मौन की कालिख बनाम कालिख का मौन
किसी युद्ध अथवा द्वंद्व में विरोधियों के दांव पेच और तीरों से घायल होने में कुछ भी असामान्य नहीं होता। इस बार लोकतंत्र के महापर्व को कुछ द्वंद्व का रूप दे दिया गया है। आरोप-प्रत्यारोप बहुत निचले स्तर तक जा पहुंचे हैं। स्वयं को जिम्मेदार नेता बताने वाले शब्द चयन में अत्यंत गैरजिम्मेवारी का प्रदर्शन कर वोट बटोरना चाहते हैं तो कुछ नेता थप्पड़, मुक्के अथवा कालिख के कारण बहुचर्चित हुआ चाहते हैं। किसी के मुंह पर विरोधियों ने कालिख पोती तो किसी पर स्याही प्रक्षालन हुआ। लेकिन अपनो के हाथों से अपने चेहरे पर कालिख पुतना कभी भी सामान्य नहीं कहा जा सकता। आश्चर्य तो तब होता है जब चुनावी मौसम में जब हर नेता वाचाल हो उठता है लेकिन कालिख पर भी ‘मौन’ अपना मौन व्रत तोड़ने के लिए तैयार ही न हो। इधर चुनावी परिदृश्य से गायब होना हो मौन जनसामान्य के मन में यह धारणा प्रबल होने लगती है कि कालिख चेहरे से दाल तक अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है।
टाइम पत्रिका हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी को ‘अंडरअचिवर’ घोषित कर चुकी है तो विपक्ष भी लगातार सत्ता के दो केंद्र होने का आरोप लगाते हुए उन्हें ‘कमजोर पीएम’ कामैडल प्रदान करता रहा है, लेकिन पिछले दिनों प्रधानमंत्री के प्रिय मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की मनमोहन सिंह पर की गई टिप्पणियों पर विवाद थमा भी नहीं था कि पूर्व कोयला सचिव पीसी परख ने भी अपनी किताब ‘क्रुसेडर ऑर कॉन्सपिरेटर? कोलगेट एंड अदर ट्रुथ्स’ में मनमोहन सिंह की नेतृत्व क्षमता पर अनेक सवाल उठा दिए। चार वर्षों तक मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी किताब ‘दी एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर- द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ़ मनमोहन सिंह’ में सबसे नुक़सान पहुंचाने वाला आरोप ये लगाया है किं मनमोहन सिंह अपने ही कार्यालय के मालिक नहीं थे और प्रभावशाली लोग लगातार उनकी उपेक्षा करते थे। बेशक कांग्रेस इस किताब में लिखी बातों को काल्पनिक और मिर्च मसाला युक्त करार दे रही है लेकिन प्रधानमंत्री जी ने स्वयं कोई बयान तक जारी नहीं किया। हाद्द, उनकी बेटी ने संजय बारू के रहस्योद्घाटनों को ‘पीठ में छुरा घोपनें’ की संज्ञा दी है। यह तक कहा जा रहा है कि संजय बारू ंने अपने विशेष पद का दुरूपयोग किताब लिखकर व्यावसायिक लाभ में किया है।
