अनैतिकता को बढ़ावा देने वाले

अनैतिकता को बढ़ावा देने वाले
इन दिनों हमारा समाज नैतिकता के मुद्दे पर पारंपरिक और भ्रष्टाचार की संस्कृति के बीच झूल रहा है। यह सवाल लगातार उलझता गया है कि यह नैतिकता आखिर है क्या? बचपन में एक कहानी सुना करते थे कि छोटी-मोटी समस्याओं को सुलझाने और झगड़े निपटाने का काम गाँव के काज़ी हुआ करते थे। एक दिन एक व्यक्ति काज़ी साहिब के पास गया और बोला- साहिब, यदि किसी की गाय आपके खेत को चर जाये तो आप क्या सज़ा देंगे। काज़ी साहिब बोले- यह तो बहुत गलत है उस गाय केे मालिक को मैं जुर्माना करूंगा। उस व्यक्ति ने आगे पूछा- ....और यदि आपकी गाय मेरा खेत चर जाये तो आप क्या करेंगे? इसपर काज़ी साहिब ने गम्भीर होकर कहा- तब तो सोचना पड़ेगा।
आज की राजनीति का भी यही हाल है। जिस प्रदेश में जो विपक्ष में है और वेे ज़ोर-ज़ोर से नैतिकता का मुद्दा उठाते हैं, धरने-प्रदर्शन करते हैं और आरोपियों को तुरन्त बर्खास्त कर जेल भेजने की मांग करते हैं लेकिन जहाँ वे सत्ता हैं, वहां उनकी भाषा बदल जाती है। दूसरों को नैतिकता सिखाने वाले से ढिंढोरची यह भूल जाते हैं कि कल यही मानदण्ड उन पर भी लागू हो सकते हैं। हमारी संस्कृति सभी से चरित्र और शुचिता की अपेक्षा करती है लेकिन अपने आदर्श व्यक्तिवों से यह अपेक्षा सर्वाधिक की जाती है लेकिन स्वयं को समाज का मुख बताने वालों का आचरण ही अशोभनीय हो तो समाज प्ररेणा ले भी तो किससे?
कर्नाटक विधानसभा की कार्यवाही के दौरान अपने मोबाइल पर अश्लील फिल्म देखते हुए कैमरे में कैद होने वाले मंत्रियों ने बेशक अपने हाईकमान के आदेश पर इस्तीफा दे दिया लेकिन उनकी हरकत अक्षम्य है इसलिए विधानसभा की अवमानना और घटिया आचरण के कारण उनकी सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त की जानी चाहिए। दुःखद आश्चर्य की बात यह है कि सदन में उस समय बीजापुर जिले में पाकिस्तानी झंडा फहराने को लेकर हंगामेदार बहस चल रही थी। ऐसी गंभीर चर्चा में भाग लेने की बजाय कुछ लोग मोबाइल पर नजरें गड़ाए दिखे और बाद में इस पर सफाई देते हुए यह कहना कि ‘उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है, मुझे बताया कि ऐसी घटनाएं विदेशों में रेव पार्टी में होती हैं,ं मैं विडियो देख रहा था’, उनकी संवेदनहीनता का प्रतीक है। शायद यह सब उनकी दिनचर्या का अंग है इसीलिए उन्हें कोई अपराधबोध भी नहीं है।
कर्नाटक ही क्यों पिछले दिनों राजस्थान का भंवरी देवी कांड भी वहाँ के कुछ नेताओं और मंत्रियों के गिरे हुए चरित्र की तस्वीर के अतिरिक्त और क्या है? दिल्ली के एक पार्षदा के उन्हीं की पार्टी के एक पार्षद से अनैतिक संबंधों में दूसरी का प्रवेश हत्या का कारण बनने की बात भी बहुत पुरानी नहीं है। इससे पूर्व उत्तर प्रदेश के कुछ मंत्री, विधायक अपनी प्रेमिकाओं संग रंगरलियां मनाते रहे लेकिन विवाह का दबाव आते ही उन्हें हमेशा के लिए रास्ते से हटाने की हद गिर गए। बेशक वे बाहुबली आज जेल में हैं लेकिन उनके राजनैतिक रसूक बरकरार हैं।
