विश्वशांति का उदघोष है गीता

विश्वशांति का उदघोष है गीता
पिछले सप्ताह गुजरात के हिम्मतनगर में दो दिवसीय संस्कृत-हिन्दी संगोष्ठी में उपस्थित देशभर से आये उस समय स्तब्ध रह गये जब रूस में ईसाई आथरेडोक्स चर्च से जुड़े एक संगठन की मांग पर वहाँ की एक अदालत द्वारा श्रीमद् भगवद्गीता को आतंकी साहित्य बताते हुए उस पर पाबंदी लगाने की जानकारी दी गई। सभी ने एकस्वर में इस निर्णय को मूर्खतापूर्ण बताते हुए इसे तुरन्त वापस लेने का प्रस्ताव पारित किया। इसी प्रकार का आक्रोश संसद से सड़क तक देखने को मिला। हमारे विदेशमंत्रीजी ने ‘गुमराह तथा उकसाए गए व्यक्तियों’ का काम बताते हुए वहाँ की सरकार से सम्पर्क करने की जानकारी दी। मास्को में हमारे राजदूत महोदय ने इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ कृष्णा कॉन्शियसनेस (इस्कान) की स्थानीय इकाई के प्रति सार्वजनिक तौर पर अपना समर्थन जताते हुए रूसी सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के सामने उठाया और अनुकूल और सकारात्मक हस्तक्षेप की मांग की। अब अदालत अपना अंतिम फैसला सुनाने से पहले तोम्स्क क्षेत्र में मानवाधिकार पर रूस के लोकपाल (औम्बुड्समैन), मॉस्को और पिट्सबर्ग में इसके अनुयायी (जो लोग इस पांबदी को खत्म करने के पक्ष में हैं) की राय जानेंगे। राजदूत महोदय ने गीता को एक अत्यंत महत्वपूर्ण धर्मग्रंथ बताते हुए इसे मानवता की निस्वार्थ सेवा का संदेश प्रसारति करने वाला बताया। संसद में भी गीता को ‘किसी भी घटिया प्रचार या उकसाए गए लोगों के हमले से ऊपर’ बताते हुए गीता को भारतीय सभ्यता के मूल की व्याख्या करने वाला बताया गया।
यह संतोष की बात है कि भारत में रूस के राजदूत ने भी गीता को भारत और दुनिया के लोगों के लिए ज्ञान का महान स्रोत बताया है। उनके अनुसार गीता पर प्रतिबंध की मुहिम चलाने वाले मूर्ख है क्योंकि रूस धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां सभी धर्माे के लोगों का समान आदर है। एक बयान में रूसी राजदूत श्री कदाकिन ने कहा, ‘विभिन्न विश्वासों के धार्मिक ग्रंथ, चाहे वह बाइबिल हो या पवित्र कुरान, तोराह, अवेस्ता और भगवद् गीता हो, भारत सहित दुनियाभर के लोगों के लिए ज्ञान का स्रोत है। किसी भी पवित्र ग्रंथ को अदालत में ले जाना गलत है. सभी धर्म के लोगों के लिए ये ग्रंथ पवित्र हैं. इनका परीक्षण वैज्ञानिक गोष्ठियों, कांग्रेस, सेमिनार आदि में होना चाहिए, न कि अदालतों में।’
गीता को आतंकी साहित्य घोषित करने की मांग करने वालों और अदालत के विचार से न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में शांतिपूर्वक रहने वाले करोड़ों हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुंची है लेकिन किसी अन्य धर्म, समुदाय की तरह हिंसा के विचार को भी अस्वीकार करने वालें हिन्दुओं ने सारी दुनिया के सामने एक बार फिर से अपनी महान ग्रन्थों के संदेशों की सार्थकता का प्रमाण प्रस्तुत किया है। यह सर्वविदित है कि गीता महाभारत का एक छोटा सा अंश है जो वास्तव में कुरूक्षेत्र के मैदान में हुआ कृष्ण और अर्जुन का संवाद है। उस संवाद का वर्णन अंधे धृतराष्ट्र के लिए उनका सारथी संजय करता है। गांधीजी कहा करते थे, ‘कुरुक्षेत्र का युद्ध तो निमित्त मात्र है। सच्चा कुरुक्षेत्र तो हमारा शरीर है। यही कुरुक्षेत्र है और यही धर्म क्षेत्र भी।” इसका मुख्य उद्देश्य अनासक्ति के सिध्दान्त का प्रतिपादन करना है। महान यूरोपीय दार्शनिक शॉपनहावर के अनुसार, ‘गीता मेरे जीवन का सबसे बड़ा सहारा है, गीता का किसी भी धर्मग्रंथ से कुछ लेना-देना नहीं है। वे पृथ्वी पर आए, उसके बहुत पहले ही वह आ गई थी।’ लोकमान्य बालगंगाधर तिलक से दिल्ली मेट्रो के जनक श्रीधरण तक गीता के प्रशंसकों की एक लम्बी कतार है। श्रीधरण तो अपनी सफलता के मूल में गीता को पाते हैं इसीलिए उन्होंने अपने सभी साथी कर्मचारियों को गीता भेंट की थी। अब जबकि वे इस वर्ष के अंतिम दिन सेवानिवृत्त हो रहे हैं, वे कहते हैं कि उनका सबसे बड़ा शौक रोज दो घंटे गीता पढ़ना होगा।
गीता भारतीय संस्कृति का प्राण आधार है। इसमें अर्जुन एक निमित्त मात्र है। गीता का मुख्य उद्देश्य मोह/आसक्ति दूर करना है। तीन बातें जो इसके सार रूप में प्रस्तुत की जा सकती है, वे हैं- निष्काम कर्म, देह की शुद्वता और स्व-धर्म की अबाध्यता। आसक्ति सांसारिक क्लेश का कारण है। विश्व के सम्मुख आज की सभी समस्याएं- प्रदूषण, पर्यावरण, स्खलन, साम्प्रदायिकता, हिंसा, आतंकवादी घटनाएं- ये सभी समाप्त हो जायेंगी, यदि सभी प्राणी अनासक्त भाव से अपना कर्म करेंगे। कट्टरता नहीं, गीता सिखाती है कि किसी के प्रति द्वेष न करे, करुणा का भंडार हो, निरहंकार हो, सुख-दुख जिसके लिए शीत-उष्ण समान हैं, हर्ष-शोक भय से मुक्त है, वह भक्त है। वह मानवता का प्रतीक है। गीता के अनुसार किसी भी प्राणी को, किसी भी समय, किसी भी प्रकार से मन, वाणी या शरीर के द्वारा जरा भी कष्ट न पहुंचाना- यही ‘अहिंसा’ है। सुख-दुख, जय-पराजय, लाभ-हानि, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, मित्र-शत्रु आदि जितने भी क्रिया, पदार्थ और घटना विषयता के हेतु माने जाते हैं, उन सब में निरन्तर राग-द्वेष रहित समबुध्दि रखने के भाव को ‘समता’ कहते हैं। जो कुछ भी प्राप्त हो जाये, उसी से सन्तुष्ट रहने के भाव को ‘तुष्टि’ कहते हैं। अपराध या किसी भी प्रकार से बदला न लेने के भाव को ‘क्षमा’ कहते हैं। स्व-धर्म के पालन के लिए कष्ट सहना ‘दान’ है। इस प्रकार गीता मोटे तौर पर मात्र एक हिन्दू धर्म-ग्रन्थ नहीं है, अपितु संसार को रहने लायक बनाना इसका उद्देश्य है। ऐसे में यह विचारणीय है कि गीता को लांछित करने के प्रयास आखिर क्यों किये गये?
पिछले दिनों ब्रिटेन के प्रधानमंत्री
डेविड केमरन ने किंग जेम्स की बाइबिल के 400वीं वर्षगांठ पर कहा कि ब्रिटेन ईसाई देश है और मैं खुद ईसाई हूँ, लेकिन अनेक धार्मिक मामलों में मेरे दिमाग में शक बना रहता है। इन शकों को दूर करने का एक तरीका यह भी है कि सभी धर्माे के ग्रंथ भी पढ़े जाएं।’
जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ चूंकि गीता इन ग्रंथों से अलग है इसलिए कुछ लोगों को इससे अपने आस्तित्व को खतरा महसूस होता होगा। यह विवाद खड़ा हुआ है, गीता के रूसी अनुवाद के कारण। इसका विरोध करने वालों का तर्क यह है कि एक ईसाई देश में हिन्दू धर्म ग्रंथ पर प्रतिबंध होना चाहिए लेकिन वे इस बात पर मौन रहते हैं कि दुनियाभर में फैले गैरईसाई देशों में बाइबिल का क्या होना चाहिए? यदि वहाँ गीता नहीं तो उनका ग्रन्थ इन देशों में कैसे चलेगा? क्या उन्हें स्मरण नहीं कि वह ईसाई मिशनरी ही हैं जिन्होंने दुनियाभर में अपने धर्म का प्रसार करने से धर्मान्तरण तक किस तरह के तरीके अपनाती रही हैं जो आज भी जारी हैे?
