
भारतीय संस्कृति के विभिन्न आयाम
शायद आपको याद हो दशको पहले एक फिल्म की शुरुआत में हिन्दुस्तान के नक्शें के साथ हर दर्शक को रोमांचित करने वाली एक आवाज पर्दे पर गूंजा करती थी- ‘मैं हिन्दुस्तान हूँ। हिमालया मेरी सरहदों का निगेहबान है, गंगा मेरी पवित्रता की सौगंध। तारीक की इंतदा से मैं अंधेरों और उजालों का साथी रहा हूँ और मेरी खाक पर संगेमरमर की चादरों में लिपटी हुई ये इमारतें दुनिया को कह रही हैं कि जालिमों ने मुझे लूटा, मेहरबानों ने मुझे संवारा, नादानों ने मुझे जंजीरें पहना दी एवं मेरे चाहने वालों ने उसे काट फेंका......!’
यदि इसे भारतीय संस्कृति का एक शाश्वत अंश कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। हिन्दुस्तान, भारत, आर्यावर्त के नाम से जाने जाने वाला यह भूभाग कभी अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। आज का बंगलादंश, पाकिस्तान भी कल तक हमारे थे। सारी दुनिया मानती है कि आज भी भारत की खूबसूरती, इसका महत्व, इसकी प्राकृतिक सम्पदा, इसकी संस्कृति का कोई सानी नहीं है। ऐसे में अक्सर एक सवाल पूछा जाता है कि भारत मे इतनी भिन्नताओं के बावजूद ऐसी कौन सी चीज जो सभी को जोड़े रखती है?
मार्क ट्वेन ने 1856 मे जब भारत का दौरा किया था तो उसने लिखा था, भारत सांस्कृतिक रूप से परिपूर्ण राष्ट्र है। समय-समय पर अनेक विदेशी विद्वानों ने भारत का दौरा किया और यहाँ की संस्कृति को दुनिया मे सबसे उन्नत माना.यही हमारी संस्कृति है, और हम सभी भारतीयो को इस पर गर्व है। भारतीय संस्कृति के अनुसार व्यक्ति का दृष्टिकोण ऊँचा रहना चाहिए । हमारे यहाँ अन्तरात्मा को प्रधानता दी गई है । हमारे तत्त्वदर्शियों ने संसार के व्यवहार, वस्तुओं और व्यक्तिगत जीवन-यापन के ढँग और मूलभूत सिद्धांतों पर विचार किया है । सांसारिक सुखो एवं वासनाजन्य इन्द्रिय सुखों से ऊपर उठने तथा नैतिकता की रक्षा के लिए कुछ मान्यताएँ निर्धारित की।
अब नववर्ष को ही लें। गत इकतीस दिसम्बर की आधी रात को अनेक स्थानों पर अप्रिय दृश्य देखने को मिले। जब हम अंग्रेजी नववर्ष की तुलना चैत्र माह में भारतीय नव वर्ष से करें तो मंदिरों में घंटे घड़ियाल बजते हैं, विशेष पूजा, प्रार्थना होती है, प्रातःकाल उगते सूर्य की आराधना की जाती है। आश्चर्य होता है कि यह नववर्ष का कैसा स्वागत जहाँ हमारे ही अनेक युवक पागलों की तरह एक लड़की के पीछे पड़ जाते हैं। क्या इसे अपनी संस्कृति को भुला़कर पश्चिम के दीवाने बने युवाओं के नैतिक पतन की एक सामान्य घटना माना जाए? इस बात का उत्तर देने वाला कोई नहीं है कि .समाज कहाँ जा रहा है? यह चारित्रिक पतन क्यों कर हुआ? स्वतंत्रता और स्वछंदता में फर्क समाप्त कैसे हो गया? कहीं यह नैतिकता विहिन हमारी शिक्षा प्रणाली और व्यवस्था का दोष तो नहीं हैं?.
अंग्रेजी नया साल याने अय्याशी , नशाखोरी, आपराधिकता ..भला क्यों ? कोई भी भटके हुओं को रोकना नहीं चाहता! भारतीय संस्कृति नर से नारायण बनती है तो क्या पाश्चत्य संस्कृति पवित्रता को पाशविकता में बदलती है?
