भींगती स्वतंत्रता bhigti swatantrtaa


हिन्दुस्तान का भाग्य विधना ने फुर्सत में ही लिखा था इसीलिए तो हमारा गणतंत्र ठिठुरता है तो स्वतंत्रता भींगती है। गणतंत्र की 26 जनवरी शीतलहरी की तरह अपनी चपेट में लेने को आतुर रहती है। सूर्य देवता अक्सर धुंध-कोहरे की ओट में मुँह छिपाये रहते हैं। गणतंत्र की गरिमा को कायम रखने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के बाद भी मौन रहने वाला गण ठिठुरते-ठिठुरते सदा-सदा के लिए मौन हो जाता है तो यह तंत्र की नहीं, विधि की त्रासदी मानी जाती है।
स्वतंत्रता ने 15 अगस्त को अपनी पहली दस्तक दी होगी तो वह भी चहूं ओर कीचड़, दल-दल देखकर ठिठकी होगी। उसने अंग्रेजों के साथ-साथ अपनों को भी कोसा होगा, काश! थोड़ी समझदारी दिखाते तो कम-से-कम भरी बरसात से बचा जा सकता था। बरसात भी एक तरह की होती तो निपट लेते। विभाजन के नाम पर खून की नदियां बह निकली। पंचनद रक्तरंजित हो गया। कितने मरे, कितने बिछुड़े, कितनों का मान -भंग हुआ, इसका हिसाब रखने वाले आँसूओं के समुन्द्र में डूब गये। लगा जैसे स्वतंत्रता यमराज की पुत्री हो। जिनकी जन्मभूमि, कर्मभूमि, जमा-जमाया काम-धंधा, घर बार छिन गया उन्होंने तो इसे स्वतंत्रता माना ही कब। वे तो इसे प्रलय ही घोषित करते रहे। हाँ, उस रात भारत का भाग्य विधाता बनने वालों ने जब यह घोषित किया कि- आज आधी रात जब सारी दुनिया सो रही है, भारत में एक नया सवेरा हो रहा है, तो लुटे पिटे लोगों को आशा बंधी कि आजादी ज्यादा देर तक नयनों को नहीं भिंगों सकेगी। लेकिन भींगना तो जैसे भारत की नियति बन गई। तबसे आज तक हम लगातार भींग रहे हैं क्योंकि स्वतंत्रता की नाजायज संतान के रूप में उसी दिन जन्म लेने वाला ‘ना-पाक’ हमारे जख्मों को लगातार हरा रखे हुए है। जख्म रिसते हैं तो भींगने- भिंगोने का समा बन ही जाता है।
15 अगस्त भी तो हर बार बरसात में आता है। यकीन न हो तो कल फिर देख लेना, लालकिले पर छातों की भरमार होगी। छातों का भी अपना महत्व है। देश की जनता को निडर बनने की सीख देने वाले लालकिले की प्राचीर पर जलवा फरोश होंगे तो उन्हंे सिर पर कपड़े का तो सीने के सामने बुलेटप्रूफ शीशे का छाता लगाये देखा जा सकता है। मंच के दायीं-बायीं ओर विराजित महापुरूष भी बरसात से भींगने से बचने की तैयारी अपने साथ रखते हैं लेकिन कभी-कभी बरसात की कमी उमस पूरी कर देती है, जब सभी पसीने से तर-बतर होते हुए भी तीन बार जय हिन्द का नारा लगाकर देशभक्त होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि भींगने-भिंगाने का काम बरसात से ज्यादा पसीना करता है। जब हमारे पराक्रमी नेता अपनी योग्यता-क्षमता का प्रदर्शन कर घोटालों की सूची को दिन-दोगुनी, रात चौगुनी लम्बी करते हैं तो जनता शर्म से पानी-पानी भी होती है। दुनिया में देश का नाम बेशक रसातल में जाये लेकिन बेशर्मों के चेहरे की चमक कभी फीकी नहीं पड़ती। जबकि जनता-जनार्दन को काटो तो खून नहीं। जिन्हें अपनी कथनी-करनी के कारण शर्म से पानी-पानी होना चाहिए वे नये-नये तर्क प्रस्तुत करते हैं।
