इराक संकट में भारत की भूमिका
सामरिक दृष्टि से इराक एक महत्वपूर्ण देश है। इसके दक्षिण में सउदी अरब और कुवैत, पश्चिम में ज़ॉर्डन और सीरिया, उत्तर में तुर्की और पूर्व में ईरान है तो दक्षिण पश्चिम में फ़ारस की खाड़ी है। इराक की दो प्रमुख नदियों दजला और फ़ुरात के बीच के क्षेत्र में ही विश्व की प्रचानीतम मेसोपोटामिया की सभ्यता विकसित हुई। भारत इराके के संबंध सदियों से रहे हैं। कभी इराक के दार्शनिक सूफी संत हसन अल बासरी, जुनैद अल बगदाद और शेख बेहलुल से मिलने गुरु नानक देव जी अपने शिष्य मरदाना के साथ बगदाद गए थे।
कहा तो यहां तक जाता है कि यहां के नंदन वन जिसे अंदन का बाग के नाम से पुकारा जाता था में मानव जाति के पूर्वज हज़रत आदम और आदिमाता हव्वा विचरण करते थे। इराक में अनेक साम्राज्य जन्मे, फूले फले और धूल में भी मिले इसलिए इसे साम्राज्यों का खंडहर भी कहा जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज इराक में सदियों से साथ-साथ रहने वाले कबीले आपस में एक-दूसरे के खून के प्यासे बने इसे मानवता का खंडहर बनने में लगे है। इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आई.एस.आई.एस.) नामक संगठन का अचानक शक्ति प्राप्त करना इराक के वर्तमान संकट का कारण्ण बना रहा है। कहने को इराक में एक लोकतांत्रिक सरकार है जिसके प्रधानमंत्री नूरी अल मालिकी हैं लेकिन देश के अधिकांश हिस्सों में आई.एस.आई.एस. का कब्जा है।
इराक स्थिति विस्फोटक होने के कारण भारत को अपने उन हजारो नागरिको की सुरक्षा की चिंता होना स्वाभाविक है। इसे विडंबना ही कहा जाए कि भारत में नई सरकार का गठन होते ही उसे इराक की बिगड़ती स्थिति से निपटने की चुनौती मिली। हजारों भारतीय पुत्रों और नर्सों भी जान पर बन आई। सरकार के सामने सबसे पहले अपने नागरिकों को बचाने का दबाव था जो उसकी कूटनीति और कौशल की कड़ी परीक्षा भी थी। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने सक्रियता दिखाते हुए जहाँ खाड़ी देशों के राजदूतों की बैठक बुलाकर समाधान में उन सभी के सहयोग का रास्ता खोला वहीं सरकार ने खाड़ी में अपना बेड़ा भेजकर विद्रोहियों पर मानसिक दबाव बनाने का प्रयास किया और अपग्रहों के माध्यम से लगातार तिकरित अस्पताल में फंसी नर्सो की निगरानी की गई। विद्रोहियों से सम्पर्क के दौरान उन्हें अपनी खुफिया क्षमता का परिचय देते हुए उनके ठिकानों की जानकारी सहित बहुत कुछ बताया, दिखाया गया। नई सरकार के लिए जरा सी चूक अथवा विपरीत परिणाम बहुत बड़ी परेशानी उत्पन्न कर सकता था। 5000 से ज्यादा भारतीयों की संकटग्रस्त इराक से वापसी से सभी ने राहत की सांस ली लेकिन कई अशांत क्षेत्रों में अभी भी कुछ भारतीय नागरिक मौजूदगी जिनमें मोसुल में कैद 39 भारतीय कामगार के प्रति अनिश्चितता बरकारार है। यह जानकारी भी है कि हर प्रयास के बावजूद कुछ भारतीय वहां से लौटने को तैयार नहीं हैं।
इराक के वर्तमान संकट का भारत पर मात्र इतना प्रभाव नहीं है। आज विश्व इस तरह से जुड़ा है कि किसी भी कोने से उठने वाली अशांति की चिंगारी शेष विश्व को प्रभावित किए बिना नहीं रहती। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भी मानना है कि उग्रवाद की यह आग जल्द ही इराक के अन्य हिस्सों और दूसरे देशों में फैलने सकती है। वैसे तो सद्दाम हुसैन के बाद से ही इराक लगातार अस्थिरता में है। कुर्दो, सुन्नी और शिया के बीच कुछ समस्या लंबे समय हैं जो गृहयुद्ध का रूप धारण कर चुकी है। छापामार सुन्नी संगठन इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) ने इराकी सरकार और शियाओं के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। अल कायदा से भी खतरनाक इस संगठन ने हजारों इराकी सैनिकों की हत्या कर दी। आईएसआईएस प्रमुख अबू बकर अल बग़दादी के इरादों से इराक में तेल क्षेत्रों में चल रही हिंसक गतिविधियों और आतंकवादियों के कब्जे ने चिंताएं बढ़ा दी हैं। अगर इस साम्प्रदायिक हिंसा पर शीघ्र काबू न पाया गया तो इराक का विभाजन भी हो सकता है वरन इस हिंसा की आग विश्व के और कई देशों में फैल सकती है। अपने हजारों सैनिकों की हत्या से इराकी सरकार हताश हैं। उसने अमेरिका और ब्रिटेन से मदद की गुहार लगाई है, लेकिन पिछले एक दशक से भी अधिक से इराक की आग बुझाने में अपने हाथ झुलसा चुके ये राष्ट्र फिलहाल कुछ करने को तैयार नहीं है। विशेषज्ञों के अनुसार लंबे समय तक पश्चिमी देश अपनी आंखों की किरकिरी बने इराक को खंडित करने की योजना पर काम कर रहे हैं।