राजनीति में बढ़ते दोहरे अनैतिक चरित्र का प्रमाण पाँच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव भी हैं, जहाँ आपराधिक छवि के लोगों को टिकट देने में कोई भी दल किसी से पीछे नहीं है। हाँ, काज़ी साहिब की तरह दूसरे को कोसने का काम ईमानदारी से कर रहे हैं। दूसरों के दागी को बागी बनाने की होड़ लगी है। स्वयं को सबसे अलग बताने वाले दल ने उसी व्यक्ति को अपने दल में शामिल कर लिया जिसे एक दिन पहले तक महाभ्रष्ट बताया जाता था। क्या यह नैतिकता की हत्या है या नहीं कि दल के ‘सुयोग्य’ प्रवक्ता कहे, ‘गंगा में मिलकर गंदे नाले भी पवित्र हो जाते हैं।’
एक अन्य घटना देश की राजधानी दिल्ली की है, जहाँ स्वयं को खुदा समझने वाले एक आई.पी.एस.अधिकारी द्वारा साधारण पुलिस कर्मी को सरेआम अपमानित किया। नई दिल्ली जिले के ये बहुचर्चित अधिकारी पिछले दिनों पटियाला हाउस गए। वे वर्दी में नहीं थे इसलिए भारी भीड़ और सुरक्षा जाँच में लगा पुलिस कर्मी उन्हें पहचान नहीं सका। स्वयं को सैल्यूट न मारे जाने से नाराज उक्त पुलिस अधिकारी ने पहले तो उस पुलिसकर्मी को बुरी तरह फटकारा और उसकी वर्दी से बैच तक फाड़ लिया। वह बेचारा बार-बार माफी मांगता रहा लेकिन जनाब साहिब कहाँ शांत होने वाले कहाँ थे। उन्होंने अपने अधीनस्थ कर्मचारी का पक्के फर्श पर सिर के बल लगातार कलाबाजियां खाने को कहा। मरता क्या न करता? वह कलाबाजियां खाते हुए घायल हो गया तब भी बड़े साहिब का दिल नहीं पसीजा। यह सारा नजारा कुछ वकीलों ने अपने मोबाइल कैमरे में कैद कर लिया। मामला चर्चा में आने और दिल्ली पुलिस की छवि प्रभावित होने पर जाँच के आदेश दिये गये। प्रश्न यह है कि जब सब कुछ सामने है अर्थात् वीडियो फिल्म उपलब्ध है तो जाँच के नाम पर एक महीने का समय क्यों?
यह सब सिद्ध करता है कि हम अपने हित साधन के लिए अपनी सुविधानुसार नैतिकता को परिभाषित करते है। कुछ लोग बलात्कारियों तक का यह कहकर बचाव कर रहे हैं कि उन्हें यदि स्त्री का पहनावा उकसाता नहीं तो वे ऐसा नहीं करते। दूसरी ओर बार में नाचने को अनैतिक मानकर मुंबई शहर में बार बालाओं के काम पर पाबंदी लगाई जाती है या एक स्टिंग ऑपरेशन में शक्ति कपूर अपने कामुक इरादों का प्रदर्शन करते दिखते हैं, पर फिल्म उद्योग की कुछ हस्तियां उन्हें दोषी बताने की बजाय लड़की के व्यवहार को ही अनैतिक करार देती हैं। एक ओर पश्चिमी समाजों के प्रचलनों की तर्ज पर वेश्याओं के अधिकारों की बात की जाती है और दूसरी ओर उनके खिलाफ कानून बनाए जाते हैं, उन्हें सजा दी जाती है। आखिर, नैतिकता- अनैतिकता को लेकर इतना बवाल क्यों?
