भुक्खड़ का डीएनए # Bhukkhad



भुक्खड़ का डीएनए
पिछले दिनों एक कार्यक्रम में भाग लेने हिम्मतनगर (गुजरात) जाने का अवसर मिला तो एक स्थान पर ‘भुक्खड़’ का बोर्ड लगा देखकर चौंका। यह सर्वविदित ही है कि इंसान क्या हर जीव जन्म-जन्म का भुक्खड़ है। इस संसार में आते ही रोने लगता है। उसके रोने से मां समझ लेती है कि बेचारा भुक्खड़ है इसलिए उसका मुंह बंद करने के लिए दूध पिलाती है। सभ्यता का बेशक कितना भी विकास हुआ हो, इंसान चांद- सितारों से भी आगे जा पहुंचा हो लेकिन उसका  भुक्खड़पन खत्म होना तो दूर कम भी नहीं हुआ है। कभी पेट की भूख, तो कभी ज्ञान की भूख। कभी धन की भूख तो कभी सत्ता की भूख। कभी शान तो कभी झूठी शान, प्रतिष्ठा का भुक्खड़पन इंसान को इस गोल दुनिया में लगातार घुमाता रहता है। घुमाता रहता है। परंतु इंसान समझता है कि वह सबको घुमा रहा है। 
भुक्खड़ शब्द में अक्खड़ से उक्खड़ तक न जाने क्या-क्या शामिल है यह सोच कर सिहरन होती है इसलिए मैंने भुक्खड़ का समानार्थक शब्द क्या है यह जानने के लिए शब्दकोश टटोला तो सामने आया अगर संज्ञा है तो Guttler यानि चटोरा, पेटू, भुक्खड़। और अगर विशेषण है तो  gourmand यानि औदरिक, खाने पीने का शौकीन, भोजन पारखी,  अच्छे भोजन का प्रेमी, भुक्खड़। गुजराती में देखा तो ‘रसोई परीक्षक’। नेपाली में Gastronome तो तेलगु में Sapa और  uramu मिले। यह जानकारी भी मिली कि पंजाब में  ‘भुक्खी’ एक नशा है। जिसके धंधे में अनेक बड़े-बड़े मगरमच्छ भी शामिल हैं। इतने सब जानने के बाद भी जब बात नहीं बनी यानी बात स्पष्ट नहीं हुई कि भुक्खड़ आखिर है क्या तो मैंने अपने मेजबान से मौका मुआयना का अनुरोध किया जिसे उन्होंने तत्काल स्वीकार भी कर लिया।




