व्यापारी को भिखारी बनाने की तैयारी
व्यापारी को भिखारी बनाने की तैयारी
यह तय कर पाना आसान नहीं कि इस देश को चलाने वाले अपने विवेक से फैसले लेते हैं या दूसरों के दबाव में। रिटेल व्यापार में विदेशी पूंजीनिवेश की अनुमति देने का केन्द्र सरकार का फैसला इस संदेह को गहराता है। विपक्ष ही नहीं, स्वयं सत्तारूढ़ खेमे में भी सवाल उठ रहे हैं। जनता का आक्रोश लगातार बढ़ रहा है। पूरे देश में व्यापार बंद के आह्वान को जबरदस्त सफलता मिलना संकेत है कि जिस खतरे को हमारे ‘काबिल’ कर्णधार समझ नहीं पा रहे हैं उसे देश का अनपढ़ अथवा कम पढ़ा-लिखा आदमी भी समझता है। वह जानता है कि एक विदेशी कम्पनी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने प्रभाव का विस्तार कर इस देश की स्वतंत्रता को बंधक बना लिया था। दो शताब्दी लम्बे संघर्ष में हजारों लोगांे के बलिदान और पूरे देश से उठ खड़ी हुई विद्रोह की चिंगारी का सामना करने में असमर्थ विदेशियों ने मजबूरी में भारत छोड़ा। यह आजादी किसी एक व्यक्ति या एक परिवार के प्रयासों का प्रतिफल नहीं थी कि उसे यह अधिकार भी नहीं है कि वह अपने मनमाने ढंग से नष्ट कर सके। इस देश का मजदूर, किसान क्रांति की ज्वाला बनकर उभरा तो आत्मरक्षा में विदेशियों का भारत छोड़ना पड़ा। लेकिन आज फिर से उनके लिए पलक पावड़े बिछाना आखिर कैसी राष्ट्रभक्ति है? कैसी समझदारी है? क्या आत्मघात और अर्थशास्त्र को पर्यायवाची बनाने वाले ‘महापुरुष’ को श्रेष्ठ अर्थशास्त्री कहा जा सकता है?
देश में करोड़ों लोग कोई न कोई छोटा-मोटा धंधाकर अपना पेट पालते हैं। दुकान, पटरी, रेहड़ी, मेले, बाजार लगाना इस देश की आधी से अधिक जनंसंख्या को प्रत्यक्ष और परोष रूप से रोजी-रोटी देता है। अपने सीमित साधनों से माल खरीदकर कम से कम मुनाफे के साथ बेच देने वाले लोगों को इस देश की रीढ़ कहा जा सकता है। देश की संप्रभु सरकार किसी विदेशी दबाव में आकर खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का फैसला कर रही है। सरकार का दावा है कि इससे कम से कम 10 करोड़ डालर यानी 500 करोड़ रूपये लगाने वाली कम्पनी भारत आएगी। पैसा आएगा तो खुशहाली आएगी, व्यापार और रोजगार बढ़ेगा। लेकिन क्या यह सत्य नहीं कि केवल 2जी घोटले में हजारों करोड़़ का गोलमाल हुआ। हसन अली के विदेशी खातों में लाखांें करोड़ का काला धन है। कालेधन वालों की लिस्ट बहुत लम्बी है। यदि सरकार की नियत भारत में धन की उपलब्धता बढ़ाने की होती तो विदेशी निवेश की नहीं, विदेशों से भारत धन की वापसी का फैसला लेती। कानून बनाया जाता कि विदेशों में जमा सारे धन को जब्त किया जाएगा। उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने की बजाय इस देश को ही विदेशियों की सम्पत्ति बनाने का रास्ता खोलना दुखद है।
कहा जा रहा है कि वालमार्ट जैसी कम्पनियां भारत आकर घरेलू जरूरत का सामान, कपड़े, दवाईयां वगैरह- वगैरह बेचेगी। यह कम्पनी अपने बड़े-बड़े माल्स खोलेगी जहां छोटे से छोटा समान अच्छा और सस्ता मिलेगी। अनुभवी लोगों का मानना है कि अकेले बालमार्ट कम्पनी की सम्पति ही दुनिया के 40 देशों की कुल सम्पतियों से ज्यादा है। यह सम्पति उसने सस्ता यानी कम मुनाफा कमाकर इकट्ठी नहीं की है। हां, यह सत्य है कि आरम्भ में ये कम्पनियां हमरे स्थापित व्यापार को नष्ट करने के लिए लागत मूल्य से भी कम कीमत पर माल बेचेगी लेकिन ज्योंही हमारा तंत्र कमजोर हो जाएगा, ये कम्पनियां अपने असली काम शुरू क देगी। यह तय है कि महज कुछ ही सालों में जबरदस्ती बेोजगारी होगी। क्या आज के बारोजगारों को कल बेरोजगार होने पर सरकार नौकरी देगी या इन्हें इनके हाल पर भूखों मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा? क्या इससे चोरी, भूखमरी, अपराधों में वृद्धि नहीं होगी?