स्वयं को नैतिकता का झंडाबरदार घोषित करने वाले ‘गड़करी’ से कहलवाते हैं- हमारे ‘उनका’ कृत्य अनैतिक बेशक हो लेकिन असवैधानिक नहीं है। यानि असंवैधानिक होना अपराध है लेकिन अनैतिक पुण्यकर्म। जनता इस ‘नितिन ज्ञानामृत’ को सुन पसीने से ज्यादा आत्मग्लानि से भीगती है। शहजादे को विपक्षी राज के गरीबों-किसानों की इतनी चिंता है कि दिन-रात पसीने में भींगते हैं जबकि पड़ोस की अपनी सरकारों के पाप उनकी आँखों को भी नहीं भिंगो पाते।
यह लोकतंत्र का चमत्कार है या गलत मुहूर्त पर आई स्वतंत्रता की महिमा कि हमारे देश में सूखा और बाढ़ साथ-साथ चलते हैं। बातों के धनी, हवा में गांठ लगाना तो जानते हैं लेकिन नदियों को जोड़ने की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़े। ऐसे में कहीं बाढ़ प्राण ले रही है तो कहीं पानी के नाम पर खून बहाया जा रहा है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि हमारे नेता कभी पसीना नहीं बहाते। विपक्ष में हो तो दिन-रात एक कर संसद् से हर विधानसभा तक गलाफाड़ प्रतियोगिता करते हैं। वातानुकुलित कक्षों में बैठकर गरीब की चर्चा करने का आनंद ही कुछ अलग है। वर्षा के मौसम में तो संसद से विधानसभा तक वर्षाकालीन सत्र होते हैं। बाहर मैदान भींगे या न भींगे लेकिन सदन आरोप-प्रत्यारोपों से सराबोर हो जाता है।
भ्रष्टाचार भी कभी हमें शर्मसार किया करता था लेकिन आज इसके समुद्र में डूबे महापुरूष भी स्वयं को भीगा हुआ अनुभव नहीं करते हैं जबकि आम आदमी खाली पेट, फटेहाल, बिना छत के होते हुए भी बरसात से नहीं तो शर्म से पानी-पानी अनुभव करता है। प्याज भी मौका-बे-मौका लाल होता रहता है। लेकिन प्याज का गुस्सा गरीब की आँखों के साथ-साथ उसकी खाली थाली को भी भिंगोता है। जब महंगाई अपने रंग में आती है यानी दालों के भाव आसमान को छूने लगते हैं आम आदमी के पास दाल पतली करने के अतिरिक्त विकल्प ही कहाँ होता है यानि बात फिर भी भिंगोने तक पहुँच गई।
स्वतंत्रता ने हर सरकारी दफ्तर को गरिमा दी है इसीलिए तो जिसे देखो वहीं ‘तर’ है। आज इन्कम टैक्स के छापें में दो-चार,दस बीस लाख बरामद होना शर्म की बात मानी जाती है-कितना टटपुंजिया -मात्र लाखों की गिनती। सौ करोड़, हजार करोड़ के घोटाला को ही घोटाले की मान्यता मिलती है तो केवल इसीलिए कि स्वतंत्रता मिली ही भींगने, भिंगोने के लिए है। बेकसूर पानी की एक बूंद को भी तरसे जबकि दागी-बागी सीलबंद बोतलों से नहा सकंे। पानी के टेंकर की इंतजार में लोग घंटों पसीने से भींगते रहे लेकिन अपने राम तो अपने फार्म हाऊस से हर कोठी तक स्विमिंग पुल जरूर बनवायेंगे। अरे जनता के भाग्य में पसीने से भींगना है तो वे आनंद ऐश्वर्य से भींगने का मौका क्यों छोड़े। भींगने का मजा लेना हो तो स्वयं को हर चिंता, तनाव से स्वतंत्र करना पड़ेगा। यदि अपनी सेवा करवानी हो तो जमाने भर की चिंता के नाम पर घड़ियाली आँसूओं से कम-से-कम अपनी आँखों को तो भिंगोने का अभिनय तो करना ही पड़ेगा। स्वतंत्रता भींगने-भिंगोने का उत्सव है। सोचता हँू अच्छा होता स्वतंत्रता होली के आसपास अपना जन्म दिन मनाती तो न चाहते हुए भी हम भी भींग लेते- किसी काले कीचड़ से ही सही। जिन्हें इत्र के सरोवर में डुबकी लगाने का अवसर मिला है वे मेरी बात से सहमत नही होंगे। खैर उन्हे ंस्वतत्रंतापूर्वक मौज मस्तियों के लिए भींगना मुबारक और हमें काल के क्रूर पहिये तले अपना खून बहाना।
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