नव वर्ष का नव विचार-प्रवाह

विचार-प्रवाह
पिछले सप्ताह सिद्धहस्त शिल्पी गिर्राजप्रसाद जोकि शिल्पगुरु के रुप में एक नहीं, दो- दो राष्ट्रपतियों द्वारा सम्मानित है, के यशस्वी पुत्र श्याम प्रसाद मिलने आये तो उन्होंने होला मोहल्ला की चर्चा की। श्याम प्रसाद भी राष्ट्र ख्याति के फोटोग्राफर, एक फोटोग्राफी अकादमी निदेशक और संयोग से मेरे शिष्य भी रह चुके हैं। पंजाब में आनंदपुर साहिब में होला मोहल्ला के अवसर पर बहुत बड़ा मेला लगता है। श्याम ने मेले के दौरान खींचे गए चित्र दिखाए तो एक चित्र ने मेरे मस्तिष्क में हलचल पैदा कर दी और मैंने उसी क्षण इस चित्र को ‘चेतना विशेषांक’ का मुख पृष्ठ बनाने का निर्णय कर लिया। बहुत संभव है कि आप इस विशेषांक के मुखपृष्ठ पर एक ही साथ दो घोड़ों की सवारी के दृश्य को देखकर चौंकें। शायद आप की दृष्टि में ऐसा करना खतरनाक और जोखिम से भरा हो सकता है। जैसा कि हमेशा से ही होता रहा है कि कुछ लोग रोमांच अथवा कुछ असाधारण करने के ज़ऩून में जोखिम भी उठाते हैं। सत्य यह है कि ऐसा एक शो के लिए करना तो संभव है परंतु लोक-व्यवहार के लिए जिस निरंतरता की आवश्यकता होती है, वहाँ ऐसे जोखिम काम नहीं करते। ऐसे में आपके मन में भी यह प्रश्न दस्तक दे सकता है कि क्या दो घोड़ों की सुरक्षित सवारी संभव नहीं है? है, निश्चित रूप से है। दो नहीं, पांच अथवा अधिक घोड़े भी एक ही रथ में जोते जा सकते हैं बशर्त कि सारथी कुशल हो और उस पर भी सभी घोड़ों की लगाम उसके हाथ में हो, अर्थात उसमंे लोक-चेतना हो तो कार्य कुशलता का भी अभाव न हो। मन में दृश्य उत्पन्न होता है कि मानव मन को पंच इन्द्रियां भटकाती हैं। लेकिन यदि विवेक रूपी सारथी इन इन्द्रियों की लगाम थामें रहे तो मानव की सार्थकता का रथ जीवन पथ पर सहजता से आगे बढ़ सकता है।
आज चहूं ओर जिस तरह की अव्यवस्था है, अपसंस्कृति है, निज भाषायी-सांस्कृतिक गौरव का अभाव है, मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है, परिवार टूट रहे हैं, जननी को जन्म लेने से ही रोका जा रहा है। तो यह एक ही समय मंे परस्पर विरोधी विचारों के तूफान से भिड़े मनुज की व्यथा-कथा ही कही जाएगी। उसपर भी विडम्बना यह कि अपनी इस अटपटी स्थिति के बारे में चिंतन करने का समय भी उसके पास नहीं है। भौतिकता की अंधी दौड़ ने हमारे मन- मस्तिष्क को ऐस चक्राव्यूह में फंसा दिया है जिसका तोड़ हमें नहीं मालूम। बड़ें तो क्या बच्चें भी तनाव ग्रस्त है क्योंकि वे जरूरत से ज्यादा व्यस्त ही नहीं, आयु से ज्यादा व्यस्क भी है।
परिवार, समाज, राष्ट्र की चिंता कौन करें, यहाँ तो ‘मैं’ भी असंतुष्ट, और असुरक्षित है। क्या एम्स के एमबीबीएस के उस छात्र की मानसिक स्थिति की आपने कल्पना भी है कि जो एम्स में प्रवेश से पूर्व तक अपनी कक्षा में लगातार प्रवीण्य सूची में रहता था। उसकी शिक्षा का माध्यम अपनी मातृ भाषा और अपनी मातृभूमि की भाषा रहा। परंतु देश के सबसे बड़े मेडिकल संस्थान में पहुँचा जहाँ विदेशी भाषा के माध्यम में उसकी प्रतिभा दलदल में धंस गई और उसे हीनग्रन्थि ने ऐसा दबोचा कि वह आत्महन्ता बन गया। आखिर क्या हुआ उसकी चेतना को? वह तो स्वयं के साथ-साथ सम्पूर्ण समाज की चेतना को कलंकित कर चला गया लेकिन हम खामोश क्यों हैं? आखिर समाज और सरकार की चेतना क्यों सुप्त है? पढ़ाई का माध्यम निज भाषा होनी चाहिए या कि अवैज्ञानिक लिपि वाली अंग्रेजी? क्या जर्मनी, रूस, जापान, फ्रांस, कोरिया, चीन, नोर्वे, स्वीडन आदि देश अंग्रेजी की बजाय अपनी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाकर पिछड़े हुए हैं? क्या कोई भी विवेकशील व्यक्ति इन्हें ब्रिटेन से कमतर कह सकता है? जब ये राष्ट्र अपने भाषायी गौरव रूपी घोड़े की सवारी कर अग्रणीय स्थान बनाए हुए हैं तो हम गुलाम मानसिकता के बंदी क्यों?