जहाँ तक रूस का प्रश्न है वहाँ लगभग 15 हजार भारतीय रहते हैं। उनसे भी ज्यादा आग्रह के साथ गीता पढ़नेवाले ‘एस्कॉन’ के वे हजारों भक्त हैं जो पूर्णतः रूसी हैं। अपनों के गीता-प्रेम से कुछ पादरियों को डरा दिया है। उन्हें इतनी भी समझ नहीं कि गीता उस तरह का धर्मग्रंथ नहीं है, जैसेकि बाइबिल या कुरान है। उन्हें शायद यह भ्रम है क्योंकि गीता की रचना कुरूक्षेत्र अर्थात् भारत में हुई है जहाँ की अधिकांश आबादी हिन्दू हैं इसलिए गीता हिन्दू धर्मग्रंथ हैं जबकि सत्य यह है कि गीता में तो हिन्दू शब्द एक बार भी नहीं आया है। श्रीकृष्ण-अर्जुन के संवाद से बनी गीता अनासक्त कर्मयोग सिखाने वाला एक वैज्ञानिक ग्रंथ है जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण मानवता का हित है।
श्रीमद्भगवद्गीता के 12वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैंः-
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी।।13।।
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।14।।
अर्थात- जो किसी से द्वेष नहीं करता, लेकिन सभी जीवों का दयालु मित्र है, जो अपने को स्वामी नहीं मानता और मिथ्या अहंकार से मुक्त है, जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सहिष्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें मन तथा बुद्धि को स्थिर करके भक्ति में लगा रहता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। शीतोष्णुसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः।।18।।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्। अनिकेतः स्थिरमति र्भक्तिमान्मे प्रियो नरः।।19।।
अर्थात- जो मित्रों तथा शत्रुओं के लिए समान है, जो मान तथा अपमान, शीत तथा गर्मी, सुख तथा दुख, यश तथा अपयश में समभाव रखता है, जो दूषित संगति से सदैव मुक्त रहता है, जो सदैव मौन और किसी भी वस्तु से संतुष्ट रहता है, जो किसी प्रकार के घर-बार की परवाह नहीं करता, जो ज्ञान में दृढ़ है और जो भक्ति में संलग्न है- ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय है।
गीता के इतने स्पष्ट संदेशों को जानकर वहाँ के पादरियों को यह डर सता रहा है कि फिलहाल रूस के आम लोगों को किसी भी धर्म के बारे में कोई खास जानकारी नहीं है क्योंकि बरसों तक कम्युनिस्टों ने धर्म को अफीम कहकर प्रतिबंधित रखा। अब यह भी संभव है कि उन्हें गीता पसंद आ गई तो उन्हें किसी अन्य ग्रन्थ की ओर लाना संभव नहीं होगा।
वैसे उनका तर्क है कि गीता युद्ध करना सिखाती है, हिंसा का उपदेश देती है।उन्हें कौन समझाये कि जब श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं, ”उठो, कौन्तेय! युद्ध करो! जीतोगे तो पृथ्वी पर राज करोगे और मारे जाओगे तो स्वर्ग मिलेगा” हिंसा नहीं है, अनासक्ति का उपदेश है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मोहमुक्त किया और उसे अपना कर्तव्य बोध करवाया। पादरियों को इस बात पर आपत्ति है कि गीता का कथन है, ”हे अर्जुन, सारे धर्मों को छोड़कर तू सिर्फ मेरी शरण में आ जा!” अपने कर्मो से भयभीत लोगों को डर है कि यदि सभी लोग कृष्ण या गीता की शरण में चले गए तो हमारा क्या होगा? वे इस भारतीय दर्शन को भी नहीं जानते कि जो ईश्वर, अल्लाह, गॉड, जिहोवा, अहुरमज्द में फर्क नहीं करता। यदि करता तो भारत भुमि पर दुनिया के सर्वाधिक मत कैसे पनपते? वास्तव में गीता जीवन का गीत है। उसकी उत्पति बेशक भारत भूमि पर हुई है लेकिन उद्देश्य सम्पूर्ण का हित है, विश्व शांति है!
विश्वशांति का उदघोष है गीता विश्वशांति का उदघोष है गीता Reviewed by rashtra kinkar on 00:25 Rating: 5

2 comments