इंतजार सच्चे गणतंत्र का



इंतजार सच्चे गणतंत्र का
गणतंत्र की एक और वर्षगांठ। एक बार फिर विवेचना। ‘गण’ और ‘तंत्र’ की छद्म निकटता की पोल खोल का अवसर ही नहीं, यह स्मरण करने का दिन भी है कि पूरी दुनिया को गणतंत्र का पाठ इसी धरा से पढ़ाया गया था। हमारे ही देश में प्रथम गणतंत्र स्थापित हुआ जिसकी सफलता पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया।
हजारों वर्ष पहले भी भारतवर्ष में अनेक गणराज्य थे, जहाँ शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्माण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहां यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है।
वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहां गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। कालांतर में, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हुए और राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव राजतंत्र की तरफ होने लगा। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलतः राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ।
महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने की बात आई है। महाभारत में गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। आगे चलकर यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया।
सैंकड़ो वर्षों की गुलामी और आजादी के नाम मिले विभाजन, रक्तपात और शरारती पड़ोसी के बाद 26 जनवरी 1950 को पुनः गणतंत्र बने भारत ने इन 62 वर्षों में अनेक आंधी-तूफानों का सफलतापूर्वक सामना किया है। उत्तर तथा पश्चिम से हमले झेले तो अनाज की भयंकर कमी का दौर देख। आयातित घटिया लाल गेहूं के दिनों को पीछे छोड़ते हुए हमने न केवल आत्मनिर्भरता हासिल की बल्कि निर्यात भी किया और खुले में पड़ी अनाज की हजरों बोरियों को बर्बाद होते भी चुपचाप देखा। देखा ही नहीं, आज भी स्थिति यही है कि हमारी सरकारों के पास अनाज रखने की पर्याप्त जगह है। जगह है तो तकनीक नहीं, स्टाफ नहीं। सब कुछ है तो भी संकल्प नहीं है। हमारे वैज्ञानिकों ने अनेक चमत्कार कर दिखाये तो आज हमारी सूचना प्रौद्योगिकी का लोहा सारी दुनिया मानती है। अमेरिका जैसा विश्व दादा भी बार-बार अपनी जनता को भारत की प्रतिभा का डर दिखाकर मेहनती बनाना चाहता है तो यह केवल और केवल इस देश के ‘गण’ की शक्ति प्रतिभा और समर्पण का अभिनंदन है। जय जवान, जय किसाान से जय विज्ञान इस देश के तंत्र की नहीं बल्कि ‘गण’ की शोभायात्रा है, जिसे सम्पर्ण विश्व दृग-नेत्रों से देख रहा है। अभिनन्दन है उन धरती पुत्रों की जिन्होंने अपनी जननी और जन्मभूमि की शान बढ़ाई।
... लेकिन तंत्र की विश्वसनीयता तो निश्चित रूप से घटी है क्योंकि कानून के शासन और कर्तव्य परायणता पर भाई-भतीजावाद, अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार हावी है। यह भी सत्य है कि देश में कानूनों की कमी नहीं हैं, नित नये भी बनते रहते हैं परन्तु ईमानदारी से क्रियान्वयन का अध्याय, लगता है सीरे सेे गायब है। देश का धन विदेशों में जा रहा है। शरारती पड़ोसी नकली नोट भेज रहा हैं, अवैध हथियारों संग आतंकवादी, नक्सलवादी,, और न जाने कौन- कौन देश के हर कोने तकअपनी पैंठ बनाये हुए हैं तो केवल इसी लिए कि ‘तंत्र’ की आंखें पूरी तरह से खुली हुई नहीं है। यह पूछना बेकार है कि आंखें जानबूझकर नहीं खोली जा रही है या स्वार्थ की पट्टी ने उन्हें ढक लिया है।