क्या इस सत्य को नजरअंदाज किया जा सकता है कि इस देश के हर नगर में छोटी दुकानों, फुटपाथों की दुकानों, फेरी वालों की संख्या काफी अधिक है। दिल्ली सहित हर बड़े नगर में गली-गली, घर-घर दुकाने हैं। स्वयं मेहनत कर बहुत कम मुनाफे से चलने वाला व्यापार जब इन कम्पनियों के हाथों आ गया तो कीमतें बढ़ना तय है। इन कम्पनियों के भारी-भटकम खर्च और तामझाम आखिर वसूले तो जनता से ही जाएगे।
जो यह दावा कर रहे हैं कि इस फैसले से किसानों को लाभ होगा क्योंकि ये कम्पनियां सीधे उनसे माल खरीदेगी, उन्हें पेप्सी से हुए समझौते को एक बार फिर से पढ़ाना चाहिए। उस कम्पनी ने भी इसी प्रकार का वायदा किया था। यह भी कहा था कि कृषि उत्पाद से अनेक वस्तुएं बनाकर निर्यात करेंगे, स्थानीय लोगों को रोजगार देंगे आदि आदि। लेकिन जब बाद की सरकार में उद्योग मंत्री जार्ज फर्नांडिस ने उनसे समझौते के बारे में पूछा तो कम्पनी का जवाब था- ‘हमें मालूम ही नहीं कि भारत में टमाटर भी होता है। ‘टमाटर की चटनी तथ अन्य उत्पादों के निर्यात के सवाल पर उनका कहना था- ‘विदेशों से आर्डर प्राप्त हुए बिना ऐसा करना संभव नहीं होगा।’ स्थानीय लोगों को रोजगार पर उनकी बाजीगरी थी- ‘यदि हमारी आवश्यकता के अनुरूप लोग स्थानीय स्तर पर नहीं मिलते तो बाहरी/ विदेशी को रखना हमारी विवशता है। वैसे चतुर्थ श्रेणी के सभी कर्मचारी स्थानीय ही हैं।’
कई दशक पहले का यह उदाहरण इन कम्पनियों के असली इरादों का टेªलर है। आज इनकी आर्थिक शक्ति एवं क्षमताओं को देखते हुए रिटेल व्यापार में उनके प्रवेश को रोकना आवश्यक है। यह प्रश्न कांग्रेंस, भाजपा, माकपा या किसी अन्य दल की प्रतिष्ठा का नहीं है। सवाल देश के हितों का है। देश के लिए ये सभी दल एक बार नहीं, हजार बार न्यौछावर किये जा सकते हैं। देश हित सबसे पहले होना चाहिए। इसे गलत ढंग से स्वर्ग बनाने पर आमदा अर्थशास्त्री जी को समझना होगा कि वे करोड़ों को स्वर्गवासी बनने के लिए मजबूर न करें। इस देश का अन्नदाता किसान आत्महत्याएं कर रहा है। नक्सलवाद के लिए पिछड़ेपन - गरीबी को जिम्मेवार ठहराया जाता है तो क्या बिना किसी सरकारी सहायता के न केवल अपना बल्कि करोड़ों अन्य को रोजगार, व्यापार उत्पादन देने के साथ-साथ देश की सरकारों को तरह-तरह के टैक्स के रूप में अरबों-खरबों देने वाले व्यापारियों को दर-दर का भिखारी बनाने पर तुली सरकार को अपना फैसला बदला ही चाहिए वरना इस देश का आम आदमी जिसकी योग्यता और निर्णय क्षमता का लोहा सारी दुनिया मानती है, ऐसे फैसले लेने वालों को ही उखेड़ फेंकेगा। वह हिंसा नहीं, शांति और सत्याग्रह के मार्ग पर चलना जानता है। मतदान का उसका अधिकार अन्यायी के पिण्डदान का अवसर भी बन सकता है इसलिए सावधान-
मत छीनो मुंह के निवालों को
मत छेड़ो मेहनत की खाने वालो को
गुलाम हो, चाकरी करते रहो उनकी
मत भड़काओं भारत के भोले-भाले को!
