उलझे हुए मोतियों की चमक-- विनोद बब्बर व्यंग्य

जैविक विकास पर अपनी थ्यौरी समझाकर डार्विन गायब हो गए। आदिमानव से सुलझे हुए मनुष्य तक की यात्रा का कोई प्रमाणित- अप्रमाणित सिद्धांत उनके क्या किसी के पास भी नहीं है इसीलिए तो वैज्ञानिक समाज शास्त्रियों पर और समाजशास्त्री अटकलबाजों को यह जिम्मेवारी देकर मौन हो गए। वैसे अपुष्ट सूत्रों का दावा है कि दुनिया बहुत सरल हुआ करती थी लेकिन यह तब की बात हे जब ‘सुलझे’ हुए लोग नहीं हुआ करते थे। कुछ लोग उलझनों को सुलझे हुए लोगों का उत्पाद बताते है परंतु मैं अपनी उलझने बढ़ाना नहीं चाहता इसलिए चाहकर भी नहीं कहूंगा कि इतिहास उठाकर देख लो, जहाँ -जहाँ सुलझे हुए लोग हुए हैं केवल वहीं-वहीं उलझने फलती- फूलती रही हैं।
कल ही की बात है, एक कार्यक्रम में जाना हुआ। वक्ता ने अपना संस्था के विषय में जानकारी दी। संस्था के इतिहास, कार्यशैली और उददेश्यों पर विस्तार से चर्चा के बाद कहा गया, ‘यदि कोई व्यक्ति आज के विषय पर कुछ अतिरिक्त जानकारी अथवा स्पष्टीकरण चाहता है तो प्रश्न पूछ सकता है।’ इतना सुनते ही हमारे एक मित्र फौरन माइक की तरफ लपके और  भाषण आरंभ कर दिया- ‘आज बच्चे बिगड़ रहे हैं। मां-बाप उन्हें संस्कार नहीं देते। संस्कारों की वजह से हर तरफ गड़बड़ी हो रही है। निराशा है, आत्महत्याएं हो रही हैं। टीवी कम्प्यूटर भी काम खराब कर रहे हैं...........!’ भाषण लम्बा था, बिना ब्रेक था। आयोजकों ने अनेक बार टोका- ‘विषय पर कुछ पूछना चाहते हो तो कहो अन्यथा किसी दूसरे को मौका दो।’ पर महाशय पूरी तरह ‘संस्कारवान’ थे। अपनी बात कहकर ही माने। अब उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि लोगों ने उनकी बातों को गंभीरता से लिया या मजाक में। उन्हें जो कुछ कहना था- कह दिया। बस बात खत्म। उनका मानना है- लकीर पर चलना भेड़ों का काम है, सिंह का नहीं। जनाब काफी सुलझे हुए है इसलिए इस उलझन में नहीं पड़ना चाहते कि उन्होंने जिस विषय पर अपनी गंभीर चिंता जताई क्या वह ‘लकीर’ पर चलना था या नहीं।
यह मेरा परम सौभाग्य है कि मुझे ‘सुलझे हुए लोग’ थोक में मिले हैं। एक और महापुरुष हैं जो संयुक्त परिवार के प्रबल पक्षधर हैं। दिन रात रामनाम की तरह ‘संयुक्त परिवार- संयुक्त परिवार’ जपते हैं। चर्चा  आर्थिक मुद्दों पर हो या राजनैतिक, विश्व परिदृश्य हो या गांव की चौपाल।  