आत्मा का धर्म (कहानी) विनोद बब्बर

‘आत्मा का धर्म? क्या शरीर और आत्मा के धर्म अलग-अलग होते हैं? क्या मेरा धर्म, इसका धर्म, उसका धर्म अलग-अलग होते हैं? क्या दया, करूणा, संवेदना रहित भी कोई धर्म हो सकता है? धर्म का काम जोड़ना है या तोड़ना? किसी दूसरे विचार के अस्तित्व को ही बर्दाश्त न करना धर्म है या विकृति? किसी की मदद करने से पहले उसकी जात-धर्म जानने वाली व्यवस्था आखिर धर्म कैसे हो सकती है?’ रेलगाड़ी तेजी से आगे की ओर दौड़ रही थी लेकिन ऐसे अनेक सवाल स्वामीजी के मन-मस्तिष्क को पीछे की ओर धकेल रहे थे। बचपन से आज तक उन्होंने जो  भी ज्ञान अर्जित किया था वह उस व्यक्ति के दो शब्दों के समक्ष बोना लगने लगा।
वह अपने अंतर्द्वंद्व में इतना खोए थे कि गाड़ी एक छोटे से स्टेशन पर रूकी। कुछ लोग गाड़ी से उतरे तो इक्का-दुक्का लोग चढ़े भी लेकिन  निर्विकार, मौन, धवल वस्त्रधारी  संन्यासी इन सबसे बेखबर था। अचानक एक युवा स्वर ने उसकी तंद्रा भंग की, ‘महाराज! क्या मैं इस सीट पर बैठ सकता हूँ?’
‘हाँ, हाँ, क्यों नहीं, आईए बैठिए।’
‘आपका बहुत बहुत धन्यवाद वरना आरक्षित डिब्बे में तो लोग किसी को घुसने तक नहीं देते।’
‘अरे नहीं, यह सीट साथ तो ले जानी नहीं है। यदि मिलजुलकर रात कट जाए तो मेरा क्या जाने वाला है। बाहर बहुत सर्दी है, क्या तुम्हारे पास शाल कंबल नहीं है?’
‘जी, जल्दबाजी में घर पर ही छूट गया। लेकिन आपकेे चरणों में थोड़ा स्थान दिया यहीं मेरा सौभाग्य है। दरअसल अचानक जाना पड़ा रहा है इसलिए न आरक्षण हुआ और न ही तैयारी ठीक से हो सकी।’
‘अरे मेरे पास एक अतिरिक्त शाल है, इसे ओढ़ लो।’
‘मगर स्वामीजी मैं... मैं....!’
‘हाँ, हाँ कहो, क्या कहना चाहते हो।’
‘जी, मैं...मैं.. अछूत हूँ... आपका शाल भी.....!’ कहते कहते वह रूक गया।
‘अछूत? क्या तुम्हारे शरीर को कोई छूत का रोग है जिसे छूने से मुझे भी वह रोग मेरे शरीर को भी हो सकता है?’
‘नहीं महाराज मैं शरीर से नहीं आत्मा से अछूत हूँ। जन्म के कारण मुझे अछूत माना जाता है।’
‘आत्मा से अछूत? नहीं नहीं, आत्मा तो परमात्मा का अंश है जो सदैव  पवित्र ही होता है। बंधु! कोई भी जीव आत्मा अथवा शरीर से अछूत हो ही नहीं सकता। केवल उसके कर्म ही उसे आदरणीय अथवा अस्पृश्य बनाते हैं।’
इतना सुनते ही वह युवक संन्यासी के प्रति नतमस्तक होकर बोला, ‘मैं आपसे विचारों में बहुत प्रभावित हूँ। कृपया मुझे अपना शिष्य बना कर कृतार्थ करें महाराज।’
‘शिष्य? गुरु? नहीं बंधु अभी तो मैं  स्वयं अधूरा हूँ। हर क्षण ऐसा लगता है कि अभी बहुत कुछ जानना, सीखना शेष है।’
....और इसी चर्चा में कब रात बीत गई पता ही नहीं लगा। इसी बीच श्याम किसी स्टेशन पर उतर गया तो स्वामी एक बार फिर अपने, अंतर्द्वंद्व से घिर गए।
‘ओह! यह क्या है? एक आत्मा के   धर्म की बात करता तो दूसरा आत्मा की जाति बताता है। आखिर यह सब कया है? क्या धर्म का मर्म हम सब अपने-अपने ढ़ंग से तय करेंगे? सलीम जिस धर्म में है वह धर्म उसकी आत्मा से अछूता है तो श्याम  अपनी आत्मा पर हीनभावना का बोझा ढो रहा है। नाम इस शरीर का है। कर्म करता है शरीर। सुख-दुःख सहता है शरीर। यश-अपयश प्राप्त करता है शरीर। अच्छा या बुरा होते हैं इस शरीर के कर्म अथवा वाणी व्यवहार तो फिर जाति-धर्म का आत्मा से क्यों और क्या संबंध हो सकता है?’