लंबे समय तक मनमोहन सिंह से जुड़े और उनके काफी करीबी माने जाते रहे संजय बारू के अनुसार, ‘2009 की ज़बरदस्त जीत के बाद भी मनमोहन सिंह की रीढ़विहीनता समझ के परे थी जो अपने हिसाब से मंत्री भी बना सके। सोनिया की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद सुपर कैबिनेट की तरह काम करती थी और हर अच्छे कामों का श्रेय खुद ले लेती थी जबकि सरकार की नाकामियों का ठीकरा मनमोहन सिंह पर फोड़ा जाता था। सिंह की अवहेलना आलम ये था कि अमरीका जैसे देश की यात्रा से वापस लौटेे विदेश मंत्री प्रधानमंत्री को ब्रीफ तक नहीं करते। प्रधानमत्री की छवि को सबसे ज्यादा नुकसान तब हुआ जब सरकार पॉलिसी पैरालिसिस में फंस गई और कैबिनेट मंत्री पीएमओ की अनदेखी करने लगे। लेखक ने अपने आरोपों के पक्ष में अनेक प्रमाण भी प्रस्तुत किए है। प्रधानमंत्री ने संपादकों से कहा था कि वह जो कहते हैं उस सब पर विश्वास मत कीजिए। बारू के अनुसार, ‘यह कोई छिपी बात नहीं थी कि सोनिया गांधी ने सरकार की बागडोर संभाल रखी थी, जिसका पूर्व कैबिनेट सचिव टीएस सुब्रमण्यम भी समर्थन कर चुके हैं।’
यदि संजय बारू के ‘अनुभवों’ पर विश्वास किया जाए तो यूपीए के 10 वर्ष के शासनकाल के दौरान हुए घोटालांे का कारण संभवतः ‘मौन’ व्रत को माना जा सकता है। कुछ घोटालों को फिर से स्मरण करना चाहिए जो इस प्रकार थे- 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला- 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपए, कोयला घोटाला- 1 लाख 86 हजार करोड़ रुपए, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला- 70 हजार करोड़ रुपए, इसरो देवास घोटाला - 2 लाख करोड़ रुपए, आदर्श सोसायटी घोटाला, हेलीकॉप्टर रिश्वत खोरी मामला, दिल्ली हवाई अड्डा भूमि घोटाला। इतना ही नहीं अनेक अवसरो पर देश की महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं के साथ टकराव भी होता रहा है जैसे- कैग से विवाद, सतर्कता आयोग (सीवीसी) से विवाद, केन्द्रीय जांच व्यूरो (सीबीआई) चीफ से विवाद, सेनाध्यक्ष से विवाद जिसके कारण उन्हें सरकार के विरूद्ध नयालय की शरण में जाना पड़ा। देश की सबसे बड़ी अदालत ने एक से अधिक बार सरकार और प्रधानमंत्री कार्यालय के विरूद्ध कठोर टिप्पणी तक की।
अब यदि पूर्व कोयला सचिव पीसी परख ने भी अपनी किताब ‘क्रुसेडर ऑर कॉन्सपिरेटर? कोलगेट एंड अदर ट्रुथ्स’ की चर्चा करे तो लेखक के अनुसार, ‘मनमोहन सिंह एक ऐसी सरकार का नेतृत्व कर रहे थे जिसमें उनके पास बहुत कम राजनीतिक ताकत थी। कोयला ब्लॉकों के आवंटन की खुली नीलामी का समर्थन किया होता तो 1.86 लाख करोड़ के कोयला घोटाले से बचा जा सकता था.
