शादी का वादा नहीं, कन्या भ्रूण हत्या के विरूद्ध अभियान चहिये

पिछले दिनों हरियाणा के एक नेता ने आगामी चुनाव में अपनी पार्टी की सरकार बनने पर किसी दूसरे राज्य से लड़कियां लाकर कुवरों की शादी का वादा किया। स्वभाविक है इस वक्तव्य की निंदा, आलोचना होनी थी, हुई लेकिन यह महत्वपूर्ण प्रश्न अनुत्तरित ही रहा कि ऐसी स्थिति ही क्यों हुई? कुंवारों की शादी करना किसी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए या कन्याभ्रूण हत्या रोकना? 
गत वर्ष एक बालक जिसे छुट्टियों के दौरान ’लड़कियों की संख्या कम होने पर भारतीय समाज का रूप कैसा होगा’ विषय पर एक अनुच्छेद लिखने को कहा था, मुझसे मिला। वह परेशान था कि सभी ने उसकी समस्या सचमुच गंभीर है। सबसे पहले साधुवाद दूंगा उस स्कूल को जिसने देश के भावी कर्णधारों को आने वाले खतरों के प्रति जागरूक करने की कोशिश की। हो सकता है, कुछ लोग समय से पहले इस तरह की चर्चा करने के लिए मुझसे मिला। उसके अनुसार ‘लगभग सभी ने उसके विद्यालय को दसवीं कक्षा के छात्रों के बीच इस मुद्दे की चर्चा को बुरा-भला तो कहा लेकिन किसी ने भी उसकी मदद नहीं की।’
लिंग अनुपात के खतरनाक स्तर तक पहुँच जाने के कारण पिछले कुछ वर्षो से हरियाणा लगातार चर्चा में है। वैसे हमारे समाज की विकृत तस्वीर प्रस्तुत करते ये आंकड़े केवल वही तक ही सीमित नहीं है। लगभग सारे भारतकी यही स्थिति है। अनेक क्षेत्रों में तो स्थिति पूरी तरह हाथ से निकल चुकी है, जहाँ विवाह योग्य युवक कंुवारे हैं। अनेक स्थानों पर देश के पिछड़े हुए क्षेत्रों तथा सुदूर दक्षिण से बहुओं की ’व्यवस्था’ करने के भी समाचार हैं। हरियाणा में केरल, उड़ीसा, बिहार से आई बहुओं की चर्चा होती ही रहती है। ऐसे में केरल की युवती जो जीवन भर इडली, डोसा, चावल आदि खाती रही हो, उसे एकाएक बाजरे की रोटी, राबड़ी खाने या बनाने के लिए कहना उसके साथ ज्यादती के अतिरिक्त और क्या है। हिन्दी भी न समझने वाली युवती को ठेठ हरियाणवी भाषा, पहनावे में ’घूंघट’ को आप लाख राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बताये, पर वास्तव में यह वहीं है उसी विषय के प्रभावों का अवलोकन है जिसके कारण उस नेता की जबान भटक गई और उसने ‘फलां’ राज्य से बहू दिलवाने का वादा किया। यह भटकन कल  सारे समाज की अपराधिक समस्याओं का मूल बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसलिए कैसे बनंेगे नये जोड़े, कैसे बसेंगे घर, इस पर आज और अभी ही चिंतन करना होगा। कहना मुश्किल है कि वह नेताजी इस वास्तविक खतरे को कितना समझते हैं क्योंकि उनकी प्राथमिकता  समाज को इस खतरे से बचाने से ज्यादा कुर्सी पाना है वरना वह ‘महानुभाव’  समाधान की बात करते।  तदर्थसका। पर उन नेताजी का समझना, न समझना उतना महत्वपूर्ण  नहीं है, जितना अपने आपको समझदार और आधुनिक कहे जाने वालों की चुप्पी। समाज में नित होने वाली कन्या-भ्रूण हत्याओं के प्रति उनकी निष्क्रियता किसी जघन्यतम अपराध से कम नहीं है। उनकी इस गलती की सज़ा आने वाली पीढ़ियांे को भुगतनी पड़ेगी।
बेशक सरकारें महिला आरक्षण विधेयक को संसद से पास करवाने का संकल्प दोहराती रहती हैं पर आज, जिस तरह से कन्या-भ्रूण हत्या के रूप में पूरे समाज को जहर दिया जा रहा है, उस पर संकल्प कब होगा। यदि लिंग- अनुपात इसी तरह से गिरता रहा तो कहाँ से लायेगे 33 प्रतिशत उम्मीदवार! ’आरक्षण’ ज़रूरी है या  ’रक्षण’ इसपर सबसे पहले विचार होना चाहिए। 