आज हम समाजवाद संग पंूजीवाद, मानवता संग बाजारवाद, नैतिकता संग खुलेपन जैसे घोड़ों पर सवार हैं तो मस्तिष्क का द्वंद्व भी चलता रहता है। जो मन के मनचले हैं वे दो-दो घोड़ों की सवारी में ‘थ्रिल’ ढूंढ़ते है लेकिन वे भी इस ‘ड्रिल’ को ज्यादा देर तक कायम नहीं रख पाते क्योंकि कोई पक्षी आसमान में बेशक जितनी ऊंचाई तक उडान भर ले लेकिन उसे भी आना तो धरती पर ही पड़ता है। उसे वहीं राहत मिलती है। धरती ही है उसका धरातल, उसका आधार, उसकी नींव।
भाषा जैसी ही स्थिति संस्कृति और संस्कारों की है। अपनी संस्कृति, स्वाभिमान को तिलांजलि देकर अश्लीलता के पीछे भागने वाले आत्म हन्ता ही तो हैं। आज पश्चिमी संस्कृति की सवारी महानगरों से छोटे नगरों तक पहुँच रही है। खुलेआम आलिंगन, पढ़ाई के बदले सिनेमा, घटते वस्त्रों की प्रतियोगिता, प्रेम के नाम पर वासना का प्रदर्शन, अपने ही जनक-जननी की उपेक्षा, गुरुजनों का अपमान हर तरफ पसर रहा है। लेकिन हम कोसते हैं केवल राजनैतिक भ्रष्टाचार को। क्या सामाजिक भ्रष्टाचार को काबू किये बिना राजनैतिक भ्रष्टाचार का खात्मा करने का स्वप्न कभी साकार हो सकता है? जब समाज आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी, विलासी बनने की दौड़ में शामिल हो, नेता- अफसरों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। राजनीति समाज का दर्पण हो या न हो लेकिन समाज हमारा दर्पण जरूर है।
आज का युग विज्ञान का युग है। हमारी संस्कृति तो पूर्णतय वैज्ञानिक है। हमारे ऋषि अपने समय के वैज्ञानिक ही तो थे, उन्होंने सारी दुनिया को बहुत कुछ दिया है। आज भी हमें सूचना प्रौद्यौगिकी के साथ-साथ कदम से कदम ही नहीं मिलाना बल्कि इस क्रम में विश्व का नेतृत्व भी करना है लेकिन आसमान को छूते हुए हमारे पैर अपनी जमीन पर रहने चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि हमारी स्थिति त्रिशंकु जैसी हो जाए।
चेतना विशेषांक हमें स्मरण कराता हैं कि नववर्ष धंन्ध, कोहरें, अन्धेरे, पतझड़ का नाम नहीं हो सकता। वसंत ही नवप्रभात का उत्तराधिकारी है। भारतीय परम्परा है कि नववर्ष सूर्योदय के साथ आरम्भ होगा, अन्धेरे मंे नहीं उजाले में। वह शिशिर ऋतु की समाप्ति होने पर वसंत के आगमन से शुरू होगा। तब पतझड़ से नंगी हो गई डालों पर कलियाँ आयेंगी, फूल खिलेंगे, लाखों करोड़ों फूल, जिनसे वनभूमियां रंग जाएगी और वायु सुगंधित हो उठेगी। उसके बाद निकलेंगे कोमल, चिकने, सुकुमार नवपल्लव। कोयल कूककर बतायेगी कि नव वर्ष आ गया है। हम ही क्यों, सारी दुनिया अपना वित्तिय वर्ष अप्रैल से आरंभ करती है तो इसका जरूर कोई कारण होना चाहिए। वे भी चैत्र मे आरंभ होने वाले भारतीय नववर्ष की सच्चाई को समझते हैं लेकिन अपने ढ़हते सांस्कृतिक मूल्यों की झेंप मिटाने के लिए इस सच्चाई को खुलेआम स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं जबकि हम आत्मनिंदा में आनंदित होने के लाइलाज रोग से पीड़ित हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि लम्बी गुलामी के बाद नैतिक शिक्षा विहिन शिक्षा प्रणाली ने ही हमारे वास्तविक उत्थान के मार्ग को अवरूद्ध कर दिया है? आज हिन्दी साहित्य बहुत तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन अपनी भाषा प्रशासन, अदालत, संसद से लोक व्यवहार की भाषा बननी चाहिए।
महाभारत के शांतिपर्व में शरशैय्या पर पड़े भीष्म युधिष्ठिर को हर कीमत पर शांति की सलाह देते हैं लेकिन उनका यह मत भी है कि जब प्रश्न राष्ट्रहित का हो तो हजार युद्ध करनेके लिए भी तैयार रहना चाहिए। सरकार संग हम सब को भी राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानकर कार्य करना चाहिए। आखिर हमारी पहचान यह राष्ट्र है और हम सब हैं इसके किंकरं। आप सभी को नववर्ष, नवरात्र, रामनवमी, महावीर जयन्ती, बैशाखी, तथा अन्य सभी त्यौहारों की कोटिश शुभकामनाएं! - विनोद बब्बर
नव वर्ष का नव विचार-प्रवाह नव वर्ष का नव  विचार-प्रवाह Reviewed by rashtra kinkar on 21:15 Rating: 5

No comments