एक संवाद प्रेम को बदनाम करने वालो से

एक संवाद प्रेम को बदनाम करने वालो से
प्रेम मानवीय आवश्यकता है। इसके बिना तो संसार निस्सार है परंतु क्या प्रेम का स्वरुप देश काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होता रहता है? क्या मनमाना रूप ग्रहण कर लेना ही प्रेम का स्वरुप है? क्या प्रेम महज दैहिक अभिव्यक्ति है? क्या युवा अवस्था में किसी के प्रति मन में उठ रही भावनाएं ही प्रेम हैं? शायद नहीं क्यांेकि प्रेम इतना गिर नहीं सकता। प्रेम शक्तिशाली ही कर सकते हैं। वह शक्ति शरीर की नहीं, मन में निहित है। कमजोर मन फौरन प्रतिफल चाहता है क्योंकि वह प्रेम नहीं, व्यापार करता है। हमारे संतो, ऋषियों, विचारकों ने प्रेम का गुणगान किया है। संत कबीर कहते हैं-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित हुआ न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।
कृष्ण भक्त कवि रसखान ने कहा है-
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।
जो जन जानै प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोइ।
गुरुगोविंद सिंह जी फरमाते हैं-
सांच कहू सुन लीजो सदा,जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभ पायौ।
इसीलिए मैं भी प्रेम करता हूँ- अपनी माँ से, अपनी मातृभूमि से, अपनी मातृभाषा से, ...और उन सबसे जो भारत को अपनी जन्मभूमि, पुण्यभूमि मानकर इसके यश में श्रीवृद्धि कर रहे हैं। वे सब जो अपने माता-पिता को आदर देते हैं, अपने बच्चो को देश का सुयोग्य और जिम्मेवार नागरिक बनाना चाहते हैं। मेरे प्रेमियों की लिस्ट बहुत लम्बी है लेकिन पिछले कुछ वषों से प्रेम के नाम पर समाज में अश्लीलता, फूहड़ता, वासना और सेक्स को परोसा जा रहा है, उसे प्रेम का नाम देना उचित नहीं है। वैलेंटाइन डे सहित तमाम अन्य ‘डे ओ’ पर जो कुछ देखने को मिलता है, हो सकता है वह पश्चिमी संस्कृति में गलत न हो लेकिन हमारी सभ्यता और संस्कृति में इसे अश्लीलता ही कहा जाएगा। प्रेम दिवस के मौके पर सड़कों और पार्कों में खुलेआम आलिंगनबद्ध होना आखिर क्या है?
अपने अनुभव के आधार पर दावा कर सकता हूँ कि पश्चिमी समाज में मनाए जाने वाले वैलेंटाइन डे, रोज़ डे, फादर्स डे, मदर्स डे आदि की प्रासंगिकता इसलिए है क्योंकि वहां सब कुछ औपचारिक है। किसी को किसी से विशेष लगाव नहीं है। सब अलग-थलग हैं। यूरोप प्रवास के दौरान एक मित्र के यहाँ जाने पर उनके बच्चों के बारे में पूछा तो वे परेशान दिखाई दिये। दरअसल उनके युवा बेटा-बेटी उनसे अलग रहते थे। ‘क्या वे शादी कर चुके हैं?’ के जवाब में उन्होंने उत्तर दिया था, ‘नहीं अभी ही पढ़ाई पूरी कर जॉब में आए है।’ ‘क्या किसी दूर शहर में नौकरी है?’ का उत्तर देते हुए बहुत लज्जित थे वे मित्र क्योंकि बच्चे उसी शहर में उनसे अलग रहते थे और कभी-कभार फोन पर ही उनसे सम्पर्क हो पाता था। शायद इसी कारण किसी खास दिन अपनों के प्रति अपना प्रेम, प्रदर्शित किया जाता हैं। अब यह वायरस तेजी से हमारे देश में भी फैल रहा है।
पिछले कुछ वर्षों से इस दिन के प्रति युवाओं पर मीडिया और बाजार का भारी दबाव रहता है तो दूसरी ओर कुछ संगठन इसका विरोध करते हैं। आम दिनों में प्रेमी-युगल पार्क आदि में प्रेम प्रदर्शन करते पाये जाऐं तो पुलिस हस्तक्षेप करती है किंतु वैलेंटाइन डे पर वही पुलिस न केवल इनकीें पहरेदार बन जाती है, बल्कि जो इनके प्रेमालाप में विघ्न डालता है उसके पीछे डंडे लेकर दौड़ पड़ती है। प्रश्न यह है कि क्या प्रेम के लिये वर्ष भर में केवल एक दिन ही पर्याप्त है? क्या शेष 364 दिन लड़ाई झगड़े में गुजारेंगे? यदि प्रेम है तो इसे स्थाई होना चाहिये जो कि वैवाहिक संबंध से ही संभव है। केवल वासना पूर्ति को प्रेम कहना गलत है। पशुओं में यौन संबंधों के लिये रिश्तों का बंधन नहीं होता। पशु दैहिक संबंध के पश्चात अपनी- अपनी राह पकड़ लेते हैं। लेकिन मनुष्य समाज की अपनी मान्यतायें, रीति-रिवाज तथा मर्यादायें हैं जिनका उल्लंघन निंदनीय माना जाता है। किसी विशेष दिवस की प्रासंगिकता पर नजर डालें तो भारत जैसे देश में इनका महत्व कहीं नजर ही नहीं आता। यहां पूरा वर्ष ही अपनो के साथ गुजरता है और अपनों के प्रति स्नेह दिखाने के लिए किसी खास दिन का इंतजार नही किया जाता। हमारे लिए समाज एक परिवार की तरह होता है।
