कोहरा, अँधेरा और आशंकाए

कोहरा, अँधेरा और आशंकाए
इन दिनों जबरदस्त सर्दी है, घना कोहरा है जो सामान्य जनजीवन की राह रोक रेलें लेट हो रही है तो जहाजवालों के भी पंख रूकेे हुए हैं। लोग घरों में कैद हैं लेकिन जिनके पास घर ही नहीं है वे बेबस हैं। ऐसे में यदि कोई नववर्ष या नई सुबह की बात करता है तो उस पर हंसी आती है। कुछ लोगों के लिए लोकपाल नई सुबह है क्योंकि उनका दावा है इससे भ्रष्टाचार का अंधेरा छटेगा लेकिन वे यह समझने को तैयार नहीं कि भ्रष्टाचार बीमारी नहीं अव्यवस्था रूपी बीमारी का लक्षण मात्र है। जैसे चेहरे का रंग पीला होना बीमारी नहीं, लक्षण मात्र है। यदि कोई डाक्टर पीलेपन का इलाज पाउडर क्रीम लगाकर दूर करने की राय देगा तो बताओ उसे डाक्टर माना भी जाए तो आखिर क्यों?
देश में भ्रष्टाचार का कारण राजनैतिक व्यवस्था है, महंगे चुनाव है, छोटे-छोटे चुनावों पर भी मोटे खर्चे से आंखें मूंदे रखने वाली मशीनरी हैं। बरसों से लटके मुकदमे हैं। अपराधियों की गलबहिया करती राजनीति है। नेतृत्व के नाम पर प्रतिनिधि मुखिया है, जिम्मेवार पदों पर बैठे हुए की निष्ठा संविधान से भी पहले उस पद तक पहुंचाने वाले के प्रति है। नैतिकता के मामले में लगातार हम गरीब हो रहे हैं। राजनैतिक प्रतिद्वंद्वता व्यक्तिगत क्षुद्रता में बदल रही है। यही नहीं ऐसे हजारों अन्य कारण है जो देश में अन्धेरा और आशंकाएं बढ़ाते हैं लेकिन हम इलाज कर रहे हैं लक्षण का। ठीक उसी प्रकार जैसे खेत में काम करते हुए ख्ुारपी गर्म हो जाने पर मूर्ख व्यक्ति द्वारा हकीम से उसका इलाज पूछने पर उसने ख्ुारपी को रस्सी में बांधकर कुएं में लटकाने को कहा। थोड़ी देर बाद जब खुरपी निकाली गई तोे वह ठण्डी पड़ चुकी है। उसके बाद से तो वह मूर्ख व्यक्ति स्वयं को वैद्य समझने लगा। एक बार मां को बुखार हुआ तो उसने उसे भी रस्सी से कुएं में लटकाकर ठण्डा करने की योजना बनाई क्या आज हम भी अपनी मातृ-भूमि, के साथ कहीं ऐसा ही व्यवहार तो नहीं कर रहे हैं?
