राजनीति और नैतिकता

राजनीति और नैतिकता
राजनीति में नैतिकता को कितना महत्व दिया जाता है, यह देश का बच्चा-बच्चा जानता है लेकिन न जाने क्यों बार-बार नैतिकता के सवाल उठते रहते हैं। जैसाकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनके त्रिदिवसीय ‘सदभावना’ उपवास कार्यक्रम के दौरान पत्रकारों ने पूछा कि क्या वे 2002 के गुजरात दंगों की नैतिक जिम्मेवारी लेते हैं तो उन्होंने कहा, ‘नैतिक जिम्मेवारी किस चिड़िया का नाम है।’ मोदी ने अपने शासन की उपलब्धियों और कांग्रेस की नाकामियों की जमकर चर्चा की तो दूसरी ओर गुजरात कांग्रेस के नेताओ ने उन्हें भ्रष्टाचारी और निरंकुश करार देते हुए जवाबी उपवास किया। दोनों उपवासों में अनेक अंतर देखने को मिले। जैसे मोदी को भारी जनसमर्थन मिला और मीडिया कवरेज भी लेकिन बघेला आपेक्षाकृत उपेक्षित रहे। मोदी का उपवास वातानुकुलित हाल में हुआ तो बघेला फुटपाथ पर थे। हाँ, बघेला मोदी पर करोड़ो की बर्बादी का आरोप लग रहे थे। वैसे उपवास से पूर्व सभी समाचार-पत्रों में छपे मोदी के आम आदमी को संबोधित पत्र में पिछले 10 साल की गलतियों की ओर इशारे के लिए जनता का धन्यवाद जरूर किया था।
प्रश्न यह है कि क्या राजनीति पूर्णतः नैतिकता विहिन हो गई है? क्या यह एक ऐसा हथियार है जो दूसरों पर चलाया जाता है? आजादी से अब तक के काल को देखें तो नैतिकता लगातार रसातल की ओर है वरना देश के विभाजन और लाखों बेगुनाहों के कत्ले-आम की नैतिक जिम्मेवारी किसने ली? जिन्हें 1984 के दंगों की नैतिक जिम्मेवारी लेनी चाहिए थी वे ‘बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन हिलती है’ का तर्क प्रस्तुत कर रहे थे। भ्रष्टाचार के लिए आज तक किसी ने स्वयं को दोषी नहीं माना। रंगे हाथों पकड़ गये, घर से करोड़ों नकद बरामद हुए लेकिन बेशर्मी से स्वयं को ‘षड्यंत्र’ का शिकार बताया। तोप से चारे तक में गोलामाल हुआ लेकिन दोषी बच निकले। एन्डरसन हो या क्वातरोची, वे इस देश के अपराधी हैं लेकिन उन्हें सुरक्षित बचाने वालों ने क्या कभी अपने अपराध को स्वीकारा?
नेताओं के विदेशी खाते, भारी- भरकम खर्च, शाही जीवनशैली लेकिन देश की आधी से अधिक आबादी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है, आधुनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की जानकारी तक नहीं। हजारों गांवो में पक्की गलियां, सड़कें नहीं लेकिन यह करना किसी की नैतिक जिम्मेवारी भी नहीं थी अतः किसी के दोषी होने का सवाल ही कहाँ खड़ा होता है?