एक तरफ, कंुवारों के लिए बहु की व्यवस्था की चिंता तो दूसरी ओर  इस देश में महिला भू्रण-हत्या से बजती खतरे की घंटी को सुनने वाले वास्तविक लोगों और संगठनों की संख्या कितनी है, कहना मुश्किल है क्योंकि बार-बार इस खतरे की चेतावनी दिये जाने और हर नर्सिंग होम में ‘यहाँ भू्रण लिंग जाँच नहीं होती’ का बोर्ड लगा देने के बावजूद स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा है। ऐसे में जबकि  महिला रक्षण ज़्यादा ज़रूरी नजर आ रहा हो, केवल महिला-आरक्षण का शोर कितना उचित है। इस पर विचार किया जाना ज़रूरी है। 
महिला-विरोधी मानसिकता के चलते देश भर की बात छोड़ कर केवल राजधानी दिल्ली की स्थिति देखें, तो यहाँ भी लड़कों के मुकाबले लड़कियों के अनुपात में गिरावट आ रही है। प्रमुख महानगरों के बीच दिल्ली इस मामले में सबसे निचले पायदान पर खड़ी है। 1991 में, 6 साल तक के बच्चों में लड़के 1000 थे, तो लड़कियों की संख्या 915 थी। 2001 में, लड़कियों का अनुपात घटकर 865 पर पहुँच गया। आज स्थिति बदतर ही हुई है। ‘अभी 500 रूपये खर्च करो या बाद में 5 लाख रूपये दहेज में’ जैसे विज्ञापनों वाली मानसिकता के चलते गर्भ में कन्या भ्रूण की हत्या कराई जा रही है। इसके अलावा, लड़के का जन्म प्रतिष्ठा से जुड़ा है, लड़के से ही वंश चलता है और अंतिम संस्कार पुत्र के हाथों होने से मोक्ष प्राप्त होता है, जैसी धारणाएं ही लड़की के जन्म को हिकारत की नज़र से देखती हैं। केवल लड़कों से वंश चलाने की गलत सोच वाले यह भूल जाते हैं कि अगर लड़कियां ही नहीं होंगी, तो अपने साहिबजादे के लिए बहू कहाँ से लाओगे जो तुम्हारा वंश चला सके? मोक्ष की कामना वालों को सौ पुत्रों के पिता के हश्र और उसी के समकालीन आजीवन अविवाहित रहने वाले भीष्म के मोक्ष का उदाहरण समझ में क्यों नहीं आता?
देश में दहेज-हत्याएं, नारी-उत्पीड़न, भेदभाव, बलात्कार, अपहरण और छेड़छाड़ की घटनाएं आम बात हैं। जब तक हम स्त्री-पुरूष के बीच समानता के महत्व को नहीं समझेंगे और इसी प्रकार का वातावरण बना रहेगा, तब तक नारी-भू्रण की रक्षा कैसे हो सकेगी? जो लोग महिलाओं को कमतर आंकते हैं, उन्हें अपने पौराणिक इतिहास और वर्तमान परिवेश से इस बात की जानकारी प्राप्त क्यों नहीं होती कि इस देश में ‘जहाँ नारी की पूजा होती है, वहीं देवताओं का वास होता है’ की मान्यता भी रही है। 
जनसंख्या असंतुलन से चिंतित विशेषज्ञों के अनुसार, देश में लिंग अनुपात की स्थिति इससे कहीं ज्यादा खराब ऐसे प्रदेश में हैं जहाँ साक्षरता का प्रतिशत ठीक है,  प्रति व्यक्ति आय बेहतर तथा चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार भी ज्यादा है। कहा जा सकता है कि कन्याएं यहाँ विकास की भेंट चढ़ गयीं। इसके विपरीत, उन इलाकों में लड़कियों की संख्या में ज्यादा कमी नहीं आयी है जहाँ लोगों में साक्षरता का प्रतिशत कम है।  