2005 में रिटायर हुए श्री पीसी परख के विरूद्ध सीबीआई ने कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में एक मामला दायर किया ािा। उनका मत है कि जब संसदीय समिति की बैठक में एक सदस्य ने उनका अपमान किया तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा देने का फ़ैसला कर लिया. जब वो 17 अगस्त 2005 को प्रधानमंत्री से मिलने गए और उन्हें अपना इस्तीफ़ा देने का कारण बताया तो मनमोहन सिंह बोले, ‘मुझे भी रोज़ इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. लेकिन अगर मैं इन मुद्दों पर रोज़-रोज़ इस्तीफ़ा देने लगा तो इससे देश का कोई हित नहीं होगा।’
संजय बारू और पीसी परख ही क्यों, 1990 में समस्तीपुर के ज़िलाधिकारी के रूप में आडवाणी की रथ यात्रा रोक, उन्हें गिरफ़्तार करने वाले पूर्व गृह सचिव आरके सिंह भी कह चुके हैं, ‘मनमोहन सरकार को शासन करने का कोई सलीका नहीं है और वो एक भ्रष्ट सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। इटली के नौसेनिक मामले में उनके साथ ज़रूरत से ज्यादा उदारता बरती है। कोयला घोटाले की पूरी जानकारी होते हुए भी उन्होंने उसको रोकने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए। इसी प्रकार कैग (सीएजी) प्रमुख विनोद राय ने सार्वजनिक धन के ग़लत इस्तेमाल के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा किया। उन्होंने कोयला घोटाले में देश के 1.86 लाख करोड़ रुपए की क्षति का जिम्मेवार उस समय कोयला मंत्रालय के प्रभारी प्रधानमंत्री को ठहराया। राष्ट्रमंडल खेलों के घोटालों और आदर्श सोसाएटी घोटाले पर कैग रिपोर्ट भी मनमोहन सरकार के अपयश की गाथा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के स्थाई प्रतिनिधि और ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त रहे हरदीप पुरी मनमोहन सरकार पर राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति ढुलमुल रवैया अपनाने जैसे अमरीका के प्रति कमज़ोर और ज़रूरत से ज्यादा सतर्कता का रवैया अपनाया जाना, सिर्फ़ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से सलाह लेना तथा अन्यों की अनदेखी करना, की बात कह रहे हैं।
बेशक किसी ने भी प्रधानंमत्री की निजी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठाया लेकिन उनके रहते इतने घोटाले होना और संवैधानिक संस्थाओं में टकराव की स्थिति होने के बावजूद उनका मौन उन्हें नैतिक रूप से दोषी सिद्ध करता है। यहां यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु को कुछ लोग बुरा-भला कह रहे हैं परंतु उन्होंने अपनी बहुचर्चित किताब दी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर में मनमोहन सिंह को बचाने की कोशिश भी की है। श्रीमान बारू जी का कहना है कि प्रधानमंत्री जी के पास कोई विकल्प नहीं था काम करने को लेकर और भ्रष्टाचार से हस्तक्षेप रोकने के लेकर लेकिन आज सबसे बड़ा प्रश्न है कि वास्तव में यही स्थिति थी तो क्या देश के स्वाभिमान से निज प्रतिष्ठा की रक्षा तक अपना पद छोड़ने का विकल्प भी नहीं था?? यदि था तो छोड़ा क्यों नहीं गया, मौन पर मौन टूटना चाहिए। क्योंकि इतिहास उनके इस मौन पर मौन रहने वाला नहीं है। इतिहास में दो बार सरदार पीएम के रूप में दर्ज होने की बजाय एक असरदार पीएम दर्ज होना कहीं बेहतर होता।
