
लोकतंत्र में अनिवार्य मतदान
इस वर्ष के प्रथम माह में हुए कुछ विधानसभा चुनावों में सामान्य से अधिक मतदान का समाचार जहाँ रोमांचित करता है वहीं अनिवार्य मतदान के मुद्दे पर राजनैतिक दलों की प्रतिक्रिया निराश करती है। लोकतंत्र में लोक कल्याण, लोक अधिकार, संग लोक जागरण भी जरूरी है। आश्चर्य है कि इस देश का एक वर्ग जो अधिकारों की बात तो बढ़-चढ़कर करता है लेकिन कर्तव्य के प्रति चुप्पी साध जाता है। दुर्भाग्य की बात यह है कि मतदान के अवसर पर घर बैठे रहने वाला यह वर्ग स्वयं को प्रबुद्ध कहलाना पसंद करता है। मतदान के आसपास घुमने निकल जाने वाला यह वर्ग लोकतंत्र के प्रति अपने कर्तव्य का उपहास करता है, इसके लिए इनकी आपराधिक निष्क्रियता को हल्के से नहीं लिया जा सकता। ऐसे लोग व्यवस्था से बढ़-चढ़कर लाभ लेना तो नहीं भूलते लेकिन व्यवस्था के निर्माण के लिए मतदान के लिए थोड़ा समय निकालने की बजाय व्यवस्था को असफल बताते हुए उसे कोसने में अग्रणीय देखे जा सकते हैं।
यह सत्य है कि भारत में चुनाव व्यवस्था पूरी तरह सफल नही ंकही जा सकती क्योंकि पिछले कुछ वर्षोंं में क्षेत्रीय और जातिवादी दलों का उभरना और बहुकोणीय मुकाबलेे के कारण खंडित जनादेश मिलना लोकतंत्र की गरीमा को ध्वस्त करता है। चुनावी जीत के अंतर्विरोध अनेक उदाहरणों से भरे हैं। आधे से भी कम मतदान, उस पर भी बंट जाना, ऐसे कारक हैं जो कुल वोटों का 10 से 20 प्रतिशत हासिल करके ही उम्मीदवार चुनाव जिताता हैं। ऐसी स्थिति को बहुसंख्यकों का जनादेश कहना संभव नहीं हैे क्योंकि यह वास्तव में अल्पसंख्यकवाद ही है। यह भी कटू सत्य है कि ऐसे तमाम साक्ष्यों के बावजूद, इस दोषपूर्ण व्यवस्था से लाभान्वित होने वाले हमारे नेता इस रोग की जड़ काटने के इच्छुक नजर नहीं आते। किंतु वे तमाम लोग जो सच्चें लोकतत्र के पक्षधर हैं, इस बीमारी का निदान तलाशते रहते हैं।
अनेक समाधानों में सबसे आवश्यक है-अनिवार्य मतदान। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को गहराई और सार्थकता प्रदान करने की दिशा में यह एक कदम होगा। यह विचार मौलिक अथवा नवीन भी नहीं है क्योंकि इसे विश्व के 33 देशों में प्रभावी ढंग से चल रहा है।ं कुछ देशों में तो यह एक सदी से भी पहले से लागू है। इनमें से प्रमुख हैं बेल्जियम, स्विट्जरलैंड, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, अर्जेटीना, आस्ट्रिया, साइप्रस, पेरू, ग्रीस और बोलीविया। 1892 में मतदान को अनिवार्य कर बेल्जियम ने इस दिशा में पहला कदम उठाया। 1924 में आस्ट्रेलिया ने इसे लागू किया। कुछ देशों में तो मतदान न करने पर सजा का प्रावधान भी है जैसे- बैल्जियम में वोट न डालने वाले व्यक्ति के लिए नौकरी पाना मुश्किल हो जाता है। लगातार चार चुनावों में वोट न डालने वाला व्यक्ति अगले 10 साल तक वोट नहीं डाल सकता।
ऑस्ट्रेलिया में मतदान केन्द्र पर हाजरी न लगाने वाले मतदाता को 20 से 50 डॉलर दंडस्वरूप चुकाने होते हैं। जुर्माना अदा नहीं करते, उन्हें जेल की हवा खानी पड़ सकती है। स्विट्जरलैंड, आस्ट्रिया, साइप्रस और पेरू में भी मतदान से गैरहाजिर रहने वालों पर जुर्माना लगाया जाता है।वैसे यदि वह चाहे तो मतदान केन्द्र जाकर बिना किसी को वोट दिए आ सकता है। युनान में वोट न डालने पर पासपोर्ट या अन्य लाइसेंस लेना मुश्किल बन जाता है। सिंगापुर में जो लोग वोट नहीं डालते उनका नाम सूची से हटा दिया जाता है जिसे फिर से दर्ज कराने में काफी मुश्किल है। बोलीविया में मतदान न करने पर वेतन कट जाता है।
