जागरण का महापर्व

जागरण का महापर्व
जागरण अर्थात चेतना जीवान्तता की पहली शर्त है। यूं तो सभी जीवों में चेतना होती है लेकिन जागृत चेतना केवल मनुष्य में ही संभव है। जागृत चेतना का अभिप्राय अपने परिवेश की हलचल के प्रति सजग रहते हुए अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के गौरव को सुरक्षित रखने का चिंतन के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो ही नहीं सकता? यह भी सत्य है कि अपने चिंतन, सजगता और कर्मठता से मानव सदियों से यह उपक्रम लगातार करता आ रहा है। यहाँ निजहित के लिए समाज और राष्ट्र को क्षति पहुंचाने वाली मानसिकता आत्मकेन्द्रित अधिनायकवाद मानी जाती है। उसे भ्रष्टाचार घोषित किया गया है। दुराचार माना गया है। ... और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसा मानवता विरोधी है। अनैतिक है। हाँ, कुछ लोग अनैतिकता और असंवैधानिकता की चर्चा करते हुए अनैतिकता को छोटी सी भूल और असंवैधानिकता को महान अपराध घोषित कर सकते हैं, जबकि अनैतिकता से बड़ा अपराध कोई हो ही नहीं सकता। गैरकानूनी को तो थोड़े से दण्ड के साथ बदला भी जा सकता है लेकिन अनैतिकता का प्रायश्चित आसान नहीं है। इसीलिए तो अनैतिक लोगों का अन्यायी और क्रूर हो जाना आम बात है। रावण और कंस के कृत्य असंवैधानिक शायद ही हों क्योंकि वे स्वयं को अपना और दूसरों का संविधान समझते थे। भाग्य विधाता मानते थे लेकिन इतिहास उन्हें अनैतिक तथा अन्यायी मानता है।
... और यह भी इतिहास के स्वर्णिम अध्यायों में दर्ज है कि इन आतातियों से जनसाधारण को बचाने के लिए भगवान ने स्वयं अवतार लिया। ‘यदा यदा हि धर्मस्य...’ का उद्बोध करने वाले योगेश्वर श्रीकृष्ण की समस्त लीलाएं अन्याय और अत्याचार का नाश करने के लिए ही हुई।
जन्माष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के प्रकटोत्सव का पावन दिवस है तो जागरण का पर्व भी। श्रीकृष्ण को दुनिया का प्रथम सत्याग्रही, प्रथम समाजवादी, प्रथम अवज्ञा आन्दोलन कर्ता माना जा सकता है। ब्रज के समस्त ग्वालों को अपना दूध, दही, मक्खन आततायी कंस को भेजने की विवशता थी लेकिन मेहनतकश भूखा रहे और अन्यायी माखन खाये की अवधारणा बाल कृष्ण को कदापि स्वीकार नहीं थी। दुनिया उसे लाख माखन चोर, मटकी फोड़ कहें लेकिन उनका दर्शन स्पष्ट था- मेहनत करने वाले का संसाधनों पर पहला हक है। यह द्वापर युग की विशेषता थी कि उन्हें वोट बैंक की चिंता नहीं थी वरना वे भी आज के राजनेताओं की तरह संसाधनों पर मेहनतकश की बजाय एक जमात का पहला हक बताते। यह उनका सत्याग्रह था अथवा अवज्ञा आंदोलन, इसका फैसला आप स्वयं कर सकते हैं कि उन्होंने अपने ग्वाल-बाल सखाओं सहित उस क्षेत्र से बाहर जा रहे दही-माखन की मटकी फोड़कर कंस के अन्याय, भ्रष्टाचार का विरोध किया था।
इस दृष्टि में श्रीकृष्ण प्रथम धरती पुत्र भी कहे जा सकते हैं। उन्होंने अपनी लीलाओं से ‘भागो मत- मुकाबला करो और स्वयं के भाग्य विधाता बनो’ का संदेश दिया जो आज भी उतना ही प्रासंगिक एवं सार्थक है। लोकतंत्र को बेशक कुछ लोग आधुनिक शासन प्रणाली घोषित करते हों लेकिन ‘स्वयं के भाग्य विधाता बनने’ की श्रीकृष्ण की इस अवधारणा को लोकतंत्र के अतिरिक्त और कहा भी जाए तो क्या?
