भ्रष्टाचार, कार्टून और राजद्रोह Bhrastachar, Cartoon & Rajdroh Vinod Babbar


आज जब चहूं ओर भ्रष्टाचार का शोर है। राजनीति भ्रष्टाचार का पर्याय बनी दिखाई दे रही है ऐसे में युवा कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी ने एक कार्टून जिसमें राष्ट्रीय चिन्ह में मौजूद तीन सिंहों की जगह भेड़िए का सिर और सत्यमेव जयते की जगह भ्रष्टमेव जयते लिखा गया। कुछ लोगों की नजर में यह कार्टून भ्रष्टाचार से बड़ा अपराध है इसलिए भ्रष्टाचार पर हाथ बांधे बैठे रहने वालों ने इस मौके को हाथ से जाने नहीं दिया और असीम के खिलाफ देशद्रोह के अलावा आइटी एक्ट, राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह एक्ट और साइबर क्राइम एक्ट के तहत भी मामला दर्ज कर उन्हें जेल में ठूंस दिया। इस मामले की देशव्यापी तीव्र प्रतिक्रिया देखकर सरकार को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है। इससे पूर्व केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री का मत था कि संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दिए जाने के बावजूद हर नागरिक को राष्ट्रीय चिह्नों का आदर करना चाहिए। इस संबंध में जो नियम-कायदे हैं जिनका सभी को पालन करना चाहिए। प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रिटायर्ड जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने भी असीम का बचाव करते हुए कहा कि उसने कुछ भी गलत नहीं किया है और जिसने कोई अपराध नहीं किया हो, उसे गिरफ्तार करना भी एक अपराध है। उन्होंने कहा, ‘मेरे विचार से कार्टूनिस्ट ने कुछ भी गलत या गैरकानूनी नहीं किया है। लोकतंत्र में बहुत सी बातें कहीं जाती हैं। कुछ सही होती हैं, और कुछ गलत। जिसने कोई क्राइम न किया हो, उसे अरेस्ट करना भी एक क्राइम है, इसलिए कार्टूनिस्ट को गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी यह बहाना नहीं बना सकते कि उन्होंने अपने नेताओं के ऑर्डर को तामील किया है।’ कार्टून विवाद के बाद राजद्रोह से संबंधित अंग्रेजों के बनाए इस कानून पर बहस की मांग की जा रही है। दरअसल यह आजादी के आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने 1870 में इस कानून को लागू किया था। स्वयं ब्रिटेन में भी एक ऐसा ही कानून था, जिसे जुलाई 2009 में रद्द कर दिया। स्वतंत्रता के बाद बने भारतीय दंड विधान की धारा 124(ए) के मुताबिक कोई भी व्यक्ति जो अपने शब्दों, इशारों या किसी भी तरह से सरकार के खिलाफ नफरत या अवमानना फैलाएगा, उसे देशद्रोह का गुनहगार मानते हुए कार्रवाई की जा सकती है। इसके तहत उम्रकैद तक की सजा दी जा सकती है। यह उचित है कि देशद्रोहियों को कठोरतम सजाएं दी जाए लेकिन यह तय करना आवश्यक है कि आखिर क्या देशद्रोह है और क्या नहीं। इस संदर्भ में देखे तो कवि रघुवीर सहाय ने अपनी एक कविता अधिनायक में लिखा है- राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य-विधाता है फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है। मखमल टमटम बल्लम तुरही पगड़ी छत्र चँवर के साथ तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर जय-जय कौन कराता है। पूरब-पच्छिम से आते हैं नंगे-बूचे नरकंकाल सिंहासन पर बैठा, उनके तमगे कौन लगाता है। कौन-कौन है वह जन-गण-मन- अधिनायक वह महाबली डरा हुआ मन बेमन जिसका बाजा रोज़ बजाता है। यदि कार्टून विवाद की दृष्टि से देखे तो इसे भी उसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए था। कवि धूमिल ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘संसद से सड़क तक’ में भी कुछ ऐसा ही कहा था लेकिन उस समय के शासकों को इतना विवेक था कि वे राजद्रोह और असंतोष की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के अंतर को समझ सकते थे। इससे पूर्व भी हजारों ऐसे कार्टून बने हैं जिनमें देश के बड़े नेताओं तक को विचित्र रूप में प्रस्तुत किया गया था। जब संविधान बनाया जा रहा था तब बना नेहरु जी और अम्बेडकर जी से संबंधित कार्टून किसे याद नहीं