आतंकवाद, नक्सलवाद, कानून व्यवस्था की दशा क्या है लेकिन सब खामोश है। यदा-कदा किसी मंत्री को नैतिकता की याद आ जाती है तो वह नैतिक जिम्मेवारी लेकर फिर से आंखें मूंद लेता है। ऐसे लोगों के लिए नैतिकता की बातें करना सुरक्षा कवच है। खुद को बचाने के लिए दूसरों के इतिहास -भूगोल की चर्चा करना नैतिकता है। कटू सत्य यह है कि राजनीति में दूसरों को नैतिकता की याद दिलाई जाती है लेकिन स्वयं भूलकर भी याद नहीं रखा जाता। हाँ, गद्दी सलामत रहने की गारंटी हो और कुछ लाभ होने वाला हो तो ‘नैतिक जिम्मेवारी’ का ढकोसला करने का जोखिम उठाया जा सकता है।
कभी शास्त्री जी ने एक रेल-दुर्घटना होने पर नैतिक जिम्मेवारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था लेकिन अब तो हर रोज रेल-दुर्घटनाएं होती है, किसी को भी इस्तीफा देना जरूरी नहीं लगता। यह सत्य है कि इस्तीफा देना ऐसी परिस्थितियों में सुधार नहीं कर सकता लेकिन एक वातावरण अवश्य उत्पन्न हो सकता है। इस्तीफा न भी दें लेकिन विनाशकारी परिस्थितियों के निर्माण के अवसर घटाते-घटाते समाप्त करने का प्रयास तो करें। पिछले कुछ दशकों का रिकार्ड देखा जा सकता है कि किसी भी रेल मंत्री ने व्यवस्था को ईमानदारी से बेहतर बनाने की कोशिश नहीं की बल्कि इसे राजनीतिक संसाधनों के यप में इस्तेमाल किया। बार-बार की जांच रिपोर्ट पटरियों और पुलों की स्थिति की दशा पर अंगुली उठाती रही हैं लेकिन किसी में भी इतना नैतिक तो क्या मानवीय बोध भी नहीं रहा कि इस कार्य को प्राथमिकता के आधार पर करतें।
राजनैतिक नुकसान उठाकर भी राष्ट्रहित में कार्य करने की प्रवृति लगता है विदा हो चुकी है वरना एक परिवार विशेष के नाम पर हवाई अड्डा, अस्पताल, विश्वविद्यालय, अनेक संस्थान, नगर -बस्तियाँ लेकिन उनसे भी बढ़कर त्यागी, तपस्वी, समर्पित नेताओं को यथोचित सम्मान तक न मिलने ने किसी की नैतिकता को क्यों नहीं कुरेदा? कश्मीर में धारा 370 लगाने वा उसे जारी रख एक देश में दो व्यवस्थाओं का दोष किसी ने स्वीकारा? संविधान में सभी भारतीयों को समानता लेकिन अलग-अलग कानून बनाये रखने के औचित्य पर चर्चा तक स्वीकार नहीं, आखिर क्यों? कोर्ट की सर्वोच्चता की दुहाई लेने वाले इस बात पर चुप्पी साध लेते हैं कि इस देश का सर्वोच्च न्यायलय अनेक बार समान- नागरिक कानून बनाने का निर्देश दे चुका है? क्या इस निष्क्रियता का अपराध बोध किसी को है? और तो और, जो दल 370, समान नागरिक कानून, राममंदिर की बात करता था वह भी अब इसे अपने एजेंडे से बाहर किये हुए है ताकि एक खास वर्ग का वोट उसे प्राप्त हो जाये। कल तक ‘मंदिर वही बनायेंगे’ का संकल्प लेने वाले आज फरमाते हैं ‘मंदिर बनाना हमारा काम नहीं है।’
आज महंगाई सातवें आठवें आसमान को पछाड़ते हुए अनंत की ओर है लेकिन जिम्मेवारी लेने वाला कोई नहीं है। कुछ मंत्री तो महंगाई को विकास का पर्याय घोषित कर उसे और बढ़ाने, भड़काने में लगे हैं। महंगी खाद्य वस्तुएं भी शुद्ध नहीं मिलती जबकि हर नगर में लम्बी -चौड़ी सरकारी फौज है जिसका काम मिलावट रोकना है। वे मिलावट रोकने की जिम्मेवारी का निर्वहन करने की बजाय नोट बटोरने का कर्तव्य पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ निभा रहे हैं। युवा भटकन बढ़ रही है, चहूं ओर नैतिकता हाशिए पर है तो क्या इसलिए नहीं कि हमने अपनी शिक्षा पद्धति को जरूरत से ज्यादा धर्मरहित बना लिया है। शिक्षा पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा गायब हो तो कैसे अंकुरित होंगे संस्कार? कैसे कायम रहेगा अमन-चैन? हम सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा का दायित्व बेलगाम टीवी चैनलों को सौंपकर अपनी जिम्मेवारी पूर्ण मान लेंगे तो कैसे उम्मीद करें सुसंस्कृत युवा पीढ़ी की?