विचारों के तूफान से घिर वह  संन्यासी एक बार फिर अतीत की स्मृति में खो गया..............।
एक छोटे सा गांव। मिली जुली आबादी। कुछ लोग मंदिर में अपनी आध्यात्मिक शांति प्राप्त करते हैं तो कुछ को मस्जिद की नमाज शकून देती है। गांव के लोग एक नया मंदिर बनाना चाहते हैं। आस्था और विश्वास के धनी एक धनवान ने मंदिर के लिए जमीन दान में दे दी तो उस गांव के हर हिंदू ने भव्य बनाने के लिए यथाशक्ति सहयोग दिया। लेकिन.. लेकिन... जो कुछ एकत्र हुआ उससे तो विशाल मंदिर  की चारदीवारी तक नहीं हो सकती।  फिर क्या किया जाए? कैसे बनेगा मंदिर? क्या इरादा छोड़ दिया जाए? नहीं, नहीं जब मुट्ठी भर विधर्मी विशाल मस्जिद बना सकते हैं तो हम मंदिर क्यों नहीं बना सकते? फिर क्या करें? क्या आसपास के गांवों से भी मदद ली जाए।
‘क्या बुराई है। मंदिर तो सबका होता है। सबका सहयोग लेना चाहिए।’
अनेक गांवों से सहयोग मिला तो एक गांव से नसीहत भी मिली, ‘अरे, इधर उधर क्यों धक्के खाते हो। तुम्हारे गांव का सलीम बहुत बड़ा ठेकेदार है। यह सबकी मदद करता है। उससे क्यों नहीं मिलते।’
‘लेकिन एक विधर्मी हमारे मंदिर के लिए कयों देगा?’
‘अरे भाई, नहीं देगा तो नहीं देगा पर उससे मिलने में कया बुराई है। एक बार मिलकर बात करते हैं। शायद बात बन ही जाए।’
‘पर उससे मिलने जाएगा कौन? एक आदमी के जाने से बात बनने वाली नहीं है। कुछ लोग मिलकर चले तो चेहरा देखकर जरूर कुछ सोचेगा। स्वामीजी, आपको भी हमारे साथ चलना पड़ेगा।’
‘मुझे साथ चलने से इंकार नहीं लेकिन मैं न तो इस गांव का हूँ और न ही कभी उससे मिला हूँ। मुझे साथ ले चलने से आपको कोई लाभ होने वाला नहीं है।’
‘तो क्या आप अपना दामन छुड़ाना चाहते हो। आप जैसा त्यागी पुरुष साथ रहने से हमारा मनोबल बढ़ेगा तो उसपर भी जरूर कुछ प्रभाव पड़ेगा।’
‘ठीक कह रहे हो भाई। स्वामी जी को हमारे साथ चलना ही पड़ेगा। स्वामीजी जरूर चलेगे।’ सभी ने उसके स्वर में स्वर मिलाकर स्वामीजी की स्वीकृति प्राप्त कर ही ली। ‘जो सबकी राय, वही मेरी राय। लेकिन मैं मौन ही रहूंगा। जो कहना है गांव के प्रतिष्ठित लोगों को ही कहना है।’

अगली सुबह नियत समय पर गांव के मुख्य दस लोग ठेकेदार सलीम की बैठक में पहुंच गए। भव्य महान, सजी -धजी बैठक उसके बहुत संपन्न होने की पुष्टि कर रही थी। नौकर ने सभी को आदर से कुर्सियों पर बैठाते हुए बता ही रहा था कि ‘ठेकेदार साहिब काम का मुआयना करने गए है और कुछ ही मिनटों में तश्रीफ लाने वाले है।’ तभी एक लम्बी गाड़ी दरवाजे पर आकर रूकी जिससे ठेकेदार सलीम उतरे और सभी का अभिवादन और  नौकर को पानी पिलाने का आदेश ेकर घर के अंदर हाथ-मुंह धोने चले गए। गोरा  रोबदार चेहरा, लंबा मजबूत शरीर कुछ ही क्षणों में फिर सबके बीच था। बेशक गांव में शांति और सौहार्द था लेकिन... लेकिन विधर्मी के धर का पानी... आखिर कैसे पिए.... पर मदद मांगने आए हैं तो मजबूरी है। सभी ने चुपचाप गटक लिया।