जिस कुशलता से हमने अपने नागरिकों को सकुशल इराक से निकाला है उससे कुछ लोग इस संकट के समाधान में भारत की भूमिका देख रहे हैं। लेकिन प्रश्न है कि क्या भारत को इस मामले में अपनी टांग फंसानी चाहिए? क्या हमें अमेरिका के हश्र से कोई सबक लेना चाहिए या कुछ करना चाहिए? क्या वर्तमान परिस्थितियां लिट्टे और श्रीलंका के बीच समझौता करने में भारत की भूमिका से भिन्न है? ऐसे अनेक प्रश्न है जिन राष्ट्र सहमति के बिना आगे बढ़ना विपरीत परिणाम दे सकता है। वैसे भी इराक में उग्रवादियों के हमले तेज होने और तेल क्षेत्र पर उनके कब्जे के बाद वहां तेल उत्पादन में कमी आने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में तेजी स्वाभाविक है। कीमते और बढ़ने की आशंका से देश का वित्तीय घाटा बढ़ने का खतरा मंडराने लगा है। ऐसे में भारत का वित्तीय घाटा बढ़ना तय है जो नई आशाओं पर सवार होकर सत्ता में आई मोदी सरकार के सामने अलोकप्रिय होने का संकट उत्पन्न कर सकती है। पहले से महंगाई की मार झेल रहे देशवासियों के समक्ष धैर्य के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है तो सरकार को भी फिलहाल उसी विवेक से काम लेना चाहिए जिसका प्रदर्शन उसने अपने नागरिकों की सकुशल वापसी के लिए किया। विशेषज्ञों का मत है कि इराक विद्रोहियों की मिलने वाली सफलता अफगानिस्तान से पाकिस्तान तक के आतंकवादी संगठनों का मनोबल बढ़ा सकती है इसलिए हमें अपनी सीमाओं की कड़ी चौकसी करनी होगी। ऐसे समय में बिना धार्मिक पक्षपात के हर परिस्थिति से निपटने की दृढ़ इच्छा शक्ति प्रदर्शित करना ही किसी भी सरकार का प्रथम कर्तव्य होगा। --Vinod Babbar
कहा तो यहां तक जाता है कि यहां के नंदन वन जिसे अंदन का बाग के नाम से पुकारा जाता था में मानव जाति के पूर्वज हज़रत आदम और आदिमाता हव्वा विचरण करते थे। इराक में अनेक साम्राज्य जन्मे, फूले फले और धूल में भी मिले इसलिए इसे साम्राज्यों का खंडहर भी कहा जाता है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज इराक में सदियों से साथ-साथ रहने वाले कबीले आपस में एक-दूसरे के खून के प्यासे बने इसे मानवता का खंडहर बनने में लगे है। इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आई.एस.आई.एस.) नामक संगठन का अचानक शक्ति प्राप्त करना इराक के वर्तमान संकट का कारण्ण बना रहा है। कहने को इराक में एक लोकतांत्रिक सरकार है जिसके प्रधानमंत्री नूरी अल मालिकी हैं लेकिन देश के अधिकांश हिस्सों में आई.एस.आई.एस. का कब्जा है।
इराक स्थिति विस्फोटक होने के कारण भारत को अपने उन हजारो नागरिको की सुरक्षा की चिंता होना स्वाभाविक है। इसे विडंबना ही कहा जाए कि भारत में नई सरकार का गठन होते ही उसे इराक की बिगड़ती स्थिति से निपटने की चुनौती मिली। हजारों भारतीय पुत्रों और नर्सों भी जान पर बन आई। सरकार के सामने सबसे पहले अपने नागरिकों को बचाने का दबाव था जो उसकी कूटनीति और कौशल की कड़ी परीक्षा भी थी। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज ने सक्रियता दिखाते हुए जहाँ खाड़ी देशों के राजदूतों की बैठक बुलाकर समाधान में उन सभी के सहयोग का रास्ता खोला वहीं सरकार ने खाड़ी में अपना बेड़ा भेजकर विद्रोहियों पर मानसिक दबाव बनाने का प्रयास किया और अपग्रहों के माध्यम से लगातार तिकरित अस्पताल में फंसी नर्सो की निगरानी की गई। विद्रोहियों से सम्पर्क के दौरान उन्हें अपनी खुफिया क्षमता का परिचय देते हुए उनके ठिकानों की जानकारी सहित बहुत कुछ बताया, दिखाया गया। नई सरकार के लिए जरा सी चूक अथवा विपरीत परिणाम बहुत बड़ी परेशानी उत्पन्न कर सकता था। 