टाइम पत्रिका हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी को ‘अंडरअचिवर’ घोषित कर चुकी है तो विपक्ष भी लगातार सत्ता के दो केंद्र होने का आरोप लगाते हुए उन्हें ‘कमजोर पीएम’ कामैडल प्रदान करता रहा है, लेकिन पिछले दिनों प्रधानमंत्री के प्रिय मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की मनमोहन सिंह पर की गई टिप्पणियों पर विवाद थमा भी नहीं था कि पूर्व कोयला सचिव पीसी परख ने भी अपनी किताब ‘क्रुसेडर ऑर कॉन्सपिरेटर? कोलगेट एंड अदर ट्रुथ्स’ में मनमोहन सिंह की नेतृत्व क्षमता पर अनेक सवाल उठा दिए। चार वर्षों तक मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने अपनी किताब ‘दी एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर- द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ़ मनमोहन सिंह’ में सबसे नुक़सान पहुंचाने वाला आरोप ये लगाया है किं मनमोहन सिंह अपने ही कार्यालय के मालिक नहीं थे और प्रभावशाली लोग लगातार उनकी उपेक्षा करते थे। बेशक कांग्रेस इस किताब में लिखी बातों को काल्पनिक और मिर्च मसाला युक्त करार दे रही है लेकिन प्रधानमंत्री जी ने स्वयं कोई बयान तक जारी नहीं किया। हाद्द, उनकी बेटी ने संजय बारू के रहस्योद्घाटनों को ‘पीठ में छुरा घोपनें’ की संज्ञा दी है। यह तक कहा जा रहा है कि संजय बारू ंने अपने विशेष पद का दुरूपयोग किताब लिखकर व्यावसायिक लाभ में किया है।
लंबे समय तक मनमोहन सिंह से जुड़े और उनके काफी करीबी माने जाते रहे संजय बारू के अनुसार, ‘2009 की ज़बरदस्त जीत के बाद भी मनमोहन सिंह की रीढ़विहीनता समझ के परे थी जो अपने हिसाब से मंत्री भी बना सके। सोनिया की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद सुपर कैबिनेट की तरह काम करती थी और हर अच्छे कामों का श्रेय खुद ले लेती थी जबकि सरकार की नाकामियों का ठीकरा मनमोहन सिंह पर फोड़ा जाता था। सिंह की अवहेलना आलम ये था कि अमरीका जैसे देश की यात्रा से वापस लौटेे विदेश मंत्री प्रधानमंत्री को ब्रीफ तक नहीं करते। प्रधानमत्री की छवि को सबसे ज्यादा नुकसान तब हुआ जब सरकार पॉलिसी पैरालिसिस में फंस गई और कैबिनेट मंत्री पीएमओ की अनदेखी करने लगे। लेखक ने अपने आरोपों के पक्ष में अनेक प्रमाण भी प्रस्तुत किए है। प्रधानमंत्री ने संपादकों से कहा था कि वह जो कहते हैं उस सब पर विश्वास मत कीजिए। बारू के अनुसार, ‘यह कोई छिपी बात नहीं थी कि सोनिया गांधी ने सरकार की बागडोर संभाल रखी थी, जिसका पूर्व कैबिनेट सचिव टीएस सुब्रमण्यम भी समर्थन कर चुके हैं।’
यदि संजय बारू के ‘अनुभवों’ पर विश्वास किया जाए तो यूपीए के 10 वर्ष के शासनकाल के दौरान हुए घोटालांे का कारण संभवतः ‘मौन’ व्रत को माना जा सकता है। कुछ घोटालों को फिर से स्मरण करना चाहिए जो इस प्रकार थे- 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला- 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपए, कोयला घोटाला- 1 लाख 86 हजार करोड़ रुपए, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला- 70 हजार करोड़ रुपए, इसरो देवास घोटाला - 2 लाख करोड़ रुपए, आदर्श सोसायटी घोटाला, हेलीकॉप्टर रिश्वत खोरी मामला, दिल्ली हवाई अड्डा भूमि घोटाला। इतना ही नहीं अनेक अवसरो पर देश की महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं के साथ टकराव भी होता रहा है जैसे- कैग से विवाद, सतर्कता आयोग (सीवीसी) से विवाद, केन्द्रीय जांच व्यूरो (सीबीआई) चीफ से विवाद, सेनाध्यक्ष से विवाद जिसके कारण उन्हें सरकार के विरूद्ध नयालय की शरण में जाना पड़ा। देश की सबसे बड़ी अदालत ने एक से अधिक बार सरकार और प्रधानमंत्री कार्यालय के विरूद्ध कठोर टिप्पणी तक की।
अब यदि पूर्व कोयला सचिव पीसी परख ने भी अपनी किताब ‘क्रुसेडर ऑर कॉन्सपिरेटर? कोलगेट एंड अदर ट्रुथ्स’ की चर्चा करे तो लेखक के अनुसार, ‘मनमोहन सिंह एक ऐसी सरकार का नेतृत्व कर रहे थे जिसमें उनके पास बहुत कम राजनीतिक ताकत थी। कोयला ब्लॉकों के आवंटन की खुली नीलामी का समर्थन किया होता तो 1.86 लाख करोड़ के कोयला घोटाले से बचा जा सकता था.