हमारे देश में मतदान को अनिवार्य की चर्चा कभी-कभी हवा के झोंके की तरह आकर गायब हो जाती है। गुजरात सहित कुछ राज्यों ने स्थानीय संस्थाओं जैसे कि महानगरपालिका, नगरपालिका और पंचायत चुनावों में मतदान अनिवार्य करने का कानून बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए भी तो वे राजनैतिक उलझाव में भटक गये। आज जरूरत है संविधान में मौलिक कर्तव्यों से संबंधित धारा में अनिवार्य मतदान का प्रावधान शामिल करना चाहिए। मतदान को मौलिक कर्तव्यों में शामिल किया जाना चाहिए।
कम वोटों के सहारे जीत हासिल करने वाले राजनीतिक दलों द्वारा ऐसे प्रावधान के विरोध में की जाने वाली अडं़गेबाजी स्वाभाविक है। परंतु भारत के लोकतंत्र को सशक्त और प्रभावी बनाने के लिए यह फैसला लेना ही होगा। अगर हम इसमें असफल रहे हैं अर्थात मतदान की अवमानना करने की छूट देना बंद नहीं करते तो लोकतंत्र विरोधी ताकतें इसी तरह से चुनाव का मजाक बऩाती रहेंगी। सभी दलों को इस बात पर अपनी राय स्पष्ट करनी चाहिए कि अनिवार्य मतदान से उन्हें आपत्ति क्यों? जो अनिवार्य को स्वतंत्रता का हनन मानते हैं उन्हें पुलिस सहित नागरिक सुरक्षा के लिए तैनात व्यवस्था के औचित्य पर भी अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए। क्या ऐसी व्यवस्था, नियम, प्रतिबंध नागरिक स्वतंत्रता का हनन हैं या नहीं? क्या व्यवस्था को सफल बनाने के लिए दुनिया के हर समाज ने कुछ अधिकारों को नियंत्रित नहीं किया है? क्या कर्तव्य के बिना अधिकारों का कोई अर्थ है?
आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि 18 वर्ष से अधिक उम्र के हर नागरिक के लिए मतदान प्रक्रिया में भाग लेना अनिवार्य बनाया जाए। यदि कोई भी उम्मीदवार या दल पसंद न हो तो भी मतदान प्रक्रिया में हिस्सा ले। इसके लिए मतदाता को “कोई योग्य नहीं” का विकल्प भी दिया जानी चाहिए,। यदि कोई मतदाता बीमार हो, राज्य अथवा देश से बाहर हो, मतदान केन्द्र आ सकने में असमर्थ हो या फिर अन्य कोई वैध वजह हो तो उसे छूट मिलनी चाहिए। मतदान न करने पर आवश्यक सबूत न दिखाने की सूरत में मतदाता को मिलने वाली सरकारी राहतों पर रोक लगनी चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि चुनी हुई सरकार लोगों के विशाल वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है. इससे जनादेश स्पष्ट होगा। यह भी स्पष्ट होगा कि कितने प्रतिशत लोग किसी भी दल को सही नहीं मानते। इससे अयोग्य उम्मीदवारों के लिए जीत मुश्किल होगी।
आज के समय में अगर देखा जाये तो अनिवार्य वोटिंग से किस तरह से देश का परिदृश्य बदल सकता है तो साम्प्रदायिक और जातिवादी दलों के लिए मुश्किल बढ़ेगी। शिक्षित और समाज के सभी वर्गों के लोगों के वोट देने से निश्चित तौर पर लोकतंत्र मजबूत बनेगा।
अनिवार्य मतदान की चर्चा फिर से शुरू करने वाले भाजपा नेताओं को यह ध्यान दिलाना सामयिक होगा कि मतदान के दिन घर बैठे रहने अथवा पिकनिक मनाने बाहर जाने वाला तथाकथित प्रबुद्ध मतदाता उसी का समर्थक है। पार्टी को सबसे पहले अपने समर्थकों को जागरूक करने का अभियान चलाना चाहिए। वह समर्थक ही कैसा जो अपने प्रिय दल को वोट देने के लिए घर से ही न निकले? क्या यह सत्य नहीं कि कुशल प्रशासक के रूप में ख्याति प्राप्त श्री जगमोहन को पिछले चुनावों में नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र से इसलिए हार का मुंह देखना पड़ा था क्योंकि उनकी प्रशंसा करने वाले लोगों ने घर से निकलना गंवारा नहीं किया। लेकिन उनकी हार पर आंसू बहाने में भी वे सबसे आगे थे। ऐसे ढोंगी लोगों को अनिवार्य मतदान का कानून बनाकर ही रास्ते पर लाया जा सकता है।

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