5000 से ज्यादा भारतीयों की संकटग्रस्त इराक से वापसी से सभी ने राहत की सांस ली लेकिन कई अशांत क्षेत्रों में अभी भी कुछ भारतीय नागरिक मौजूदगी जिनमें मोसुल में कैद 39 भारतीय कामगार के प्रति अनिश्चितता बरकारार है। यह जानकारी भी है कि हर प्रयास के बावजूद कुछ भारतीय वहां से लौटने को तैयार नहीं हैं।
इराक के वर्तमान संकट का भारत पर मात्र इतना प्रभाव नहीं है। आज विश्व इस तरह से जुड़ा है कि किसी भी कोने से उठने वाली अशांति की चिंगारी शेष विश्व को प्रभावित किए बिना नहीं रहती। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भी मानना है कि उग्रवाद की यह आग जल्द ही इराक के अन्य हिस्सों और दूसरे देशों में फैलने सकती है। वैसे तो सद्दाम हुसैन के बाद से ही इराक लगातार अस्थिरता में है। कुर्दो, सुन्नी और शिया के बीच कुछ समस्या लंबे समय हैं जो गृहयुद्ध का रूप धारण कर चुकी है। छापामार सुन्नी संगठन इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) ने इराकी सरकार और शियाओं के खिलाफ अभियान छेड़ दिया है। अल कायदा से भी खतरनाक इस संगठन ने हजारों इराकी सैनिकों की हत्या कर दी। आईएसआईएस प्रमुख अबू बकर अल बग़दादी के इरादों से इराक में तेल क्षेत्रों में चल रही हिंसक गतिविधियों और आतंकवादियों के कब्जे ने चिंताएं बढ़ा दी हैं। अगर इस साम्प्रदायिक हिंसा पर शीघ्र काबू न पाया गया तो इराक का विभाजन भी हो सकता है वरन इस हिंसा की आग विश्व के और कई देशों में फैल सकती है। अपने हजारों सैनिकों की हत्या से इराकी सरकार हताश हैं। उसने अमेरिका और ब्रिटेन से मदद की गुहार लगाई है, लेकिन पिछले एक दशक से भी अधिक से इराक की आग बुझाने में अपने हाथ झुलसा चुके ये राष्ट्र फिलहाल कुछ करने को तैयार नहीं है। विशेषज्ञों के अनुसार लंबे समय तक पश्चिमी देश अपनी आंखों की किरकिरी बने इराक को खंडित करने की योजना पर काम कर रहे हैं।
जिस कुशलता से हमने अपने नागरिकों को सकुशल इराक से निकाला है उससे कुछ लोग इस संकट के समाधान में भारत की भूमिका देख रहे हैं। लेकिन प्रश्न है कि क्या भारत को इस मामले में अपनी टांग फंसानी चाहिए? क्या हमें अमेरिका के हश्र से कोई सबक लेना चाहिए या कुछ करना चाहिए? क्या वर्तमान परिस्थितियां लिट्टे और श्रीलंका के बीच समझौता करने में भारत की भूमिका से भिन्न है? ऐसे अनेक प्रश्न है जिन राष्ट्र सहमति के बिना आगे बढ़ना विपरीत परिणाम दे सकता है। वैसे भी इराक में उग्रवादियों के हमले तेज होने और तेल क्षेत्र पर उनके कब्जे के बाद वहां तेल उत्पादन में कमी आने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में तेजी स्वाभाविक है। कीमते और बढ़ने की आशंका से देश का वित्तीय घाटा बढ़ने का खतरा मंडराने लगा है। ऐसे में भारत का वित्तीय घाटा बढ़ना तय है जो नई आशाओं पर सवार होकर सत्ता में आई मोदी सरकार के सामने अलोकप्रिय होने का संकट उत्पन्न कर सकती है। पहले से महंगाई की मार झेल रहे देशवासियों के समक्ष धैर्य के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है तो सरकार को भी फिलहाल उसी विवेक से काम लेना चाहिए जिसका प्रदर्शन उसने अपने नागरिकों की सकुशल वापसी के लिए किया। विशेषज्ञों का मत है कि इराक विद्रोहियों की मिलने वाली सफलता अफगानिस्तान से पाकिस्तान तक के आतंकवादी संगठनों का मनोबल बढ़ा सकती है इसलिए हमें अपनी सीमाओं की कड़ी चौकसी करनी होगी। ऐसे समय में बिना धार्मिक पक्षपात के हर परिस्थिति से निपटने की दृढ़ इच्छा शक्ति प्रदर्शित करना ही किसी भी सरकार का प्रथम कर्तव्य होगा। --Vinod Babbar
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