यह सही है कि कुछ शहरों की चमक-दमक बढ़ी है लेकिन ये शहर ही तो भारत नहीं है। यदि ईमानदारी से बात करें तो इन चमकते शहरों में भी अंधेरे कम नहीं हैं। झोपड़पट्टियां, अनाधिकृत कालोनियां तो सहन की जाएं लेकिन फुटपाथ पर सोने वालों, बाल मजदूरों, भिखारियों बेरोजगारों, भूखों की अनेदेखी कैसे की जा सकती है? भारत को इण्डिया बनाने पर तुले लोगों ने भारत के एक छोटे से हिस्से को इण्डिया बना दिया है लेकिन वे लोग भारत को भारत भी नहीं रहने देना चाहते।
आज सारे देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां लूट मचा रही हैं। खेती की जमीनों को औने-पौने दामों पर हड़पा जा रहा है। नदी, पर्वत, भूसम्पदा, खनिज तक की लूट मची है। ऐसे लोगों को राजनैतिक प्राश्रय हासिल है। गरीब किसान, मजदूर परेशान हैं। आदिवासी बेघर हो रहे हैं। आधुनिकता का संगीत सुनकर उनके पीछे चलने वाले गरीब किसान भूखो मर रहे हैं। कर्ज आत्महत्याओं का कारण बन रहा है तो रासायनिक खाद, बीज का बढ़ता उपयोग कीमती भूमि को बंजर बना रहा है। भूजल को प्रदूषित कर रहा है लेकिन इतना अंधेरा भी जिन्हें नहीं डराता वे छोटे व्यापारियों के पेट पर लात मारने के लिए खुदरा व्यापार में भी विदेशी पूंजी निवेश की अनुमति देने के लिए मचल रहे हैं। ऐसे में आशंकाएं होना स्वाभाविक है।
दिल्ली सहित सारे देश में शिक्षा ही सारे समाज को नये वर्गों में बांट रही है। सरकारी स्कूल बदहाल हैं क्योंकि उसमें राजनैतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार है। जरूरत से ज्यादा बोझ है और उसपर नैतिकता व जिम्मेवारी की भावना का अभाव है जबकि प्राईवेट स्कूल लूट बनकर लगातार फल-फूल रहे हैं। दोनों के स्तर में इतना ज्यादा अन्तर है कि एक स्कूल का बारहवीं पास दूसरे के छठी के छात्र के समक्ष बौना है। क्या अफसर और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियांे के उत्पादन के समानान्तर केन्द्र बन कर रह गई इस व्यवस्था पर कभी छोटी से बड़ी पंचायत तक कोई उठी? क्या देश की बहुमत जनता को पिछड़ा बनाये रखने के इस मौन षड्यंत्र को किसी कोहरे, अन्धेरे से कमतर माना जा सकता है?
देश की बहुसंख्यक जनता की भाषा हिन्दी होते हुए भी अल्पसंख्यक अंग्रेजी हावी है। दफ्तर से अदालत तक, शोषित से शोषक तक। क्या यह अंधेरा नहीं कि न्यायिक प्रक्रिया जिसके लिए हो रही है उसे भी समझ नहीं आता कि उसकी तरफ से अथवा उसके लिए क्या कहा जा रहा है। वह टुकर-टुकर वकीलों के चेहरों की तरफ देखता है। वे अपने तर्कों का शब्दानुवाद करके बताते हैं, तभी समझ पाता है देश का आम आदमी। क्या आम आदमी के लिए उसी की भाषा में काम-काज नहीं होना चाहिए? क्या राष्ट्र-भाषा पर राष्ट्र को गुलाम बनाने वाली भाषा को महत्व देना गर्व की बात है?
देश में आर्थिक असमानता बढ़ी है। जबकि योजनाएं खूबी बनती है लेकिन उनका क्रियान्वयन ईमानदारी से नहीं होता। अफसर-लीडर गठजोड़ गरीब की बेबसी का मजा लूट रहे हैं। विदेशों में खाते हैं तो अपने देश में भी कालेधन के पहाड़ं है क्योंकि जिनकी जिम्मेवारी आंखें खुली रखने की है, वे आंखें मूंदे रखने की कीमत वसूल कर रहे हैं। ऐसे में उन्हें कोहरा-अंधेरा दिखाई देने के प्रति भी आशंकाएं हैं।
देश को जाति- धर्म में बांटकर अपनी गद्दी सलामत रखने वाले समाज को इतना बांट देना चाहते हैं कि उनका विरोध असंभव अथवा अशक्त जाए। अब आरक्षण को ही लें- यह सत्य है कि कमजोर की मदद होनी चाहिए लेकिन कमजोर का फैसला उसकी आर्थिक दशा की बजाय उसकी कोख देखकर करने वाले अब धर्म की बातें कर रहे हैं। क्या यह उचित नहीं होगा कि अंधेरे वाले हर स्थान पर रोशनी का प्रबन्ध सुनिश्चित किया जाए। हर जाति, धर्म, लिंग, वर्ग, वर्ण भेद के पिछड़ों को शैक्षिक व आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने वाली सुबह कब आएगी?