यह तय कर पाना आसान नहीं कि इस देश को चलाने वाले अपने विवेक से फैसले लेते हैं या दूसरों के दबाव में। रिटेल व्यापार में विदेशी पूंजीनिवेश की अनुमति देने का केन्द्र सरकार का फैसला इस संदेह को गहराता है। विपक्ष ही नहीं, स्वयं सत्तारूढ़ खेमे में भी सवाल उठ रहे हैं। जनता का आक्रोश लगातार बढ़ रहा है। पूरे देश में व्यापार बंद के आह्वान को जबरदस्त सफलता मिलना संकेत है कि जिस खतरे को हमारे ‘काबिल’ कर्णधार समझ नहीं पा रहे हैं उसे देश का अनपढ़ अथवा कम पढ़ा-लिखा आदमी भी समझता है। वह जानता है कि एक विदेशी कम्पनी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपने प्रभाव का विस्तार कर इस देश की स्वतंत्रता को बंधक बना लिया था। दो शताब्दी लम्बे संघर्ष में हजारों लोगांे के बलिदान और पूरे देश से उठ खड़ी हुई विद्रोह की चिंगारी का सामना करने में असमर्थ विदेशियों ने मजबूरी में भारत छोड़ा। यह आजादी किसी एक व्यक्ति या एक परिवार के प्रयासों का प्रतिफल नहीं थी कि उसे यह अधिकार भी नहीं है कि वह अपने मनमाने ढंग से नष्ट कर सके। इस देश का मजदूर, किसान क्रांति की ज्वाला बनकर उभरा तो आत्मरक्षा में विदेशियों का भारत छोड़ना पड़ा। लेकिन आज फिर से उनके लिए पलक पावड़े बिछाना आखिर कैसी राष्ट्रभक्ति है? कैसी समझदारी है? क्या आत्मघात और अर्थशास्त्र को पर्यायवाची बनाने वाले ‘महापुरुष’ को श्रेष्ठ अर्थशास्त्री कहा जा सकता है?
देश में करोड़ों लोग कोई न कोई छोटा-मोटा धंधाकर अपना पेट पालते हैं। दुकान, पटरी, रेहड़ी, मेले, बाजार लगाना इस देश की आधी से अधिक जनंसंख्या को प्रत्यक्ष और परोष रूप से रोजी-रोटी देता है। अपने सीमित साधनों से माल खरीदकर कम से कम मुनाफे के साथ बेच देने वाले लोगों को इस देश की रीढ़ कहा जा सकता है। देश की संप्रभु सरकार किसी विदेशी दबाव में आकर खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश का फैसला कर रही है। सरकार का दावा है कि इससे कम से कम 10 करोड़ डालर यानी 500 करोड़ रूपये लगाने वाली कम्पनी भारत आएगी। पैसा आएगा तो खुशहाली आएगी, व्यापार और रोजगार बढ़ेगा। लेकिन क्या यह सत्य नहीं कि केवल 2जी घोटले में हजारों करोड़़ का गोलमाल हुआ। हसन अली के विदेशी खातों में लाखांें करोड़ का काला धन है। कालेधन वालों की लिस्ट बहुत लम्बी है। यदि सरकार की नियत भारत में धन की उपलब्धता बढ़ाने की होती तो विदेशी निवेश की नहीं, विदेशों से भारत धन की वापसी का फैसला लेती। कानून बनाया जाता कि विदेशों में जमा सारे धन को जब्त किया जाएगा। उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने की बजाय इस देश को ही विदेशियों की सम्पत्ति बनाने का रास्ता खोलना दुखद है।
कहा जा रहा है कि वालमार्ट जैसी कम्पनियां भारत आकर घरेलू जरूरत का सामान, कपड़े, दवाईयां वगैरह- वगैरह बेचेगी। यह कम्पनी अपने बड़े-बड़े माल्स खोलेगी जहां छोटे से छोटा समान अच्छा और सस्ता मिलेगी। अनुभवी लोगों का मानना है कि अकेले बालमार्ट कम्पनी की सम्पति ही दुनिया के 40 देशों की कुल सम्पतियों से ज्यादा है। यह सम्पति उसने सस्ता यानी कम मुनाफा कमाकर इकट्ठी नहीं की है। हां, यह सत्य है कि आरम्भ में ये कम्पनियां हमरे स्थापित व्यापार को नष्ट करने के लिए लागत मूल्य से भी कम कीमत पर माल बेचेगी लेकिन ज्योंही हमारा तंत्र कमजोर हो जाएगा, ये कम्पनियां अपने असली काम शुरू क देगी। यह तय है कि महज कुछ ही सालों में जबरदस्ती बेोजगारी होगी। क्या आज के बारोजगारों को कल बेरोजगार होने पर सरकार नौकरी देगी या इन्हें इनके हाल पर भूखों मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा? क्या इससे चोरी, भूखमरी, अपराधों में वृद्धि नहीं होगी?