‘आप लोग पहले एक-एक चाय पीये तो मुझे मुसरत हासिल होगी। रफीक चाय लाओं।’ तुरंत चाय हाजिर थी। मजबूरी थी इसलिए चाय भी........!
‘ये मेरी खुशकिस्मती है कि आप लोग तशरीफ लाए। हुक्म करे मेरे लायक क्या सेवा है।’
पहले से तयशुदा गांव के एक व्यक्ति ने भव्य मंदिर बनाने की जानकारी देते हुए मदद की बात की ही थ्ी कि सलीम के तेवर तीखे हो गए, ‘ आपको मालूम हैं कि मेरा मज़हब बुतखाने की इजाजत नहीं देता। मैं मंदिर के लिए कुछ देकर गुनाहगार नहीं बन सकता। पर एक बात बताओं- जब गांव में पहले से ही एक मंदिर है तो दूसरा क्यों?’
‘जी, वो मंदिर छोटा है, हम एक ओर मंदिर बना रहे है।’
‘छोटा है तो उसे ही बड़ा करो, दूसरा क्यों? गांव के सभी हिंदू भाई एक ही जगह इबादत करे इससे बेहतर बात क्या हो सकती है। दूसरा इबादत खाना बनाने का मतलब है लोगों को बांटना। गांव के कुछ लोग एक दूसरी मस्जिद बनाना चाहते थे तो मैंने उनसे भी यही कहा था। जो जमीन मिली है उसपर गौशाला बना लो, मैं सहयोग करूंगा। लेकिन माफ करना मंदिर के लिए मैं कुछ नहीं दे सकता।’
सभी लोग निराश होकर उठने ही वाले थे कि सलीम ठेकेदार ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘आप लोग तशरीफ फरमा हुए हैं तो मेरे दिल का दर्द  भी सुनते जाओं। आप सभी मेरी उम्र के हैं या छोटे हैं इसलिए शायद ही किसी को मेरे वालिद साहिब का नाम मालूम हो। सलीम के वालिद का नाम था- रामलाल।  हमारी जात की वजह से आपके बड़ो ने कभी उनके हाथ छुआ पानी तक नहीं पिया। जलालत से तंग आकर उसने दीन बदलना पड़ा।  आज गांव के तमाम मौहजिज लोगों को इस घर की चौखट पर चाय पानी पीते देख यकिनन जन्नत में उनकी रूह को भी बहुत शकून मिला होगा। एक सवाल आपसे कि कल जो गरीब थे क्या इसीलिए अछूत थे और आज इस इलाके का सबसे रईस होने की वजह से सलीम के घर का पानी पीने के काबिल हो गया? मेरे ख्याल से आपको और नये मंदिरों की जरूरत नहीं है। जरूरत है तो मंदिर में आने वालों के बीच इकलाख की जरूरत है। सबको अपना बनाये रखो ये ज्यादा जरूरी है।’