उदाहरण के तौर पर देश में अच्छी जनसंख्या अनुपात वाले जो 10 जिले हैं, वहाँ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार नहीं हो पाया है, वे भले ही विकास में पिछड़े हैं, लेकिन वहाँ के समाज और अर्थव्यवस्था में लड़कियों की महत्ता कायम है। भू्रण-हत्या को लेकर हालाँकि देश में कड़ा कानून है। लेकिन, यह प्रभावी नहीं हो पा रहा है। यह कानून गर्भवती महिला को अल्ट्रासाउंड कराने से नहीं रोक सकता है क्योंकि उन्हें कई कारणों से इस जाँच की जरूरत पड़ती है। यह भी जगजाहिर है कि कैसे ‘जय माता दी’ या ‘जय श्रीकृष्ण’ जैसे कोड वर्ड में गर्भस्थ शिशु के लिंग जाँच का रिज़ल्ट बता दिया जाता है। दरअसल घटते लैंगिक अनुपात के कई सामाजिक- आर्थिक कारण भी हैं। मसलन, किफायत में सकून से जिंदगी जीने के छोटे परिवार के प्रति आग्रह का सबसे ज्यादा असर लिंग संतुलन पर पड़ा है और इस प्रकार बालक-बालिका का अनुपात बिगड़ता गया है। इस विकराल होती जा रही समस्या के निराकरण के लिए उन कारणों को तलाशना होगा कि आखिर क्यों लोग बेटा ही चाहते हैं। हमारे देश में वृद्धावस्था में सामाजिक सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। अगर कोई व्यक्ति बेटे को बुढ़ापे की लाठी समझता है, तो उसका सोचना गलत नहीं लगता है। पड़ोसी देश चीन ने इसे समझते हुए उन लोगों को वृद्धावस्था पेंशन देने का फैसला किया है जिनके सिर्फ बेटियां हैं। पर हमारी सरकारें इस विषय पर अब तक मौन हैं। इसी प्रकार हमारे समाज में लड़की के विवाह में दहेज की समस्या बहुत बड़ी है जिसे हमने बाकायदा मान्यता दे रखी है। लाख कोशिशों के बावजूद भी, दहेज का अभिशाप दिन-प्रतिदिन भयंकर रूप धारण कर रहा है। लोग दहेज लेना और देना शान समझते हैं। जब तक दहेज लेने वालों के साथ-साथ दहेज देने वालों के विरुद्ध भी अभियान नहीं छेड़ा जाएगा, इस कोढ़ से मुक्ति नहीं मिल सकती। 
आज भी, हर तरह के विरोधी वातावरण के बावजूद, महिलाएं बड़े-से-बड़े पदों पर काम कर रही हैं। वे जहाज उड़ाने से लेकर हर तरह की टेªनिंग भी ले सकती हैं, राजनीति व कॉरपोरेट सेक्टर में कार्यरत हैं, अपना बिजनेस चला रही हैं, अपनी कार-मकान की मालिक हैं। फिर कुशलता से घर चलाने वाली स्त्री तो लगभग हर घर में मौजूद है। सच तो यह है कि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ मातृ शक्ति ही है जो खेत से लेकर पशु पालन तक हर जगह जी तोड़ मेहनत करती है। 
कन्या भ्रूण-हत्या के पाप को रोकने की ज़िम्मेवारी दिन-दुगनी, रात चौगुनी गति से बढ़ रहे हमारे ’धार्मिक गुरुओं’ को स्वीकार करनी चाहिए, वरना उनका ’आभा मंडल’ भी प्रभावित होगा क्योंकि यह इस देश की मातृ शक्ति ही तो है जो अपने परिवार और बच्चों का पेट काट कर भी इन संतों के ’श्रीचरणों’ में मोटी दक्षिणा चढ़ाती हैं, दिन-रात उनके गुण गाती हैं। 
........और चलते-चलते चर्चा फिर बात-बेबात रास्ता रोकने वालों की। मैंने आज तक कन्या भ्रूण हत्या के विरोध में कभी रास्ता जाम अथवा जबरदस्त आंदोलन का समाचार नहीं सुना। सैंकड़ों लोगों से भी इस विषय पर बात की। पर किसी ने भी सकारात्मक उत्तर नहीं दिया। इसे समाज की संवेदनहीनता माना जाए या कुछ और, इसका उत्तर तलाशना ही होगा। तभी हम अपने आपको मानव कहलाये जाने योग्य साबित कर पायेंगे। तभी बचेगा संसार, परिवार और हमारे अपने बच्चों का घर, जिसे अपनी विकृत सोच वाले हमारे ‘धनकड़’ नष्ट करने पर आमादा हैं।  ---डा.विनोद बब्बर
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