क्या इस सत्य को नजरअंदाज किया जा सकता है कि इस देश के हर नगर में छोटी दुकानों, फुटपाथों की दुकानों, फेरी वालों की संख्या काफी अधिक है। दिल्ली सहित हर बड़े नगर में गली-गली, घर-घर दुकाने हैं। स्वयं मेहनत कर बहुत कम मुनाफे से चलने वाला व्यापार जब इन कम्पनियों के हाथों आ गया तो कीमतें बढ़ना तय है। इन कम्पनियों के भारी-भटकम खर्च और तामझाम आखिर वसूले तो जनता से ही जाएगे।
जो यह दावा कर रहे हैं कि इस फैसले से किसानों को लाभ होगा क्योंकि ये कम्पनियां सीधे उनसे माल खरीदेगी, उन्हें पेप्सी से हुए समझौते को एक बार फिर से पढ़ाना चाहिए। उस कम्पनी ने भी इसी प्रकार का वायदा किया था। यह भी कहा था कि कृषि उत्पाद से अनेक वस्तुएं बनाकर निर्यात करेंगे, स्थानीय लोगों को रोजगार देंगे आदि आदि। लेकिन जब बाद की सरकार में उद्योग मंत्री जार्ज फर्नांडिस ने उनसे समझौते के बारे में पूछा तो कम्पनी का जवाब था- ‘हमें मालूम ही नहीं कि भारत में टमाटर भी होता है। ‘टमाटर की चटनी तथ अन्य उत्पादों के निर्यात के सवाल पर उनका कहना था- ‘विदेशों से आर्डर प्राप्त हुए बिना ऐसा करना संभव नहीं होगा।’ स्थानीय लोगों को रोजगार पर उनकी बाजीगरी थी- ‘यदि हमारी आवश्यकता के अनुरूप लोग स्थानीय स्तर पर नहीं मिलते तो बाहरी/ विदेशी को रखना हमारी विवशता है। वैसे चतुर्थ श्रेणी के सभी कर्मचारी स्थानीय ही हैं।’
कई दशक पहले का यह उदाहरण इन कम्पनियों के असली इरादों का टेªलर है। आज इनकी आर्थिक शक्ति एवं क्षमताओं को देखते हुए रिटेल व्यापार में उनके प्रवेश को रोकना आवश्यक है। यह प्रश्न कांग्रेंस, भाजपा, माकपा या किसी अन्य दल की प्रतिष्ठा का नहीं है। सवाल देश के हितों का है। देश के लिए ये सभी दल एक बार नहीं, हजार बार न्यौछावर किये जा सकते हैं। देश हित सबसे पहले होना चाहिए। इसे गलत ढंग से स्वर्ग बनाने पर आमदा अर्थशास्त्री जी को समझना होगा कि वे करोड़ों को स्वर्गवासी बनने के लिए मजबूर न करें। इस देश का अन्नदाता किसान आत्महत्याएं कर रहा है। नक्सलवाद के लिए पिछड़ेपन - गरीबी को जिम्मेवार ठहराया जाता है तो क्या बिना किसी सरकारी सहायता के न केवल अपना बल्कि करोड़ों अन्य को रोजगार, व्यापार उत्पादन देने के साथ-साथ देश की सरकारों को तरह-तरह के टैक्स के रूप में अरबों-खरबों देने वाले व्यापारियों को दर-दर का भिखारी बनाने पर तुली सरकार को अपना फैसला बदला ही चाहिए वरना इस देश का आम आदमी जिसकी योग्यता और निर्णय क्षमता का लोहा सारी दुनिया मानती है, ऐसे फैसले लेने वालों को ही उखेड़ फेंकेगा। वह हिंसा नहीं, शांति और सत्याग्रह के मार्ग पर चलना जानता है। मतदान का उसका अधिकार अन्यायी के पिण्डदान का अवसर भी बन सकता है इसलिए सावधान-
मत छीनो मुंह के निवालों को
मत छेड़ो मेहनत की खाने वालो को
गुलाम हो, चाकरी करते रहो उनकी
मत भड़काओं भारत के भोले-भाले को!
व्यापारी को भिखारी बनाने की तैयारी
Reviewed by rashtra kinkar
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