अंतर दो संस्कृतियों का
बातचीत में हम अपनी संस्कृति को बेशक बहुत महत्व न देते हों लेकिन हमारी दिनचर्या, हमारा व्यवहार, अपने पूर्वजों द्वारा संचित संस्कृति का प्रतिबिंब ही तो है। कुछ तथाकथित आधुनिक लोग तो संस्कृति शब्द से ही चिढ़ते हैं। हर उस वस्तु, विचार अथवा परम्परा के प्रति उनके मन में प्रेम का सागर उमड़ने लगता है जिससे पश्चिम अथवा वहाँ की संस्कृति, विकृति कुछ भी जुड़ी हो। निज सांस्कृतिक गौरव के आनंद से वंचित ऐसे लोगों की तन्द्रा नार्वे की ताजा घटना भी शायद ही भंग कर सके जिसमें एक भारतीय दम्पत्ति के दो बच्चे छीने जाने का समाचार है। बहुत संभव है अपनी जड़ों से कटे हुए हमारे अपने ही भाई इसे हमारे पिछड़ेपन का प्रतीक बताकर नार्वें सरकार के निर्णय को उचित ठहराने का प्रयास भी करें।
एक भारतीय भूवैज्ञानिक अनूप भट्टाचार्य पिछले कुछ वर्षों से नार्वे में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। बाद में उनकी पत्नी भी उनके साथ रहने नार्वे पहुंच गई। इस दम्पत्ति के दो छोटे बच्चें तीन वर्ष और एक वर्ष भी है।ं किसी भी सामान्य भारतीय माता- पिता की तरह यह भट्टाचार्य दम्पत्ति अपने बच्चों की देखभाल करते। वे अपने छोटे- छोटे बच्चों को अपने हाथों से खाना खिलाते, रात्रि में अपने साथ सुलाते, माँ बच्चों को लोरी सुनाती, रोने पर बहलाती। यह सब करना अपराध हो सकता है वे इस तथ्य से अनजान थे, इसी बात की सजा भट्टाचार्य दम्पत्ति तथा उनके अबोध बच्चेे पिछले कई महीनों से भुगत रहे हैं। बच्चों को छीनते हुए अपने ही बच्चों संग क्रूरता का आरोप लगाया जाना भट्टाचार्य दम्पत्ति के लिए यंत्रणा सरीखा है।
पिछले मार्च में इस परिवार का तीन वर्ष का बच्चा पास के एक स्कूल में भेजा गया। इतना छोटा बच्चा जिसकी मातृ भाषा बंगला हो, अचानक नार्वेजियन भाषा-भाषी बच्चों में पहुँचा तो वह संभवतः कुछ सहमा रहा क्योंकि भाषायी भिन्नता बच्चों से उसके संवाद में बाधक रही होगी।
स्कूल अधिकारियों ने बच्चे के व्यवहार को असामान्य और सनकी घोषित करते हुए कहा कि संभवतः बच्चे के अभिभावक उसका पालन पोषण ठीक से नहीं कर रहे हैं इसलिए उनके घर जाकर जाँच करने की आवश्यकता है। इसके बाद संस्था के लोग भट्टाचार्य परिवार के पास जाँच करने गए तो उन्होंने पाया कि माँ अपने बच्चों को अपने हाथ और अंगुलियों से तथा जरुरत से ज्यादा खाना खिलाती है। वह कुछ थकी हुई तथा धैर्यहीन भी लगती है। एक बच्चा रात्रि में अपने पिता संग सोता है जोकि अमानवीय और क्रूर व्यवहार है। रिपोर्ट के अनुसार वह परिवार बच्चों की देखभाल में सक्षम नहीं हैं इसलिए बच्चे उनसे छीन लिए जाने चाहिए।
अपनी नार्वे यात्रा के दौरान मुझे यह जानकारी मिली थी कि वहाँ बाल अधिकार कानून बेहद सख्त है। बच्चों के लिए अलग से लोकपाल है। पश्चिमी देशों में माता -पिता द्वारा डांटने पर बच्चा विशेष नम्बर पर फोन कर पुलिस भी बुला सकता है। हर बच्चे को उसके इस अधिकार की जानकारी बार-बार दी जाती है ताकि उसके अभिभावक उसका ‘शोषण’ न कर सकें। अपने यात्रा-संस्मरण ‘इब्सन के देश में’ मैंने इसका उल्लेख भी किया है।
वहाँ प्राप्त जानकारी का वास्तविक रूप उस समय देखने को मिला जब भट्टाचार्य परिवार से संबंधित मामले की रिपोर्ट एक अदालत में प्रस्तुत की गई तो अदालत ने फैसला सुनाया- ‘चूकीं अभिभावक बच्चों का ठीक से पालन-पोषण नहीं कर रहे हैं इसलिए दो अलग-अलग परिवार इन बच्चों के 18 वर्ष का हो जाने तक उन्हें अपने साथ रखकर देखभाल करेगे। बच्चों से उनके असली माता-पिता एक वर्ष में केवल एक बार, एक घंटे के लिए उनसे मिल सकेगंे।’
बस उसी दिन से बच्चे अपने जनक- जननी से दूर हैं। इधर माता-पिता की हालत खराब है। शीघ्र ही उनके नार्वे प्रवास की अवधि समाप्त होने जा रही है। उन्हें इस बात की आशंका सता रही है कि स्वदेश लौटते समय बच्चे उनके साथ भारत लौट भी सकेगे या नहीं?