किसी भी देश का अपना इतिहास होता है, परम्परा होती है। यदि हम देश को शरीर माने तो, संस्कृति उसकी आत्मा है। इसे यू भी कह सकते हैं जिस प्रकार शरीर मे दौड़ने वाला रक्त और प्राणों का संचार करने वाली सांसें शरीर को चलाने के लिये अतिआवश्यक है। उसी प्रकार किसी संस्कृति का प्राण तत्व होते है उस राष्ट्र की जनता के आदर्श, उनका चरित्र, मानवीय मूल्य।
इतिहास गवाह है कि विदेशियो ने अनेक बार आक्रमण कर हमारी संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की। अनेक आक्रमणकारियो ने भी माना कि इस देश की संस्कृति को नष्ट करना नामुमकिन है। कई लोग अपने साथ विभिन्न प्रकार के धर्म और सम्प्रदाय लेकर भारत में आये, और यहीं पर बस गये, जिससे गंगा-जमुनी संस्कृति का जन्म हुआ ,जिसे भारतीय संस्कृति ने बड़ी ही सहनशीलता के साथ गले लगाया। हमारा सामाजिक आचार-व्यवहार, शरणागत-रक्षा, सर्वधर्म समभाव, वसुधैव कुटुम्बकम, अनेकता मे एकता जैसे तत्वों ने हमारी संस्कृति कोे विश्व व्यापी बनाया। आज भी दुनिया के अनेक देशों में रह रहेे हमारे लोगों ने वहाँ भी भारतीय संस्कृति की छाप छोड़ी है क्योंकि भारतीय संस्कृति का उद्घोष है- ‘हे मनुष्यों अपने हृदय में विश्व-प्रेम की ज्योति जला दो । सबसे प्रेम करो। अपनी भुजाएँ पसार कर प्राणीमात्र को प्रेम के पाश में बाँध लो। विश्व की कण-कण को अपने प्रेम की सरिता से सींच दो । विश्व प्रेम वह रहस्मय दिव्य रस है, जो एक हृदय से दूसरे को जोड़ता है। यह एक अलौकिक शक्ति सम्पन्न जादू भरा मरहम है, जिसे लगाते ही सबके रोग दूर हो जातेे हैं । जीना आदर्श और उद्देश्य के लिये जीना है। जब तक जीओ विश्व- हित के लिए जीओ। सबको अपना समझो और अपनी वस्तु की तरह विश्व की समस्य वस्तुओं को अपने प्रेम की छाया में रखों। सबको आत्मीयजन के रूप में आत्म-भाव और आत्म-दृष्टि से देखो ।
भारत ही केवल एकमात्र ऐसा देश है जहाँ सर्वधर्म समभाव को पर्याप्त सम्मान और स्थान दिया गया है। यहाँ हर सुबह मंदिर से मन्त्रोचार की ध्वनि,मस्जिद से अजान,गुरूद्वारे से शबद कीर्तन की आवाज और चर्च से प्रार्थना की पुकार एक साथ सुनी जा सकती है। जितनी भाषाये यहाँ बोली जाती है, विश्व मे कहीं और नही बोली जाती। बोलचाल, खानपान, रहनसहन मे अनेकता होते हुए भी हम एक साथ रहते है, एक दूसरे के तीज त्योहारों मे शामिल होते है। होली, दीवाली, ईद, गुरपर्ब और क्रिसमस साथ-साथ मनाते है। मजारो पर मुसलमानों से ज्यादा हिन्दूओ द्वारा चादर चढाना बहुत आम बात रहा है।
बेशक हमारे बहुत से देवी देवता हैं लेकिन हम प्रकृति-पूजक है। चाहे वह वायु, जल, पृथ्वी, अग्नि या आकाश हो। इस प्रकार से हम प्रकृति के हर रूप की पूजा करते है, चाहे वह पहाड़ हो या कोई जीव जन्तु, हमारी संस्कृति मे सभी को विशेष स्थान दिया गया है।
अब सवाल यह है कि हम वास्तव में अपनी संस्कृति का कितना सम्मान रखते है अर्थात उसे अपने व्यवहार में अपनाते हैं। वेद तथा अन्य धर्म ग्रन्थ हमें रास्ता दिखाते है, लेकिन समय-समय पर अनेक स्वार्थी तत्वों ने इनकी मनमाने ढंग से विवेचना कर इनका अपने स्वार्थ के लिये इस्तेमाल किया। आज भी कुछ लोग पूरे विश्व के कल्याण का उद्घोष करने वाली संस्कृति को बदनाम करने की साजिश कर हे है। भारतीय चिंतन में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की भावना