर्द जायज मालूम पड़ता है। लेकिन मैं सोच रहा हूँ कि आखिर हम से बड़ा ढोंगी इस दुनिया में कौन हो सकता है। घर में हर चीज विदेशी रखना हम अपनी शान समझते हैं लेकिन अपने बच्चों में भारतीयता के संस्कार ढूंढेगे। खायेगे देशी गेहूं, देशी घी लेकिन पहनेगे विदेशी। पढ़ेगे विदेशी। बच्चों को पढ़ने के लिए भेजेगे भी विदेश। ....और यदि बच्चा वहाँ जाकर फिसल गया यानी अपनी मर्जी से बहू ले ही आया तो उसे विदेशी बताकर पचास रुकावटंे खड़ी करेगे। यह हमारा ढंग है या ढोंग, कोई भी जान नहीं सकता। ईश्वर करे जान भी न पाये वरना प्याज के छिलकों की तरह हमारे चेहरे से मुखोटे उतरने लगेगे। इसलिए ढोंग का नाम लिए बिना कोई ऐसा ढंग निकालो जिससे लाठी चाहे सौ टूट जाए मगर गले पड़ा सांप जरूर सलामत रहे ! Vinod Babbar

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