बच्चों के भविष्य की चिंता हो या देश की सीमाओं की जनाब के पास हर बीमारी का इलाज मौजूद है। सब समस्याओं का रामबाण इलाज- ‘संयुक्त परिवार’ कुटकी की तरह प्रस्तुत करते हैं। (यहां यह बताना जरूरी है कि कुटकी पेट साफ करने की देशी जड़ीबूटी है। क्योंकि अधिकांश रोग पेट के कारण होते हैं इसलिए बहुत कारगर होती है) हाँ तो मूल बात पर आते हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं कि ‘संयुक्त परिवार’ का विघटन ही अनेक समस्याओं का मूल है। पर बिना लाग लपेट कहे तो बात साफ है- ‘संयुक्त परिवार का एकाकी होने का सबसे बड़ा कारण आत्मकेन्द्रित होना है। धैर्य और समन्वय ही वह गोंद है जो परिवार को जोड़कर रखती थी। दुर्भाग्य से अब वे पेड़ बहुत कम हो गए हैं जहां गोंद लगती थी। दिल से कहू तो मैं उनके दर्शन का कायल हूं लेकिन उनकी कार्यशैली का घोर विरोधी। जनाब जब तब अपने पिता से उलझते हैं। भाईयों पर रोब गालिब करते हैं। इसपर भी दुनिया का एकमात्र समझदार होने का भ्रम पाले हुए हैं इसलिए ये ‘सुलझे हुए’ महापुरुष (?) समझना नहीं चाहते कि वह उलझन बढ़ा रहे हैं। संयुक्त के संयुक्त न रहने का कारण वह स्वयं हैं। उनका दर्शन (प्रदर्शन) किसी नए आदमी को तो खूब प्रभावित करता हैं  परंतु दुःखद आश्चर्य तो यह है कि वह स्वयं ही इससे प्रभावित नहीं हो सके। इन जनाब का कहना है- ‘तो क्या जरूरी है कि कफन बेचने वाला  पहले स्वयं उसका इस्तेमाल करें।’ आशा ही नहीं विश्वास है कि आप भी मेरी तरह उनके अनुयायी बनना चाहेगे। 
एक और ‘महापुरुष’ हैं। वैसे अभी पूरी तरह ‘पुरुष’ नहीं हो सके हैं। युवा हैं। उत्साही है। गुरु की तलाश में भटकते हुए हमारे पल्ले पड़ गए। हमारी गलतियां तलाशने लगे। अपने इस शोध कार्य के लिए उन्होंने जमकर मेहनत की और एक दिन अपनी थीसिस प्रस्तुत कर ही दी- ‘आपका उच्चारण ठीक हैं। आपका स्वभाव ठीक नहीं है। आपने फलां जगह जो कुछ कहा था वह गलत था। ऐसा नहीं बोलना चाहिए था। फलां जगह तो आपने हद ही कर दी। कहीं ऐसा भी बोला जाता है क्या? आप तो सामाजिक मर्यादा का ध्यान तक नहीं रखते। आपका लेखन दो कोड़ी का है। मैं कहना नहीं चाहता मगर सत्य यह है कि आप मूर्ख और अज्ञानी हैं। इसलिए हे गुरुवर आप मुझे  अपने ‘शिष्य’ के रूप में स्वीकारे और मेरे ज्ञान सागर में डूबकी लगाकर स्वयं को कृतार्थ करें।’
मैं शुरु में ही अपने सौभाग्य  की जानकारी आपको दे चुका हूं इसलिए हमारे खजानों के कम-से कम एक और मोती से तो आपको मिलना ही पड़ेगा। जनाब समाज की चितंा में हर समय जलते उबलते रहते हैं परंतु उनके समाज की परिधि में उनका स्वयं का परिवार भी नहीं आता। परिवार वाले उनसे बात करने के लिए तरसते हैं क्योंकि जनाब के पास एक नहीं दो-दो फोन हैं जो हर समय घनघनाते रहते हैं। बदकिस्मती से यदि किसी क्षण कोई फोन न आए तो वह स्वयं किसी-न-किसी की ‘घंटी’ बजा देते हैं। उनका दर्शन बिल्कुल स्पष्ट है- ‘जिस तरह मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर की घंटी बजती है तो लोगों के ज्ञानचक्षु खुलते हैं। सड़क पर अग्निशमन की गाड़ी की घंटी की आवाज सुनकर बंद रास्ते भी खुल जाते हैं। ठीक उसी तरह मेरे फोन की घंटी भी समाज की बंद सोच के द्वार खोलेगी।’
