चुनावी नतीजों के निहितार्थ


चुनावी नतीजों के निहितार्थ
पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने जहाँ अनेक राजनेताओं का घमंड तोड़ा है वहीं एक्जिट पोल की पोल भी खोलकर रख दी है। परिणाम बताते हैं कि लाखों वोटरों के फैसले को कुछ सौ लोगों से बातचीत के आधार पर सही नहीं कहा जा सकता और यह भी कि मतदाताओं का मिजाज भांपना आसान नहीं है। शायद ही किसी को भरोसा था कि उत्तर प्रदेश में मुलायम की दृढ़ता से दस्तक देंगे अथवा पंजाब में अकाली -भाजपा गठबंधन इतिहास बदलकर फिर से सत्ता में लौटंगा। इन चुनाव परिणामों ने एक बार फिर से परिवारवाद पर जहाँ अपनी मोहर लगाई है वहीं इसे बड़बोलेपन के कारण नकारा भी है। इसमें सभी के लिए चेतावनी भी छिपी है। बेशक इसेे कांग्रेस को गहरा झटका कहा जा सकता है,लेकिन भाजपा को भी चेतावनी छिपी है अपना घर संवारने की। उत्तर प्रदेश में माया को उनके दंभ की सजा मिली है तो उत्तराखंड में भाजपा की फूट उसे ले डूबी जहाँ योग्य मुख्यमंत्री ही शिकार हो गए और उत्तराखंड में मुकाबला बराबरी पर छूटा। गोवा ने भाजपा को अपना विश्वास दिया है क्योंकि वहाँ कांग्रेस नेतृत्व का कार्य प्रदर्शन दयनीय रहा बल्कि वे चरित्रिक दुर्बलताओं के शिकार भी रहे है। आपेक्षा के अनुरूप मणिपुर कांग्रेस के हाथ रहा। कहने को एक भाजपा, एक कांग्रेस, एक अन्य, एक बराबरी और एक गठबंधन की जीत है लेकिन इसके बावजूद भाजपा और कांग्रेस इन चुनाव परिणाम की मनमानी व्याख्या करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं, इस चुनाव परिणाम की निष्पक्ष समीक्षा करें यह बात तो बिल्कुल स्पष्ट रूप से सामने आती है कि इन चुनावों में कांग्रेस को लगे झटके का कारण देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और महँगाई है तो दूसरी ओर दिग्विजय की सलाह पर आत्मघाती बड़बोलापन, मुस्लिम कोटा, जातिवाद (सैम पित्रोदा), दलित प्रेम (दलित के घर भोजन), किसान-रक्षा (धरने), युवा नेतृत्व जैसे कई दांव चले लेकिन सभी असफल रहे। यह कांग्रेस के लिए संदेश है कि जनता को मूर्ख न समझा जाए हो गए। उत्तर प्रदेश में राहुल ने मेहनत जरूरत की लेकिन वे यह नहीं समझ सके कि जनता स्वयं उनसे और उनकी माताश्री से भी सख्त नाराज है इसी कारण दोनो के निर्वाचन क्षेत्रों में भी कांग्रेस की दशा दयनीय हो गई। यह भी सिद्ध हुआ कि देश में हवा कांग्रेस के खिलाफ है वरना पिछले लोकसभा चुनाव में ही कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश से 21 सीटें जीत कर सभी को चकित कर दिया था, तब करीब एक सौ सीटों पर कांग्रेस को स्पष्ट बढ़त मिली थी लेकिन आज गाड़ी 28 पर अटक गई। अधिकांश सांसद अपनी इज्जत नहीं बचा सके तो उसका कारण केन्द्र की असफलता ही होेेेेेेेेना चाहिए।
मुलायम पुत्र अखिलेश की सौम्यता उल्लेखनीय है जहाँ एग्रीमैन का अभिनय करने वोट बटोरने की कोशिश कर रहे राहुल भी उनके समक्ष कहीं टिक नहीं पाए। रोजी-रोटी के लिए दिल्ली, मुंबई, पंजाब या अन्यत्र जाने वालों को ‘कब तक भिखारी बने रहोगे’ कहना कांग्रेस के लिए हर जगह भारी पड़ा। महाराष्ट्र के नगर पालिका चुनावों में सूपड़ा साफ हुआ तो पंजाब के परिणाम भी यही कहानी कहते है, स्वयं उत्तर प्रदेश में ‘बाहरी’ कही जरने वाली उमा भारती को जनता ने जिताया लेकिन ‘माँ-बेटे’ को झटका दिया। यह अखिलेश यादव की सफलता ही कही जाएगी कि समाजवादी पार्टी को अमर सिंहों और डी.पी. यादवों की छाया से बाहर निकाल कर शालीन दल के रूप में स्थापित हो रही है। अखिलेश यादव का यह बयान कि सरकार बनने पर पार्कों में लगी हाथियों आदि की मूर्तियाँ नहीं तोड़ी जाएँगी और वहाँ अस्पताल आदि बनाए जाएँगे, उनमें एक परिपक्व नेता की छवि दर्शाता है। यदि उनकी सरकार को उत्तर प्रदेश को तुष्टीकरण में फंसाये बिना सचमुच में विकास कर सकी जैसा कि पड़ोसी राज्य बिहार का मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर रहे है तो ये चुनाव परिणाम देश की दिशा और दशा बदल सकते हैं। वरना फिर से टकराव और साम्प्रदायिकता का दौर शुरू हो सकता है। ं