आज जिस प्रकार से कृष्ण की इस धरती पर अन्याय, असमानता, भ्रष्टाचार है। मेहनतकशों का हक मारा जा रहा है। कर्ज तले दबे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। श्रीकृष्ण और उनके दर्शन की आवश्यकता पहले से भी ज्यादा है। ऐसे में प्रथम प्रश्न यह है कि क्या हम इस अव्यवस्था, अन्याय और भ्रष्टाचार को अपना भाग्य समझकर चुपचाप सहन करते रहें? क्या अकर्मण्य होकर फिर से किसी अवतार की प्रतीक्षा करें जो हमारी लड़ाई लड़े? या कृष्ण सी चेतना के साथ स्वयं प्रतिकार के लिए उठ खड़े हो। शायद हम हर बार अवतार से ही समस्त आशाएं लगाये बैठे, पुकार रहे हैं-
चहूं ओर हाहाकर मचा है, कृष्ण मेरे तुम कब आओगे?
इंतजार में थक गई अंखिया, अब कितना तुम तड़फाओगे?
तो ऐसे लोगों को स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म करने का संदेश दिया है। अन्याय, अव्यवस्था से त्रस्त लोगों को याद रखना होगा- कृष्ण तुम्हारे अंदर बैठे, कभी उसे जगाकर देखो।
अत्याचार कहाँ बच पाएगा, थोड़ा जोर लगाकर देखो।
श्रीकृष्ण ने अन्याय और अपमान को एक सीमा तक सहन किया लेकिन उसके बाद अपनी अंगुली पर सुदर्शन चक्र धारण कर दुष्टों का विनाश किया। आज की व्यवस्था में व्याप्त राक्षशी प्रवृतियों का सफयाया करने की शक्ति हम सभी में भी है बशर्ते हम भी मतदान के अवसर पर वोटिंग मशीन का बटन दबाते समय अपनी अंगुली पर सुदर्शन चक्र धारण करें। अन्यायी, अत्याचारी, भ्रष्ट चाहे किसी भी दल का हो उसका जड़मूल छेदन करने की कृष्ण चेतना हमारे हृदयों में भी स्थायी रूप से प्रतिष्ठित रहनी चाहिए। यह काम किसी एक रामदेव या एक अन्ना पर नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि सत्ता की शक्ति उन्हें खंदेड़ने में सहज सक्षम है। कोटि-कोटि अंगुलियों शक्ति और उसपर धारण किए गए संकल्प के सुदर्शन चक्रों के सम्मुख यह कार्य अत्यन्त सरल है। यह भी समझना जरूरी है कि किसी व्यक्ति विशेष की निष्ठा पर अति विश्वास घातक भी हो सकता है। यह कार्य हम सभी को ठीक उसी प्रकार से करना है जैसे इन्द्र के अहंकार को तोड़ने के लिए श्रीकृष्ण ने अपनी अंगुली पर गोवर्धन उठा लिया था लेकिन आम जनता में विश्वास उत्पन्न करने के लिए सभी से अपनी-अपनी लाठी लगाने को कहा था। यही श्रीकृष्ण की दूरदर्शिता और कूटनीति थी कि सभी ग्वालों में चेतना का संचार हुआ और इंद्र का घमंड चूर-चूर हो गया। आज भी स्वयं को श्रेष्ठ और शक्तिशाली समझने वालों के दंभ को तोड़ने के लिए सभी को सबक लेना होगा।