अंधेरे, कोहरे बहुत हैं लेकिन हमारी सीमाएं हैं। सभी की चर्चा संभव नहीं इसलिए आशंकाओं के प्रति सजग रहते हुए अपने कर्णधारों को लगातार सावधान करते रहना लोकतंत्र की सफलता के लिए जरूरी है। लोकतंत्र देश के हर नागरिक को अधिकार देता है तो यह जिम्मेवारी भी सौंपता है कि वह अपने परिवेश को बेहतर बनाने के प्रति जागरूक भी रहे।
आज अंग्रेजी नववर्ष आरम्भ हो रहा है। कोहरा, अंधेरा, ठिठुरन के रहते इसे उत्सव कैसे कहें। प्रकृति भी सहमी सिकुड़ी हुई है। पेड़ों के पत्ते झड़ रहे हैं मगर न जाने क्यों हम पश्चिम की उपनिवेशवादी सोच अर्थात् ‘परायी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ की तरह अड़ रहे हैं। हमारे नववर्ष चैत्र में चहूं ओर आनंद होगा, सुंदर मौसम होंगे, कोयल कूकेगी, पेड़-पौधे पर बहार होगी। वैसे इतना भी याद रखने पश्चिम वाले भी एक जनवरी को नहीं, एक अप्रैल को अपने वित्तीय वर्ष का प्रथम दिवस मनाते हैं। खैर नववर्ष जब होगा तब होगा। हम हर नई सुबह का स्वागत करने वाली संस्कृति के वारिस है। आओ कोहरे, अंधेरे और उनसे भी बढ़कर आशंकाओं से मुक्ति की कामना करते हुए भाई हरनाम शर्मा की कविता पर चिंतन लें-
कोहरे का कहर गांव पर
बर्फ जम गई बहती नहरों में
गेहूं को पानी लगाने,
खरपतवार हटाने के लिए
खड़ा है किसान
पिंडलियों तक जमें पानी में,
कन्धे पर फाबड़ा लिए
साईकिल कैरियर पर लटके हैं
दो बड़े कैन-दूध और हैंडिल पर
दूध-भरे दो छोटे बर्तन
कोहरे में पथ बनाती बढ़ रही
साईकिल और दूधिए की दृष्टि
शहर की ओर।
भैंसे सरक रही जोहड़ की तरफ
बैल खलिहान और गायें मैदान में
बच्चे साईकिलों पर जा रहे,
ले जाए जा रहे, स्कूटरों पर,
शहर के स्कूल में।
कोहरे का कहर-मेरी कॉलोनी में
अल्लसुबह सात बजे से पहले
दस्तक दे चुका फेरी वाला
रद्दी-पेपर/अखबार/
कॉपी/लोहा/प्लास्टिक
बेच लो कुछ भी कबाड़
ठीक करा लो कूकर,
गैस चुल्हा, सिलाई मशीन,
लाईटर और घर के दरवाजे भी।
पड़ौसी जा चुके दफ्तर
रास्ते टटोलती कामकाजी महिलाएं
जा चुकी ‘क्रैच’ सेे होते हुए अपने दफ्तरों/स्कूलांे में
स्कूटरों की घरर्र-घरर्र
कारों के भद्दे भौंपूओं का
अवांछित ‘कनफोडु शोर’
सड़कों पर रंेगती सुस्त बसें
विश्वविद्यालय जाती लड़कियां और
गर्म जैकेट कोट में लिपटे मनचले लेकिन समाचार-पत्र के मुख्य पृष्ठ की प्रमुख पंक्ति-
‘ठण्ड और कोहरे से जनजीवन अस्त व्यस्त’
विचित्र! इस ‘अस्त-व्यस्त’ में कितना कुछ ‘नियमित सक्रिय व्यस्त!’
सरकाओ रजाई, खिड़की से पर्दा हटाओ
आने दो अन्दर धुन्धभरी रोशनी।
कोहरा, अँधेरा और आशंकाए
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