कभी-कभी लगता है कि जिम्मेवारी और नैतिक जिम्मेवारी का सूक्ष्म अंतर समाप्त हो गया है। नैतिकता भूजल स्रोतांे सी सूखती जा रही है जैसे जमीन का पानी लगातार सूख रहा है हमारी आंख का पानी भी सूख रहा है। हम रिश्वत देने और बटोरने के बाद भी नैतिकता पर बेशर्मी से घंटों भाषण देते हैं। स्वार्थ की मोटी चादर ने हमारी नैतिकता को ढककर सुला दिया है जो बार-बार शोर मचाने पर भी नहीं जागती? यदि जाग भी जाए तो फिर से सो जाती है अथवा आंखें चुराने लगती है। नैतिकवादी बताते हैं कि इसका संबंध अन्तरात्मा से होता है लेकिन आत्मा-परमात्मा के दूरदर्शनी अवतार भी ‘माया महा ठगनी’ बताते हुए हजारों हाथों से माया बटोर रहे हैं। शायद वे नैतिकता की बातें सुनाते-सुनाते इतना थक जाते हैं कि अपने जीवन में उतारने की सामर्थ्य उनमें शेष नहीं रहती। सारा जीवन राजनीति में होम कर देने वाले योग्य ईमानदार लोगों को चुनाव में इसलिए टिकट नहीं मिलती कि उन्होंने अनैतिक तरीकों से साधन नहीं जुटाये, बड़े नेताओं की चाटूकारिता नहीं। क्रिकेट वाले बुरी तरह हारते हैं क्योंकि विज्ञापन बटोरना उनकी प्राथमिकता है और हमारे खेल प्रशासको को दूसरे खेल दिखाई ही कहाँ देते हैं।
2-जी मामले में सीबीआई के वकील साहिब भ्रष्टाचारियों को सजा दिलवाने के लिए लड़ते हैं तो भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे कलमाड़ी, येदियुरप्पा, खान माफिया रेड्डी को बचाने के लिए भी कोर्ट में हाजिर होते हैं। भाजपा सांसद राम जेठमलानी अमर सिंह को बचाने के लिए अपनी ही पार्टी को दोषी ठहराते हैं। उप्र. की सड़कें बदहाल हैं, जनता विकास से वंचित है क्योंकि धन का अभाव है लेकिन पत्थर की मूर्तियों के लिए किसी चीज की कमी नहीं होने दी जाती। उप्र. के किसानों के लिए संघर्ष करने वाले युवा नेता अपनी पार्टी के शासन वाले राज्यों के किसानों की दुर्दशा पर मौन रहते हें। यह नैतिकता के संकट के अतिरिक्त और क्या है। चलते-चलतें बात इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भी। अन्ना हजारे के अनशन के दौरान टीवी चैनलों ने दिन-रात रामलीला मैदान का सीधा प्रसारण कर भ्रष्टाचार और लोकपाल के मामले में कितनी देश सेवा की, यह जानना दिलचस्प होगा। इन टीवी चैनलों ने इन दौरान विज्ञापनों से 1800 करोड़ रूपये कमाये थे। इलैक्ट्रानिक मीडिया और बड़े घरानों द्वारा संचालित मीडिया सीधे-सीधे अर्थशास्त्र पर चलता हैं इसका नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं है। खुद अतिरंजित अथवा दिग्भ्रमित करते हैं महत्वपूर्ण सूचनाओं को छिपाते अथवा तोड़-मोड़ कर प्रसतुत करना उनका स्वभाव है लेकिन सवाल उठायेंगे दूसरों की नैतिक जिम्मेवारी था। इस सारे परिदृश्य को देखकर कहना पड़ेगा कि जब समाज-धर्म, राज-धर्म और नैतिक जिम्मेवारी अलग-अलग होती है तो क्या यह हमारा दोष नहीं कि हम अलग-अलग चिड़ियों से एक से स्वर की इच्छा रखते हैं। क्या ठीक नहंी कहा मोदी ने कि- नैतिक जिम्मेवारी किस चिड़िया का नाम है!
राजनीति और नैतिकता राजनीति और नैतिकता Reviewed by rashtra kinkar on 06:16 Rating: 5

1 comment

  1. राजनीति और नैतिकता उच्च्कोटि का लेख है।

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