इन पांचों राज्यों के चुनाव परिणामों ने जहाँ केंद्र सरकार की वैधता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है वहीं भाजपा को भी झटका लगा है। उसका भ्रष्टाचार का विरोध उस समय ढ़ोंग साबित हुआ जब बसपा से निष्कासित बाबू सिंह कुशवाहा को अचानक भाजपा में शामिल कर लिया गया। पार्टी के इस कदम ने उसे भी मायावती और केन्द्र की कांग्रेस सरकार की श्रेणी में खड़ा कर दिया, उस पर भी रही-सही कसर कर्नाटक के घटनाचक्र ने पूरी कर दी जहाँ एक भ्रष्टाचारी हर दिन खुलेआम पार्टी नेतृत्व को ब्लैकमेल कर रहा है। उसके अतिरिक्त उप्र में ‘ज्यादा जोगी, मठ उजाड़’ भी एक कारण रहा।
पांचों चुनाव परिणामों ने स्पष्ट संदेश दिया है कि बेशक वातावरण कांग्रेस विरोधी है लेकिन भारतीय जनता पार्टी को विकल्प के तौर पर उभरने के लिए अपने चेहरे, चाल, चरित्र की ओर ध्यान देना होगा। बड़बोले नेताओं पर नकेल कसे बिना यह संभव नहीं है। दिल्ली जिसे मिनी भारत कहा जाता है, नगर निगम चुनावों का बिगुल बज चुका है, भाजपा को समझदारी से काम करना होगा। जहाँ टिकटों का बंटवारा करते समय उम्मीदवार की छवि को सर्वाधिक वरियता देनी चाहिए वहीं समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी की प्रवृति का हमेशा के लिए त्याग करना होगा। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दिल्ली विधानसभा के लगातार तीन चुनाव हारने का कारण उसका अति आत्मविश्वास और एक-दूसरे को निपटाने में अपनी ऊर्जा लगाने केे अतिरिक्त कुछ और नहीं है।
कांग्रेस भी भाजपा के विकल्प के रूप में स्वीकार नहीं की जा रही है। बिहार में लालू राज से तंग वोटर ने कांग्रेस नहीं, नीतीश कुमार को चुना। अमन-चैन लाए तो फिर से चुना। द्रमुक से दुखी तमिलनाडू ने अन्नाद्रमुक का पल्लू थामा, बंगाल में वामपंथियों का स्थान ममता ने लिया, मुंबई में उसे नहीं बुजुर्ग ठाकरे को स्वीकारा गया। ऐसे में कांग्रेस को यह समझ में आ जाना चाहिए कि भीड़ और समर्थन दोनो अलग-अलग स्थितियां हैं। अतः कांग्रेस को एक परिवार अथवा करिश्मे के भरोसे नहीं बचाया जा सकता। जातिगत आधार पर परम्परागत कांग्रेस से जुड़े दलित, मुश्लिम ,एवं पिछड़े वर्ग के वोट बैंक मंडल आयोग के उपरान्त कांग्रेस से छिटक गये थे, वे वापिस लौट नहीं सके, उस पर केन्द्र के भारी भ्रष्टाचार ने कांग्रेस को हाशिये पर पहुंचा दिया।
मूर्तियों के अति प्रेम के कारण बसपा सरकार पहले से ही आम जनता की नजर में गिर चुकी थी। उसपर जिस सोशल इंजीनियरिंग के आधार पर वह सत्ता तक पहुंची थी उसके ही नजरअंदाज करना असंतोष का कारण बना। विशेष रूप से प्रदेश का युवा वर्ग सर्वाधिक प्रभावित रहा जिसका प्रभाव चुनाव परिणाम पर साफ नजर आ रहा है।
यह भी ध्यान रखना होगा कि पांच राज्यों में जहाँ उप्र. लोकसभा में सबसे ज्यादा 80 सांसद भेजता है वहीं शेष चार राज्यों से कुल मिलाकर मात्र 25 सांसद ही आते हैं। अतः केंद्र में सत्ता का खवाब देखने वालों को उप्र की चिंता करनी ही होगी। उप्र की स्थिति बदले बिना देश की स्थिति को बदला हुआ नहीं माना जा सकता।
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