खैर जनाब जब हमें अपनी कार को सुरक्षित विश्राम देने के लिए अनापत्ति (नो आब्जेक्शन) वाला स्थान मिल गया तो हम उस स्थान पर पहुंचे जहां ‘भुक्खड़’  का बोर्ड लगा था। आप जानते ही है आजकल कार पार्किंग बहुत बड़ी समस्या है। लगभग हर स्थान वहां रहने वाले अथवा व्यवसाय करने वाले के लिए आरक्षित है। स्थान देवताओं के आरक्षण के बीच बाहरी व्यक्ति के वाहन का रक्षण ठीक उसी तरह से हे जैसे अनेकानेक भुक्खड़ों के बीच अंगूर का एक दाना। ‘एक अनार सौ बीमार’ में भी उतनी खींचतान नहीं जितनी ‘एक अंगूर सौ लंगूर’ में हो सकती है। इकलौते अंगूर का स्वाद और रस तो शायद ही कोई चख सके पर उसे कुचलने के लिए उग्र भुक्खड़ मचलने लगते हैं।
ठीक ठाक पार्किंग हो गई यानी रस और स्वाद दोनो सुरक्षित रहे तो मन ने कहा, ‘भले लोग हैं यहां के’। मगर चतुर बुद्धि ने पासा फेंका, ‘अगर भले हैं तब भुक्खड़ क्यों और कैसे?’ मन की विशेषता है कि वह सबका मान रखता है इसलिए उसके प्रति जितनी भूख यानी प्रेम है उतनी बुद्धि की नहीं। मन ने बुद्धि को समझाया, ‘मूर्ख, सबसे बड़ी भुक्खड़ तो तू है जो इतना समझाने पर भी नहीं समझती कि भूख के साम्राज्य ने ही दुनिया की तस्वीर बदली है। भुक्खड़ों की भूख ने दुनिया के सबसे खूबसूरत महानगर बनाये और बसाये हैं। अगर भुक्खड़ न होते तो बुद्धि तेरी सारी अकड़ निकल जाती। तू और तेरी बांदी जीभ किसी कोने में बैठी अपनी हालत पर आंसू बहा रहे होते। ये जीभ तेरे इशारे पर कुछ भी कह देती है पर कुछ भी खा नहीं सकती। इस जीभ के चटखारे ही है जिसने इस दुनिया को इतना स्वादिष्ट बनाया है वरना खाने वाले तो चारे तक को खा जाते हैं। इतना याद रखना पेट के भुक्खड़ों से ज्यादा जीभ के भुक्खड़ होते है। उन्होंने ही छप्पन भोग क्या, छप्पन हजार व्यंजनों को सम्मान दिया है।’
बुद्धि और मन का छत्तीस का आंकड़ा होता है। बुद्धि भारी है पर जब बात स्वाद की हो तो मन की चलती है। इसलिए हमने भी मन की मानी और प्रथम तल पर स्थित भुक्खड़ रेस्टोरेंट में जा पहुंचे। नाम जरूर भुक्खड़  था पर रेस्टोरेंट में प्रवेश करते ही अपनी दीनता का अहसास हुआ। एक अति आधुनिक रेस्टोरेंट। शानदार साज सज्जा देख मुझे मास्को एयरपोर्ट का वह रेस्टोरेंट जहां कहीं ट्रक के टायर तो कहीं साइकिल टंगी थी। हालांकि मास्को के उस रेस्टोरेंट में पहुंचकर मुझे अपने देश के हर हाईवे पर स्थित ढाबे का स्मरण हो आया था जहां अनेको ट्रक खड़े होते हैं तो पास ही कोई टायर मरम्मत की दुकान होती है तो सड़क किनारे चारपाईयां बिछी होती है। जहां ट्रक के ड्राईवर कंडक्टर आगे बढ़ने से पहले भोजन और कुछ देर आराम करते है। पास ही रखी कुर्सियों पर कुछ लोग बैठे रास्तों पर चर्चा करते हैं।
मास्को को वहीं छोड़ बात इस रेस्टोरेंट की करें तो यहां भी रंग बिरंगी पोशाक में चुस्त-फुर्त वेटरों ने हमारा गुजराती, हिंदी के तटके वाली अंग्रेजी में हमारा स्वागत किया। उन्होंने हमें जो मीनू सौंपा उसमें न ढ़ोकला था, न खमण। न पातरा और न गोट्टा। न श्रीखंड, न मैसू की मिठाई। गुज
राती थाली का भी जिक्र तक नहीं। हां, पटेटो फिगर, पटेटो रोल, पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन और न जाने क्या-क्या। लेकिन उनका मूल्य देखा तो पहली बार ‘व्यंजन’ का अर्थ ठीक से समझ में आया। स्वाद की चाह में बुद्धि ने बताया कि व्यंजन में व्यय और अंजन दोनो शामिल हैं। मंजन दांत में तो अंजन आंख में लगाया जाता है। मंजन सस्ता होता है पर अंजन  की कीमत नहीं, क्वालिटी देखी जाती है। जाहिर है इसीलिए चुटकी भर अंजन का दाम बोरी भर अनाज से बढ़कर होता है। अगर भुक्खड़  में आम आदमी को खास व्यंजन के लिए कुछ अतिरिक्त व्यय करने पर आपत्ति है तो जाहिर है उस  आपत्तिकर्ता का भाषा विज्ञान के साथ-साथ व्यवहारिक ज्ञान से नाता कुछ कमजोर है।
बेशक हम भी एक कार्यक्रम से लौटे थे और हमारा पेट फुल था लेकिन भुक्खड़ की शरण में आकर भी अगर कोई बिन स्वाद चखे लौट जाये तो ये उसकी बदनसीबी ही होगी। आर्डर देने से पहले बुद्धि ने फिर टांग फंसाई, ‘भरे पेट क्या और कैसे खाओंगे? ऐसा करो  कि कल खाली पेट आयेगे तब....!’’ लेकिन  मन कहां मानने वाला था। बोला, ‘तू अपनी फिलोस्फी अपने पास रख। बस चाहे कितनी भी ठसाठस भरी हो पर कंडक्टर के लिए जगह बन ही जाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि किसी ऐसी वैसी जगह जाकर तो बेशक हम अपनी भूख छिपाये पर भुक्खड़ में जाकर भी यदि कोई अपने भुक्खड़पन को छिपाने की कोशिश करें तो उससे बड़ा बुद्धि-भुक्खड़ कौन होगा।’
सुनीलदास जी महाराज संग विदेशी स्टाइल के पटेटों फिंगर को हरी, लाल, पीली, चटनी में लपेट उचित अंजाम तक पहुंचाते हुए हमने भुक्खड़ शब्द के विभिन्न आयामों पर गंभीर चर्चा की और इस नतीजे पर पहुंचे कि बेशक ये भुक्खड़ युवाओं का मिलन स्थल है लेकिन सत्य यह है कि जब तक भुक्खड़ है तो दुनिया है। दुनियादारी है। और अगर भूख नहीं, भुक्खड़ नहीं तो समझो बीमारी ही बीमारी है।
फिलहाल शब्दों के अथाह सागर में गोते लगाते हुए मन के स्वाद दिलाने वाले मन के ईश (मनीष शाह) को इस लाजवाब भुक्खड़ के लिए बेहिसाब बधाई। -विनोद बब्बर  7982170421, 9868211911

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