बलिहारी हूं मैं ऐसे उन तमाम महात्माओं का जो अपनी कृपा कोर से मुझे लगातार उपकृत करते हुए मेरे लिए धरती पर ही स्वर्ग सा वातवरण बना रहे हैं। (वैसे उनकी कृपा इसी तरह से जारी रही तो यह धरती स्वर्ग बने, न बने पर मुझे बहुत जल्द स्वर्ग का द्वार खटखटाना पड़ सकता है।  अब ‘द्वार’ की बात की है तो इस देश के चुने हुए (छंटे हुए नहीं) और सुलझे हुए लोगों के साथ बिताये कुछ पलों का बखान भी सुन ही लीजिए। एक दशक से भ्ी अधिक हुआ। एक बार एक घंटे के लिए इस देश की सबसे बड़ी पंचायत की कार्यवाही देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। दर्शक दीर्घा में पास खड़े सुरक्षाकर्मी लगातार स्कूली बच्चे की तरह मुंह पर अंगुली रखने का इशारा करते रहे क्योंकि हमारे होठ हिलने से नीचे ‘महानुभावों’ के शोर में ‘खलल’ पड़ सकता था। खैर कान लगाकर सुना एक माननीय शिकायत दर्ज करा रहे थे- ‘प्रगति मैदान के गेट नम्बर-2 पर हिंदी का...!’ इससे पहले उनकी बात पूरी हो एक आवाज गूंजी- ‘जनाब गेट नहीं द्वार कहिए’ शिकयत करने वाला बहुत ‘सुलझा’ हुआ था। उसने फौरन अपनी गलती सुधारते हुए बोला, ‘सॉरी, प्रगति मैदान के द्वार नम्बर-2 पर...!’ फिर अवरोध, शोर ‘जनाब नम्बर  अंग्रेजी का शब्द है हिंदी के संख्या कहिए’  बलि-बलि जाऊ उन चरणों में जिन्होंने हिंदी का परचम नीचा नहीं होने दिया और तत्काल अपनी गलती सुधारी, ‘सॉरी, प्रगति मैदान के गेट संख्या टू पर...!’ ओह! फिर अवरोध! फिर शोर!  ‘टू नहीं जनाब दो कहिए’ इससे पहले कि माननीय शिकायतकर्ता एक बार फिर से ‘सॉरी’ कहते एक बहुत बड़े हिंदीसेवी दहाड़ उठे, ‘हिंदी इज नॉट लाफिंग मैटर!’ मैं निहाल हुआ सुलझे हुए लोगों की उलझनों से। मुझे पूरा विश्वास है कि आप भी कम-से-कम इस मामले में मेरी तरह ही समृद्ध होंगे। अगर दुर्भाग्य से आप उलझनों से सुसज्जित सुलझे हुए महात्माओं के ज्ञानामृत से वंचित हैं तो बसंत से होली तक हमारी सेवाएं निःशुल्क उपलब्ध हैं। अवसर का लाभ उठाए। भीड़ और मारामारी से बचने के लिए तत्काल आरक्षण कराए। बस इतना याद रहे आप भी सुलझे हुए व्यक्तित्व है। उलझे होने पर भी माला का हर मोती अपनी चमक रखता है। चलते चलते एक नामालूम शायर की भी  सुनी जाये--
हिचकिया दिलाकर ये कैसी उलझन बढ़ा रहे हो,
आँखें बंद है फिर भी नज़र आ रहे हो,
बस इतना बता दो हमें ....................
याद कर रहे हो या अपनी याद दिला रहे हो|
उलझे हुए मोतियों की चमक-- विनोद बब्बर व्यंग्य  उलझे हुए मोतियों की चमक-- विनोद बब्बर  व्यंग्य Reviewed by rashtra kinkar on 23:38 Rating: 5

1 comment

  1. उलझे मोतियों की चमक...
    काश! मोती माला बन सकने का प्रयास जारी रखते !
    साधुवाद नमन.

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