स्वामीजी खामोश बैठे सब सुनते रहे। विधर्मी के घर का पानी और चाय पीने का गम तो था ही उसपर उसने जिस तरह से खरी-खोटी सुनाई उससे भी सभी में आक्रोश था। वे उठने ही वाले थे कि सलीम ने एक क्षण रूकने का अनुरोध किया। जब वह लौटा तो उसकी पत्नी हाथ में थाली लिए उसके संग हाजिर थी। थाली में चावल, कुमकुम और एक लोटा जल था। पति-पत्नी दोनो ने स्वामीजी को तिलक कर उनके चरण स्पर्श किए और एक लिफाफे में कुछ दक्षिण देते हुए कहा, ‘स्वामीजी, मैं हिंदू के तौर पर पैदा हुआ था। हालात की वजह से बेशक मैं आज मुसलमान हूँ पर मेरी आत्मा आज भी हिंदू है। मुझे माफ करना अगर मेरे मुंह से कुछ गलत अल्फाज निकले हो। मगर यकीन करना मेरी दिली ख्वाहिश है कि वे हालात बदलने चाहिए जिनकी वजह से किसी दूसरे को भी अपना धर्म बदलना पड़े।’’ यह कहते हुए उसकी आंखे नम थी। अब तक शांत मौन रहे स्वामी ने कहा, ‘सलीम भाई, तुम हमारे हो, हमारे ही बने रहो। आपके पिता रामलाल थे। आप फिर से दलीप भाई बन जाओं। हम मिलकर इस व्यवस्था के खिलाफ जंग लड़ेंगे।’
‘आप ठीक कहते हैं स्वामीजी, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। कल मैं अकेला था पर आज बेटे, बहुएं, पोते-पोतियां भी है। अगर आप मेरी बजाय मजबूर लोगों को बचा सके जो तो ज्यादा शबाब का काम होगा। मैं... मैं....मैं मजबूर हूँ लेकिन किसी दूसरे को मजबूर न होना पड़े यह आप देखो। पर यकीन मानिये मैं आत्मा से हिंदू था, हिंदू हूँ और हिंदू ही रहूंगा।’
सभी उसकी पीड़ा से अभिभूत थे लेकिन मौन थेे। परंतु स्वामीजी भव्य मंदिर बनाने के संकल्प को छोड़ अपने समाज को भव्य बनाने का शंखनाद करने से पूर्व रामप्रसाद बिस्मिल और उसके साथी अशफाक उल्लाखान की बलिदान स्थली को नमन करने निकले।
सभी हिंदू सहोदर है। भाई हैं। जो होना था, हो चुका। समय की गाड़ी वापसी नहीं लौट सकती परंतु भाईयों को बांटने वाली गाड़ी को रोकना ही होगा। अशफाक की माटी से अभिषेक करने स्वामीजी गाड़ी पर सवार सलीम की आत्मा के धर्म और उसके मर्म पर चिंतन कर रहे कि श्याम से मिलन हुआ।
श्याम और सलीम बेशक व्यक्ति अलग-अलग लेकिन पीड़ा समान। नहीं, नहीं यह पीड़ा केवल उन दोनो की नहीं है। यह पीड़ा भारत माता की है जिसके पुत्र बंट रहे हैं। सहोदर होते हुए भी एक-दूसरे के दर्द को नहीं समझ पा रहे है।  क्या इकबाल ने गलत कहा था- ‘मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना’ नहीं दिल से निकले ये शब्द गलत नहीं थे लेकिन भाईयों को बांटने वालों ने ऐसी फिजा बनाई कि इकबाल भी भटक गया।
अब कोई इकबाल न भटके तभी इस मुल्क का इकबाल सलामत रहेगा। मगर यह तभी संभव है जब आत्मा का केवल एक ही धर्म, एक ही जात हो-इंसानियत। --विनोद बब्बर की कहानी Contact No-- 09868211911

आत्मा का धर्म (कहानी) विनोद बब्बर आत्मा का धर्म (कहानी) विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 20:46 Rating: 5

No comments