भारतीय परिवेश और परम्पराओं के अनुसार बच्चें को उसके अभिभावकों से अलग करना क्रूरता है लेकिन पश्चिम की मान्यताएं इससे काफी अलग हैं। हम अपने बच्चेे को प्यार से गोद में बैठाते हैं। उन्हें लाड-प्यार करते हुए जिस संवेदना और वात्सल्य स्पर्श को महत्वपूर्ण मानते है वह वहाँ अपराध है। वहाँ गाड़ी में छोटे से छोटे बच्चें को अलग सीट पर बेल्ट बांधकर बैठाया जाता है न कि हमारी तरह माँ की गोद में। बच्चे को सीट पर बांधकर दूध पिलाया, खाना खिलाया और उसे उसके अलग कमरे में सुला दिया जाता है। हम माँ, दादी की लोरी को संस्कारों के प्रत्यारोपण का माध्यम मानते हैं लेकिन उनका जोर शुरु से ही कठोर अनुशासन पर रहता है। अमेरिका में रहने वाले एक मित्र के अनुसार बच्चे पिता का नाम लेकर पुकारते हैं जबकि हमारी संस्कृति श्रद्धा और सम्मान की पक्षधर है।
भारतीय संस्कृति माँ और बच्चे के भावनात्मक संबंधों को उसके भावी जीवन की नींव मानती है। बच्चा माँ के व्यवहार से प्रत्यक्ष प्यार, समर्पण, त्याग जैसे संस्कार ग्रहण करता है। बच्चे को सुख देने के लिए भारतीय माँ घोर कष्ट तक हंसते- हंसते सहती है जबकि पश्चिम में अपने अलग कमरे में सोए बच्चे के हंसने, रोने की जानकारी तक उन्हें कम ही होती है। उनका सरोकार इतना है कि बच्चा समय पर ठीक से खाए, सोए और सक्रिय रहे। वहाँ बच्चे आपके नहीं, राष्ट्र की धरोहर हैं इसलिए उनके लिए सुविधाएं उपलब्ध करवाना सरकारी कर्मकांड है जबकि भारतीय संस्कृति भौतिक सुविधाओं से ज्यादा जरूरी भावनात्मक लगाव की पक्षधर है। हम अपने बच्चे को महंगे खिलौने दिलवा सके या न दिलवा सके, उन्हें चन्दामामा से जोड़ते हैं, दादा- दादी, नाना-नानी के सुखद स्पर्श और अनुभूतियों से जोड़ते हैं जबकि वहाँ माँ-बाप भी सीमित हैं। हम विवाह को सात जन्मों का संबंध मानते हैं लेकिन उनके लिए विवाह एक अनुबुध है। जब तक निभा, निभाया और फिर इस एग्रीमेन्ट को भंग कर नया एग्रीमेन्ट कर लिया। हमारे लिए रिश्तों का महत्व है।माता- पिता अपरिर्वतनीय है लेकिन बच्चे के जीवन में एक से अधिक पिता होना आम बात है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति ने भी एक से अधिक पिता (तलाक के बाद माँ के नए पति) होना स्वीकारा है। फ्रांस के वर्तमान राष्ट्रपति ने अधेड़ उम्र में एक और विवाह कर एक बच्चे का पिता बनने का गौरव प्राप्त किया। उनकी वर्तमान पत्नी भी पूर्व में विवाहित रह चुकी है। हमारी संस्कृति तो पिता क्या, दादा, पड़दादा के बाद भी हर वर्ष एक विशेष अवसर पर श्रद्धापूर्वक श्राद्ध का संदेश देती है।