और भोजन से पूर्व जीव-जंतुओं के लिए भी अंश निकालने का प्रावधान है। कमाकर खाओ यह प्रकृति है , दूसरा कमाए तुम छीन कर खाओ यह विकृति है और खुद कमाओ दूसरे को खिलाओ यह भारतीय संस्कृति है। परन्तु तथाकथित वैश्वीकरण के इस दौर में अपने को अधिक आधुनिक कहलाने की होड़ के चक्कर में व्यक्ति जब अपनी पहचान, अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान, अपने मूल्यों तथा अपनी संस्कृति से समझौता करने को आतुर हो तो ऐसे विकट समय में अपने देश की ध्वजा-पताका थामे अगर कोई भारत में भारतीयता की बात करता हो तो उसे बदनाम करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाये जाते है। आज भारत में भारतीयता की बात करना कठिन हो रहा है। हम अनेक आतंरिक कलहों से जूझ रहा है ! देश में कही आतंकवाद अपने चरम पर है तो कही पर नक्सलवाद है, घुसपैठ है। वनवासियों, झुग्गी झोपड़ियों अथवा गरीबों की सेवा के नाम पर उन्हें चिकित्सा, शिक्षा आर्थिक मदद देकर उनकी आस्थाओं को खरीदने का कुचक्र चल रहा है। दुष्ट आतंकवादियों द्वारा प्रायोजित लव जेहाद के माध्यम से अपरिपक्व बालिकाओं को नर्क में धकेला जा रहा है।
भारतीय संस्कृति सभी धर्माें का आदर करना सिखाती है लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातक कोर्स की पुस्तक में करोडो भारतीयों के इष्ट देवी, देवताओं पर अभद्र टिप्पणियां की जाती है । शिक्षा ही क्यों, सेवा का क्षेत्र हो, राजनीति का क्षेत्र हो, ग्रामीण क्षेत्र हो हर तरफ से लगभग भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर लगातार हमला हो रहा है। राजनैतिक पार्टियाँ अपने स्वार्थ पूर्ति में लगी हैं। कोई जाति के नाम पर वोट मांगता है तो कोई किसी विशेष समुदाय को लाभ पहंुचाने के लिए। राष्ट्रभाषा हिन्दी भाषा को विदेशी अंग्रेजी भाषा ने लगभग कब्ज़ा लिया है। आज भ्रष्टाचार का हर तरफ बोलबाला है परन्तु जिम्मेवार पदों पर बैठे लोगों को ज्यादा चिंता इस बात की है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वालो को कैसे बदनाम किया जाए।
ऐसे में आज फिर से परिस्थितियां की वह पुकार किसे सुनाई नहीं दे रही जो कह रही हैं- ‘मैं हिन्दुस्तान हूँ। हिमालया की ओर से सरहदों की निगेहबानी कमजोर है, मेरे स्वार्थी बच्चों ने गंगा को इतना मैला कर दिया गया है कि उसकी पवित्रता की बात बेकार लगती है। तारीक की इंतदा से मैं अंधेरों और उजालों का साथी रहा हूँ और मेरी खाक पर अट्टालिकायंे पूछ रही हैं कि पुराने समय में जब जालिमों ने मुझे लूटा, मेहरबानों ने मुझे संवारा था, नादानों ने मुझे जंजीरें पहनाई थी तों मेरे चाहने वालों ने उसे काट फेंका था। आज आधुनिकता के नाम पर सरेआम असभ्यता और असंस्कृति की जंजीरें पहनाई जा रही हैं लेकिन मेरे चाहने वाले कहाँ सो रहे हैं? क्या स्वप्न और लक्ष्य के अंतर को वे भूल चुके हैं? उन्हें कौन याद दिलाएगा कि स्वप्नों के लिए गहरी नींद चाहिए परंतु लक्ष्य के लिए नींद उड़नी पड़ती है। क्या वे स्वप्नों के लिए सोये ही रहेगे या लक्ष्य के लिए जागेगे? बेसुधी बर्बाद का मार्ग हैं तो संस्कृति के विभिन्न आयामों पर चिंतन इस राष्ट्र को विश्वगुरु के लक्ष्य की ओर ले जा सकता है। कोई हैं अपने प्यारे हिन्दुस्तान की पुकार सुनने वाला!’

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