हाँ, ‘तंत्र’ एक कार्य पूरी निष्ठा से कर रहा है, वह कार्य है इस देश को ‘भारत’ और ‘इण्डिया’ में विभाजित करना। देश में दोहरी शिक्षा प्रणाली है तो दोहरी स्वास्थ्य व्यवस्था भी। सुरक्षा के अलग-अलग मापदंड हैं तो बिजली, पानी, सड़क जैसी आवश्यक सुविधाओं की उपलब्ध्ता भी एक जैसी नहीं है। पिछडे क्षेत्रों का अंधेरा और अमीरों की बस्ती की जगमगाहट कहीं भी देखी जा सकती है। दुर्भाग्य से ये दोहरे मापदंड किसी एक दल के शासन तक सीमित नहीं रहे। सांपनाथ, नागनाथ, से भुजंगनाथ तक ‘तंत्र’ ने ‘गण’ का शोषण ही किया है अर्थात् राजनैतिक शुचिता की कोरी बातें करने वाले भी इस अंधेरगर्दी से अपने आपको बचा नहीं सके हैं।
कहने का जनता-जनार्दन है लेकिन राजा कौन है, सभी जानते हैं। ‘राजा’ से अभिप्राय 2जी वाले ‘राजा’ अथवा ‘सुरेश’ से नहीं, युवराजों की फौज से है जो इधर-उधर हर जगह छाए हुए है। जनता ‘जनार्दन’ नहीं, ‘बेचारी’ बनी दिन-काट रही है क्योंकि उसके लिए बने अस्पतालों में इलाज के नाम पर लम्बी लाइनें तो हैं लेकिन गंभीर रोगी के लिए बिस्तर, बैड भी नहीं है। रेल के सामान्य डिब्बे में पैर रखने की जगह नहीं, बसों के मामले में भी बेबसी है। उसके बच्चों के स्कूलों की दशा देश के पिछड़े और दूर-दराज के क्षेत्रों मंे कैसी होगी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि देश की राजधानी के सरकारी स्कूलों में भी एक कक्षा में सौ से अधिक छात्र देखे जा सकते हैं। स्कूलों में कमरे हैं, बेंच है, ‘मिड डे मील’ हैं लेकिन पढ़ाई की स्थिति कैसी है, यह मत पूछो। तंत्र नकल करवाकर अच्छे परिणाम दिखाकर अपनी पीठ स्वयं ठोक सकता है लेकिन सच्चाई पर पर्दा नहीं डाल सकता। दूसरी ओर एक वर्ग के लिए ढ़ेरों शिक्षा की दुकानें खुली हैं। शिक्षा माफिया है जो नेताओं और अधिकारियों को जेब में रखने का दावा करता है। सच ही होगा वरना दाखिले के नाम पर धांधली, 25 रूपये का फार्म 500 में खुलेआम बिकने के बाद भी उनका बाल बांका न होना यानि सैंकड़ों शिकायतों के बाद भी तंत्र हाथ पर हाथ रखे बैठा रहे, यह मिली भगत के बिना कैसे संभव हो सकता है?
भ्रष्टाचार और कालेधन पर खूब बढ़-चढ़कर बातें करते करने वाले क्या इतना भी नहीं जानते कि यह ‘तंत्र’ की निष्क्रियता अथवा मिली भगत के बिना संभव नहीं है। आज प्रश्न यह नहीं कि काले धन का क्या किया जाए बल्कि यह होना चाहिए कि धन काला हुआ ही क्यों? यह तंत्र और नियमों की असफलता नहीं तो और क्या है? नियमों की समीक्षा कब होगी? क्या नियमों का बोझ, भारी भरकम टैक्स ही तो काले धन की उत्पति के लिए जिम्मेवार नहीं है? कालेधन के भ्रष्टाचार से उत्पन्न तथा नियमों की अतिवादिता से उत्पन्न में भेद करने की सोच कब पैदा होगी? एक ही मामले में अनेक टैक्स लगाना कितना उचित है? उदाहरण के तौर पर दिल्ली में छोटी-मोटी दुकान चलाने वाले से दुकान पंजीकरण, कंवर्जन चार्ज, सामान्य से 10 गुणे से भी अधिक सम्पत्ति कर, नगर-निगम का व्यापार लाईसेंस, सेल्स टैक्स (वैट), इन्कम टैक्स और न जाने कितने प्रकार के वसूली के केन्द्र है। ऐसे में ‘गण’ ‘तंत्र’ से आंखे मिलाते हुए डरता है यानी जनार्दन जनता नहीं, तंत्र ही है। गण तो बिना अपराध किये भी अपराधबोध से ग्रस्त है। इसे गणतंत्र की सफलता तो हर्गिज नहीं मानी जा सकता। गुण्डेे, आतंकी, नक्सली और उनके भाई बंध फल-फूल रहे हैं क्योंकि तंत्र इनपर गन तानने से डरता है जबकि शरीफ आदमी के लिए ‘गणतंत्र’ गनतंत्र बना हुआ है।