यही नहीं ऐसी अनेक भिन्नताएं हमारे और पश्चिमी जन जीवन में हैं। यहाँ यह अभिप्राय हर्गिज नहीं है कि उन्हें हेय साबित किया जाए। उनकी अपनी मान्यताएं हैं जो सर्वथा अलग परिवेश और परिस्थितियों की उपज है। हम उनकी संस्कृति पर अपने संस्कार थोपना नहीं चाहते लेकिन हमारे ही बीच जो पश्चिम के अंध समर्थक हैं, उन्हें जरुर इन विसंगतियों के प्रति सावधान करना चाहते हैं। जो पश्चिम के लिए ठीक है उसे हम भी आँख-मूंद कर स्वीकार कर लें, ऐसा आग्रह अनुचित है। जिस प्रकार अलग- अलग वातावरण में अलग तरह के जीव जन्तु, वनस्पति होती है ठीक उसी प्रकार से मनुष्यों की जीवन शैली में भिन्नता भी संभव है। जब प्रकृति ने हमें हजारों तरह के ताजे फल, सब्जियां दी हैं तो हम डिब्बाबंद, बासी, रासायनिक पदार्थाें से संरक्षित अथवा फास्ट फूड क्यों ग्रहण करें? जो दूसरों की विवशता है उसे फैशन समझकर अपनाना हमारे विवेक पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।
हमारी संस्कृति बच्चों को माँ से अलग करने के विचार को ही अस्वीकार्य करती है। यह ठीक है कि हर बच्चे को बेहतर संरक्षण मिलना चाहिए लेकिन उसे मातृ-विहिन करना उस बच्चे संग अत्याचार है। बच्चा अपने साधनहीन माता-पिता की गोद में जितना सुखी और सुरक्षित है, उतना किसी साधन सम्पन्न लेकिन ममता रहित संग नहीं हो सकता। बच्चें को भौतिक साधन दूसरे भी दे सकते हैं लेकिन माँ जो दे सकती है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
मनोवैज्ञानिकों का भी मत है कि जिस बच्चे को बचपन में माँ का प्यार नहीं मिलता, उसके व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास संभव नहीं है। माँ, मातृभाषा, मातृभूमि का वरदहस्त हर मनुष्य का प्रथम अधिकार है। उसे उससे वंचित करने वालों को एक बार फिर से विचार करना चाहिए। राष्ट्र-किकर अपने सम्पूर्ण पाठकों की ओर से नार्वे दूतावास के माध्यम से वहाँ की सरकार से बच्चों को उनके माता- पिता से अलग करने के फैसले को बदलने की मांग करता है। बेशक भट्टाचार्य दम्पत्ति का वीजा रद्द कर दिया जाए लेकिन उनकी ममता को अपमानित करना अमानवीय और क्रूर है।
संस्कृति वह तत्व है जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की चेतना, उसके अस्तित्व और उसके गौरव को सुरक्षित, संरक्षित एवं विकसित करने में महत्वपूर्ण लेकिन सहज भूमिका निभाता है। यही वह शक्ति है जो हम सब को आपस में एक-दूसरे से सहयोग करने को उद्यत करती है। संबधों को संवेदनशीलता की डोरी से जोड़े रखती है। एक सुसंस्कृत व्यक्ति जानता है कि देश, काल, परिस्थितियों में परिवर्तन के बावजूद अपने संस्कारों को कैसे अक्षुण रखा जाता है। भौतिकता के झोंके आंधी तूफान पेड़-पौधों की तरह उसकी टहनियों और तने को झूमा सकते हैं लेकिन उसकी जड़े अविचल रहती है। संस्कृति ही वह शक्ति जो दुनिया के विभिन्न देशों में रह रहे भारतपुत्रों को उनकी पितृभूमि, पुण्यभूमि से जोड़ती है। जाति, धर्म, भाषा, भोजन के अंतर अपने पूर्वजों की संस्कृति की छत्रछाया तले गौण हो जाते हैं। (picture In Oshlo, Norway)
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