नया साल, ढेरों सवाल

नया साल, ढेरों सवाल
- विनोद बब्बर
2011 अंतिम सांसे गिन रहा है और 2012दस्तक दे रहा है। नवधनिक वर्ग नये साल के जश्न की तैयारी में मस्त है। महानगरों के सभी पंच सितारा होटल पाश्चात्य संस्कृति की धुन पर थिरकने वालों के लिए पहले ही बुक हो चुके हैं, तो अन्य नगरों में भी स्थिति कमोबेश ऐसी-ही है। जो लोग अपने आपको भारतीय संस्कृति का पुरोधा घोषित करते नहीं थकते, वे भी भारतीय नववर्ष को लगभग भुलाते हुए ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के जश्न का हिस्सा बन रहे हैं।
यह सच है कि पूरी दुनिया पर पश्चिमी तौर-तरीकों का प्रभाव बढ़ा है, इसीलिए भाषा ही नहीं, अन्य अंग्रेजी परम्परायें भी हावी हो रही हैं। ऐसे में, प्रथम जनवरी को नववर्ष न मानने की सीख अपनी अपील खो चुकी है। आधुनिकता का दंभ भरने वाले नये साल के स्वागत के लिए तैयार हैं, ऐसे में देश के हाल पर उनसे कुछ सवाल करना यानी दो-दो हाथ करना सामयिक होगा।
देश की वर्तमान स्थिति में, जहाँ एक ओर मंदी और बेरोजगारी करोड़ों लोगों के लिए रोज़ी-रोटी का सवाल खड़ा कर रही है, दूसरी ओर आतंकवाद विभत्स रूप धारण कर देश की अस्मिता को सीधे-सीधे चुनौती देता नज़र आ रहा है ऐसे में राष्ट्र-चिंतन को छोड़कर अनावश्यक उत्सव मनाना कितना उचित है?
भ्रष्टाचार का कालिया फन फैला रहा है . लोकपाल की चर्चा होते हुए भी कोई भी गंभीर नहीं है. संसद में महा भ्रष्ट लालू की बकवास पर सभी तालिया पिटते है . वे भी जो स्वयं को नैतिकता का सबसे बड़ा ठेकेदार मानते है खूब दांत दिखाते है. जबकि देश के अधिकांश गाँवों में आज भी अच्छी सड़कें नहीं हैं। बिजली और पेयजल का संकट है। स्कूल और अस्पताल नहीं हैं। यदि हैं भी, तो वहाँ पर्याप्त स्टॉफ नहीं, अध्यापक-डाक्टर नहीं। डाक्टर है, तो दवा नहीं। युवाओं के सामने रोजगार का संकट है। उन्हें रोजी-रोटी की तलाश में पलायन करना पड़ता है, जहाँ कुछ जैसे सिरफिरे लोग उन्हें आतंकित करते हैं। खेती करने वालों को खाद-पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कर्ज के जाल में फंस कर आत्महत्या करते किसानों की आत्मा आपसे पूछ रही है, ‘इतने अंधेरों के रहते, कैसा जश्न? कैसा नया वर्ष?’
बच्चे देश का भविष्य हैं। प्यार, पढ़ाई और पोषण उनका अधिकार है। पर आज भी, देश के लाखों बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं। देश के लगभग हर होटल-ढ़ाबे में जूठे बर्तन धोने वाले बच्चे हैं। बसों और रेलों में करतब दिखाते छोटे-छोटे बच्चों को देखकर मुँह मोड़ने से काम नहीं चल सकता। जेब काटने से भीख माँगने तक को विवश बच्चों के रहते आप किस नई सुबह के नाम पर थिरक रहे हैं? कैसा नया वर्ष?
आधुनिकता के नाम पर खुला नारी-शोषण होता है, तो मजबूरी में देह बेचने को विवश है मातृशक्ति भी। पाश्चात्य-संस्कृति ने नारी को प्रदर्शन और भोग की वस्तु बनाकर रख दिया है, तो हम खुद भी उसे न्याय कहाँ दे रहे हैं। नारी केे जन्म से पहले ही उसकी भ्रूण-हत्या करने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है। कैबरे में थिरकती नंगे बदन नारी को देखना कैसा उत्सव है? इसे उत्सव कहें या अभिशाप?
राजनीति में धन, बल और अपराध की बढ़ती भूमिका पर सभी मौन हैं। सभी दल गंदगी के दल-दल में धंस कर अपना चेहरा कुरूप कर चुके हैं। स्वच्छ राजनीति और सिद्धांतों की राजनीति की बातें कोरी बयानबाजी तक सिमट कर रही गई हैं। सभी अपने-अपने वोट बैंक की रक्षा करने एवं उसे और अधिक बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं। केन्द्र सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेवारी संभाले लोग देश के नियम-कानूनों की मर्यादा का पालन नहीं करते। कोई घुसपैठियों का समर्थक बना दिखाई दे रहा है, तो कोई वोट-बैंक के लिए दुश्मन देश के अनुकूल बातें करने से भी गुरेज नहीं करता। देश की संसद और विधानसभाओं तक में सार्थक संवाद की बजाय हंगामा और आरोप-प्रत्यारोप ही दिखाई देता है। निराशा के ऐसे माहौल में किसे शुभकामनाएं दें, किसकी बधाइयां स्वीकारें?
वास्तव में, यह समय नव वर्ष के अनुकूल है ही नहीं क्योंकि प्रकृति ही ठण्ड से सहमी-सिकुड़ी हुई है, पेड़ांे के पत्ते गिर रहे हैं। सर्वत्र धुंध और कोहरे ने जन-जीवन को बाधित कर रखा है। पौष की सबसे ठंडी रात में जब कुछ लोग हंगामा करते हैं, देश का किसान उन सर्द रातों में अपने खेतांे में पानी देता है या जंगली पशुओं से अपनी कड़ी मेहनत से तैयार फसल की रक्षा करता है। उसके लिए यह परीक्षा की घड़ी होती है, न कि उत्सव की। क्या आप इस समय को किसी उत्सव के अनुकूल मानते हैं? इसके बिल्कुल विपरीत, जब भारतीय नववर्ष होते हं,ै जैसे चैत्र या बैशाख में (मार्च-अप्रैल) तो प्रकृति अपने पूरे निखार पर होती है। बसंत ऋतु, न गर्मी-न सर्दी, फसलें तैयार, घर में धन-धान्य आने की खुशी, मन में अपने आप ही जश्न की मस्ती छाने लगती है। अब आप ही फैसला करंे कि हमारे मनीषियों ने नववर्ष चैत्र अथवा बैशाख में मनाने का जो निर्णय किया था, वह कितना वैज्ञानिक है?
अंत में, इतना और कहना चाहूँगा कि किसी भी उत्सव के लिए सुरक्षा, खुशहाली, समृद्धि, परम्परा और प्रकृति प्रेरित करती है। आज, इन पाँचों आवश्यक तत्वों में से एक भी विद्यमान नहीं है तो सवाल उठता है और उठना भी चाहिए कि कैसा नया साल? कैसी मस्ती?
नया साल, ढेरों सवाल
Reviewed by rashtra kinkar
on
04:40
Rating:

No comments