जो लोग पश्चिमीं का अंधानुकरण कर स्त्री पुरुष संबंध को केवल साधन मान कर अराजकता फैलाने में सहायक बन रहे हैं उन्हें एक बार उन देशों की परिस्थितियों का अध्ययन करना चाहिये, जहाँं 7 वर्ष के बच्चों के ब्वाय और गर्ल फ्रेंड्स होते हैं । माँ बाप को भी अधिकार नहीं है कि वे अपने बच्चों को रोक सकें। वहाँ कौमार्य या चरित्र मुद्दा नहीं होता । दांपत्य में भी दोनों किसी अन्य से संबंध की स्वतंत्रता हैं। विवाह पूर्व गर्भधारण, कोई समस्या नहीं है। र्, नाजायज संतान को लेकर कोई तनाव नहीं होता क्योंकि ऐसे बच्चों के पालन पोषण का दायित्व सरकार का है। पश्चिमी की युवापीढ़ी अवैध यौन संबंधों में अति लिप्तता के कारण जहाँ एडस जैसे रोगों का शिकार हो रही है वहीं पुरुषत्व तथा प्रजनन क्षमता लगभग खो चुके होते हैं इसी कारण वहां आबादी भी कम है। कई देशों में तो अधिक संतानोत्पत्ति के लिये सरकार प्रोत्साहन देती है। वहाँ जीवन यंत्रवत हैं औरं भावनाओं का महत्व नहीं होता। कोई अपने जीवन में कितने बार विवाह करता है और कितनी बार तलाक लेता है, कइयों को तो संख्या भी याद नहीं रहती है। जबकि भारत भावना प्रधान देश है। हम भावनाओं के लिए जीते और मरते हैं। अविवाहित अथवा विधुर जीवन गुजारा जाता हैं। आखिर प्रेम की अंतिम परिणिति तो दो आत्माओं का मिलन है। यह मिलन सामाजिक मान्यताओं तथा परिधि के अनुरूप हो यही उचित होगा। आखिर मनुष्य तथा पशुओं में अंतर भी तो बनाये रखना है।
हमारी मान्यता है कि प्रेम कृष्ण है, राम है, ईसा है, अल्लाह है, वाहेगुरु है, बुद्ध है, पुष्प की वह सुगंध है, जो बिना किसी भेद के अपनी परिधि में आने वाले हर जीव को आनंद से भर देते हैं। यह प्रदर्शन कि मैं सिर्फ तुमसे प्रेम करता हूँ. इससे बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता है।
विद्यार्थी जीवन को बह्मचर्य आश्रम कहने वालों का मजाक उड़ाने वाले तथा प्रेम के नाम पर स्वच्छंदता के पक्षधर युवाओं के तेजविहीन चेहरे देखकर भी संयम के महत्व को नहीं समझ पाते तो उन्हें कौन समझा सकता है कि किसी भी राष्ट्र की सच्ची संपत्ति हैं उसकी युवा पीढ़ी जिसके शरीर की आभा में प्रकृति का सबसे अधिक स्पष्ट दर्शन होता है। युवा हृदय में उदारता और कर्मण्यता, सहिष्णुता और अदम्य साहस के स्रोत का प्रवाह पूरे जोरों पर होता है। किसी भी देश का भविष्य उसकी युवा शक्ति पर ही निर्भर होता है। वही उसकी सही अनुभूति और यथार्थ प्रतिबिंब है। युवा ही वह शक्ति है, जो त्रासदी और कुंठाओं को समाप्त कर नव-सृजन कर सकता है।
यह भी स्मरणीय है कि 25 वर्ष की आयु से पूर्व ही न्यूटन अनेक आविष्कार कर चुका था तो मार्टिन लूथर इससे पहले ही धर्म-सुधार के लिए यूरोप में हलचल मचा चुके थे। नेपोलियन ने इटली पर विजय प्राप्त की, सिकंदर विश्वविजेता बनने का अभियान आरंभ कर चुका था। विदेशियों की छोड़े स्वयं आदिशंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ और विवेकानंद ने इसी अवस्था में पूरे विश्व को चकित कर दिया था। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह गहन चिंतन का विषय है कि युवा पीढ़ी के सम्मुख परोसे जा रहे कोरे भौतिकवाद को अपने देश की संस्कृति, परंपराओं, धर्म और अध्यात्म से जोड़ने के लिए क्या प्रयास किए जाने चाहिए?
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