यह गणतंत्र की सफलता है या कुछ और फैसला करना मुश्किल हो रहा है कि आखिर राजनीति का आकर्षण दिनों-दिन क्यों बढ़ता जा रहा है। नेताओं का साम्राज्य दिन दुगनी-रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। चुनाव महंगा कर्मकांड बनते जा रहे हैं जबकि चुनाव आयोग लगातार सख्ती का ढिंढ़ोरा पीट रहा है। क्या मूर्तियां स्थापित होते देखते रहना और ऐन चुनाव के वक्त उन्हे ढकने का आदेश गण की खून-पसीने की कमाई का दुरुपयोग नहीं है? और हां, चुनाव के बाद मूर्तियों से कपड़ा हटाने का खर्च भी होगा, उसकी चिंता भी तो जनता को ही करनी है।
सच तो यह है कि देश की सभी समस्याओं, सभी चुनौतियों की चिंता जनता को ही करनी है। गण को ही तंत्र की लगाम कसनी होगी। दागी उम्मीदवार किसी भी पार्टी हो, उसे सबक सिखाये बिना सच्चे गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। राजा हो या कुशवाहा, कलमाड़ी हो या माया के चारण इन्हें सजा तंत्र नहीं दे सकता क्योंकि रहबर और राहजन भाई-भाई हैं। दोषियों को सजा न मिलने की हीस पीड़ित को सालती है तो उसे चुनाव के दिन घर बैठे रहने की अपराधिक भूल सुधारनी होगी। बटन दबाकर या मोहर लगाकर गण और तंत्र के बीच दीवार बने विषधरों का सफाया करना होगा, तभी कह सकेंगे हम है सबसे बड़ा गणतंत्र! सच्चा गणतंत्र!!
यहाँ इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि राजा का शाब्दिक अर्थ जनता का रंजन करने वाला या सुख पहुंचाने वाला से है। हमारे यहां राजा की शक्तियां सदैव सीमित हुआ करती थीं। जनमत की अवहेलना एक गंभीर अपराध था, जिसके दंड से स्वयं राजा या राजवंश भी नहीं बच सकता था। राजा सागर को अपने अत्याचारी पुत्र को निष्कासित करना पड़ा था। महाभारत के अनुशासन पर्व में स्पष्ट कहा गया कि जो राजा जनता की रक्षा करने का अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं करता, वह पागल कुत्ते की तरह मार देने योग्य है। राजा का कर्त्तव्य अपनी जनता को सुख पहुंचाना है। बौद्ध साहित्य की चर्चा सामयिक होगी क्योंकि एक बार महात्मा बुद्ध से पूछा गया कि गणराज्य की सफलता के क्या कारण हैं? इस पर बुद्ध ने सात कारण बतलाए थे-
1. जल्दी- जल्दी सभाएं करना और उनमें अधिक से अधिक सदस्यों का भाग लेना।
2. राज्य के कामों को मिलजुल कर पूरा करना।
3. कानूनों का पालन करना तथा समाज विरोधी कानूनों का निर्माण न करना।
4. वृद्ध व्यक्तियों के विचारों का सम्मान करना।
5. महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार न करना।
6 स्वधर्म में दृढ़ विश्वास रखना।
7. अपने कर्तव्य का पालन करना।
अब यह फैसला गण को ही करना है कि हमारा आज का गणतंत्र कितना सफल है।
23 जनवरी को देश की स्वतंत्रता के महानायक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जयन्ती पर नोटों पर सुभाष का चित्र और देशवासियों के हृदयों पर सुभाष जैसी देशभक्ति की छाप स्थापित करने के लिए बहस को आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी हम सब को लेनी होगी। जय हिंद! जय भारत!!
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