श्रीकृष्ण जहाँ अत्यन्त सरल हैं, सत्याग्रही हैं वही दुष्टों के प्रति अत्यन्त कठोर भी हैं। वे जानते हैं कि आततायी शक्तियों के असीमित बल को तोड़ने के लिए ‘नरों वा कुंजरो वा’ भी आवश्यक है। आलोचक इसे सच-झूठ के द्वंद्व में उलझाते रहें लेकिन श्रीकृष्ण तिनके को चीरकर दुर्याेधन पर प्रहार का उपाय बताने से भी पीछे नहीं हटते क्योंकि सभी के लिए सुख और शांति उनका ध्येय है।
श्रीकृष्ण द्वारा कालिया दलन पवित्र संसाधनों के शुद्धिकरण का अभियान था। नदी पर काबिज कालिया से यमुना को मुक्त करवाने निहित संदेश को समझना जरूरी है। आज भी यमुना, गंगा, सहित सभी पवित्र नदियों पर फिर से काबिज कालिया (प्रदूषण) से मुक्ति की युक्ति लगाये बिना हम कृष्ण के उत्तराधिकारी अथवा उनके भक्त होने का दावा नहीं कर सकते। श्रीमद्भागवत गीता के 12वें अध्याय में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भक्त की विशेषता दर्शाते हुए स्पष्ट कहा है- उसे निरपेक्ष शुद्ध और दक्ष होना चाहिए। मैत्री और करूण से युक्त होना चाहिए अर्थात, किसी अंधभक्त, पागल, नासमझ को वे अपना भक्त स्वीकार नहीं करते।
भारत भूमि का हर नागरिक वह चाहे किसी जाति, धर्म, सम्प्रदाय भाषा-भाषी है, राम और कृष्ण का उत्तराधिकारी है। वे हम सभी के पूर्वज हैं। उनके भी, जिनके पूर्वजों ने कुछ पीढ़ी पहले पूजा पद्धति बदल ली थी लेकिन पद्धति बदलने से किसी के पूर्वज नहीं बदले जा सकते। इस अर्थ में श्रीकृष्ण का सच्चा उत्तराधिकारी वही हो सकता है जिसमें कृष्ण चेतना का ऐसा जागरण हो जो अपने चहूं ओर बहुसंख्या में व्याप्त अर्जुनों के विषाद को भी दूर भगा सके।
जन्माष्टमी श्रीकृष्ण का प्रकटोत्सव दिवस है इसलिए उनके मानुषी अवतार लेने के एजेंडे को फिर से समझना सामयिक होगा। उन्होंने दुर्जनों का विनाश, साधु पुरूषों का परित्राण, धर्म (विधि व्यवस्था) की स्थापना जैसे सापेक्ष उद्देश्य को आगे बढ़ाया। आज की स्थिति भी इससे बहुत भिन्न नहीं है। अन्याय, असमानता, अव्यवस्था, महंगाई, भ्रष्टाचार, जैसी असुरी शक्तियां समाज को सता रही हैं तो क्यों न हम अपने हृदय में विराजमान श्रीकृष्ण का स्मरण कर कृष्ण चेतना का जागरण करें। ध्यान रहे- अन्याय को सहने वाला भी कम दोषी नहीं होता। लोकतंत्र की शक्ति पहचानों। अपने हृदय में विराजे कृष्णत्व को पहचानों और सबसे पहले स्वयं के जागरण के लिए उद्घोष कर दो- उतिष्ठ भारत! तभी जन्माष्टमी अर्थात जागरण पर्व की सार्थकता होगी वरना औपचारिकता की लकीर पीटते- पीटते हम भी पिटते रहेंगे। अन्याय, अव्यवस्था जारी रहेगी, आततायी मौज करते रहेंगे और फिर भी अनाधिकारपूर्वक हम स्वयं को कृष्ण का उत्तराधिकारी घोषित करते रहेंगे। आखिर कब तक?
जागरण का महापर्व जागरण का महापर्व Reviewed by rashtra kinkar on 06:22 Rating: 5

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