होगा। उस कार्टून पर बेशक अब विवाद हो लेकिन तब दोनों नेताओं ने स्वयं इसका मुस्कराहट से स्वागत किया था। आश्चर्य है कि आज के शासको इतना भी नहीं समझ पा रहे हैं ह ि यदि ऐसे मामलों को राजद्रोह की श्रेणी में रखने का सिलसिला आरंभ हो गया तो जेलों में जगह कम पड़ जाएगी क्योंकि आज आम जनता भ्रष्टाचार, अव्यवस्था सरकारी तंत्र के विरूद्ध सड़कों पर आकर अपनी भावनाएं जाहिर करती रहती हैं। क्या यह आश्चर्य और आक्रोश की अभिव्यक्ति का प्रश्न नहीं कि तिरंगे का अपमान करने वालों अथवा पाकिस्तानी झंड़े लहराने वालों पर राजद्रोह का मामला नहीं बना। पुलिस से हथियार छीनने वालो, घुसपैठियों, यहाँ तक कि भारत माता को डायन कहने वाले पर भी राजद्रोह का मामला दर्ज तक नहीं किया गया। वंदेमातरम राष्ट्रगीत है लेकिन उसके सम्मान के प्रश्न पर जो खामोश रहे, जो प्रांतवाद फैलाकर देश की एकता पर प्रहार करते हैं, परप्रांतियों को खंदेड़ने की बात करते हैं उन्हें जेल भेजने से आखिर क्यों चूक जाते हैं? देश की राजधानी में ही देश के अभिन्न अंग कश्मीर पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाली अरूंधति रॉय, सैयद अलीशाह गिलानी पर राजद्रोह का मामला क्यों नहीं दर्ज किया गया? दिल्ली में आतंकवादियों से लोहा लेते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले पुलिस अफसरों को बदनाम करते हुए मुठभेड़ को नकली बताने वाले दिग्गी राजा पर आजतक राजद्रोह की बात तक नहीं उठी। उनसे किसी ने नहीं पूछा कि क्या नकली मुठभेड़ में कोई स्वयं को गोली मारता है? देश का धन लूटकर विदेशी बैंकों में रखने वाले आखिर किस तरह से देशभक्त हो सकते हैं? देश की जनता से झूठे वायदे कर कुर्सी पर काबिल देशद्रोही क्यों नहीं? देश में मौजूद करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठियों को शरण देकर उनके राशन कार्ड, वोटरकार्ड बनवाने में मदद करने वालों पर देशद्रोह का मुकद्दमा कब चलेगा? संसद में हाथापाई करने वाले आखिर क्यो देशभक्त माने जाए? भ्रष्टाचार देश की जनता से छल है। जो संसाधन देश के विकास में लगने चाहिए उन्हें अपने स्वार्थ के लिए गलत ढ़ंग से इस्तेमाल करने वाले सामान्य अपराधी नहीं हो सकते। उनपर राजद्रोह की कार्यवाही होनी चाहिए लेकिन हो उल्टा रहा है। केवल असंतोष को कलात्मक अभिव्यक्ति देने वाले को जेल परंतु अपनी हरकतों से देश में असंतोष फैलाने का कारण बनने वाले मौज में रहे यह प्राकृतिक न्याय नहीं हो सकता। हमारा मत है कि राष्ट्र के प्रतीकों जैसे राष्ट्रध्वज, संविधान, राष्ट्रचिन्ह, संसद् आदि के सम्मान से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। अब जबकि राष्ट्र प्रतीकों के सम्मान पर बहस आरंभ हो चुकी है तो क्यों न इस चर्चा का विस्तार कर तिरंगे से मिलते जुलते झंड़ों पर रोक, चुने हुए प्रतिनिधियों के लैटर पैड, विजिटिंग कार्ड आदि पर तीन शेरों वाले चिन्ह के औचित्य पर भी चर्चा चाहिए? चुनाव के समय पर किए जाने वाले वायदों की व्यवहारिकता और उन्हें कानूनी रूप देने पर भी चर्चा होनी चाहिए। किसी दल को तिरंगे झंड़े का इस्तेमाल इस लिए करने देना की आजादी से पूर्व से ही वह उसका झंड़ा रहा है, उचित नहीं होगा। उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि स्वयं गांधीजी ने उस दल को ही भंग करने की सलाह दी थी। जो दल स्वयं के नेताओं की दृष्टि में जारी रहने योग्य न हो उसे क्या अधिकार है कि वह उस विरासत का दावा करें। यह विडम्बना ही है कि जिस असीम के दादाजी स्वतंत्रता सेनानी रहे, उसपर राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारे देश भारत के भीतर भी कई भारत है जिसे हम अच्छी तरह जानते हुए भी पर न जानने का दिखावा करते हैं. क्योंकि यह वास्तविकता हमारी दुखती रग है। हम इस असलियत से शुतुरमुर्ग की तरह मुंह चुराते रहे हैं। यह हमारी पुरानी आदत है जिसे हम छोड़ना नहीं चाहते तो आखिर? अब जब बात चली है तो बहुत दूर तक जानी ही चाहिए।---डा. विनोद बब्बर
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