2005 में रिटायर हुए श्री पीसी परख के विरूद्ध सीबीआई ने कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में एक मामला दायर किया ािा। उनका मत है कि जब संसदीय समिति की बैठक में एक सदस्य ने उनका अपमान किया तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा देने का फ़ैसला कर लिया. जब वो 17 अगस्त 2005 को प्रधानमंत्री से मिलने गए और उन्हें अपना इस्तीफ़ा देने का कारण बताया तो मनमोहन सिंह बोले, ‘मुझे भी रोज़ इस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. लेकिन अगर मैं इन मुद्दों पर रोज़-रोज़ इस्तीफ़ा देने लगा तो इससे देश का कोई हित नहीं होगा।’
संजय बारू और पीसी परख ही क्यों, 1990 में समस्तीपुर के ज़िलाधिकारी के रूप में आडवाणी की रथ यात्रा रोक, उन्हें गिरफ़्तार करने वाले पूर्व गृह सचिव आरके सिंह भी कह चुके हैं, ‘मनमोहन सरकार को शासन करने का कोई सलीका नहीं है और वो एक भ्रष्ट सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। इटली के नौसेनिक मामले में उनके साथ ज़रूरत से ज्यादा उदारता बरती है। कोयला घोटाले की पूरी जानकारी होते हुए भी उन्होंने उसको रोकने के लिए कोई क़दम नहीं उठाए। इसी प्रकार कैग (सीएजी) प्रमुख विनोद राय ने सार्वजनिक धन के ग़लत इस्तेमाल के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा किया। उन्होंने कोयला घोटाले में देश के 1.86 लाख करोड़ रुपए की क्षति का जिम्मेवार उस समय कोयला मंत्रालय के प्रभारी प्रधानमंत्री को ठहराया। राष्ट्रमंडल खेलों के घोटालों और आदर्श सोसाएटी घोटाले पर कैग रिपोर्ट भी मनमोहन सरकार के अपयश की गाथा है।
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के स्थाई प्रतिनिधि और ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त रहे हरदीप पुरी मनमोहन सरकार पर राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति ढुलमुल रवैया अपनाने जैसे अमरीका के प्रति कमज़ोर और ज़रूरत से ज्यादा सतर्कता का रवैया अपनाया जाना, सिर्फ़ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से सलाह लेना तथा अन्यों की अनदेखी करना, की बात कह रहे हैं।
बेशक किसी ने भी प्रधानंमत्री की निजी ईमानदारी पर सवाल नहीं उठाया लेकिन उनके रहते इतने घोटाले होना और संवैधानिक संस्थाओं में टकराव की स्थिति होने के बावजूद उनका मौन उन्हें नैतिक रूप से दोषी सिद्ध करता है। यहां यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारु को कुछ लोग बुरा-भला कह रहे हैं परंतु उन्होंने अपनी बहुचर्चित किताब दी एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर में मनमोहन सिंह को बचाने की कोशिश भी की है। श्रीमान बारू जी का कहना है कि प्रधानमंत्री जी के पास कोई विकल्प नहीं था काम करने को लेकर और भ्रष्टाचार से हस्तक्षेप रोकने के लेकर लेकिन आज सबसे बड़ा प्रश्न है कि वास्तव में यही स्थिति थी तो क्या देश के स्वाभिमान से निज प्रतिष्ठा की रक्षा तक अपना पद छोड़ने का विकल्प भी नहीं था?? यदि था तो छोड़ा क्यों नहीं गया, मौन पर मौन टूटना चाहिए। क्योंकि इतिहास उनके इस मौन पर मौन रहने वाला नहीं है। इतिहास में दो बार सरदार पीएम के रूप में दर्ज होने की बजाय एक असरदार पीएम दर्ज होना कहीं बेहतर होता।
मौन की कालिख बनाम कालिख का मौन
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