समाज की मुश्किल यह है कि वह दो-दो अंतर्धाराओं के बीच झूल रहा है। एक आधुनिक परिवेश है, जिसमें नैतिकता के मापदंड पश्चिमी प्रचलनों पर आधारित हैं इसीलिए वह मुस्कान बिखेर फैशन रैंपों पर परेड करती दिखती है और एक आम नागरिक जिसे आधुनिक वर्ग पिछड़ा हुई ग्रामीण मानसिकता के कहता है, उसके नैतिक मापदंड उनकी परंपरा से जुड़े दिखते हैं। देश में इन विपरीत स्वभावों के कारण तनाव पैदा हो गया है। आज अगर महानगरों में तंग और खुले कपड़ों पर गुरेज नहीं किया जातां, तो इसमें कोई बड़ी बात नहीं। उनके ये संस्कार उनकी एक खास दुनिया में विकसित हुए निजी विश्वासों, आदर्शों, मान्यताओं और जरूरतों ने पैदा किए हैं।
एक और सवाल यह है कि नैतिकता को यौन परिप्रेक्ष्यों तक ही क्यों सीमित किया जा रहा है? क्या भ्रूण हत्या नैतिकता का मसला नहीं है? क्या बाल मजदूरी, दहेज, दागी मंत्री या इस लिहाज से भ्रष्टाचार भी नैतिकता का मसला नहीं है? निश्चय ही समाज के लिए ये मसले रेस्तराओं में नृत्य करने वाली बालाओं और रैंपों पर कैटवॉक करतीं मॉडलों से कहीं ज्यादा खतरनाक हैं। क्या यह आश्चर्य जनक नहीं कि दुनिया भर में सबसे ज्यादा मंदिर ,अस्जिद, चर्च, मजारो जैसे धर्म स्थल भारत में है, दूरदर्शनी संतो कि भरमार है. हर दिन हर क्षण भागती के प्रदर्शन, पंडाल चलते रहते है लेकिन फिर भी अनैतिकता काम नहीं हो रही है, आखिर क्यों? धर्म और समाज के स्वयंभू ठेकेदार किताबें जलाते हैं लेखकांे को रोकते हैं, कामुकता की दुहाई देकर फिल्मों का विरोध करते हैं लेकिन खुद अनाप-शनाप फतवे भी जारी करते हैं, स्कूलों- कॉलेजों में बच्चों के लिए ड्रेस कोड तय करते हैं, लेकिन उन्होंने कभी भ्रूण हत्याएं रोकने के लिए आंदोलन नहीं चलाए। वे बाल मजदूरी का विरोध नहीं करते सिर्फ कुछ मामलों में ही सक्रिय होते हैं। क्या भ्रष्टाचार का संबंध केवल धन से ही है? क्या नैतिकताविहिन आचरण को भ्रष्ट कहना गलत है? अपने माता-पिता के साथ उचित व्यवहार को किस श्रेणी में रखा जाए? क्या कन्या भ्रूण-हत्या को मामूली घटना मानकर नजरअंदाज कर दिया जाए? दहेज, असमानता, अश्लीलता, वायदा खिलाफी को किस श्रेणी में रखा जाए? अपनी संस्कृति, अपनी भाषा को अंगूठा दिखाने को क्या पुण्यकर्मों की कतार में रखा जाए? इन प्रश्नों से आँखें चुराने का अर्थ है, हम दोहरे आचरण वाले है। ऐसे में हमें भ्रष्टाचार, अनैतिकता के विरूद्ध बोलना बंद कर देना चाहिए क्योंकि इनके रहते वह कभी समाप्त होने वाला नहीं है। नैतिकता और भ्रष्टाचार पर केवल कुछ कहने के लिए कहना कर्मकाण्ड है। अनीति से धन और यश कमाने वालों को सराहना बंद करना चाहिए वरना लालची, दुष्ट लोग अपने लाभ के लिए उपभोक्ता बाजार से कुछ भी नया खोजकर लाते रहेगे। ऐसे लोगों को 120 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश में नैतिकता के नए मापदंड तय करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता।
अनैतिकता को बढ़ावा देने वाले
Reviewed by rashtra kinkar
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