दिल्ली ने तोड़ा अहम और वहम-- डा. विनोद बब्बर

दिल्ली विधानसभा के चुनाव परिणाम अनेक नए कीर्तिमानों के साथ उपस्थित हुए हैं। इसीलिए तो  दुनिया भर में इनकी चर्चा है। किसी की नजर में यह आम आदमी की जीत है तो किसी के लिए केजरीवाल की। कोई इसे भ्रष्टाचार के विरूद्ध शंखनाद बता रहा है तो मोदी-शाह की जोड़ी को  तो कोई ‘घरवापसी’ को जिम्मेवार ठहराता है। हर तरकस में किरण बेदी की पुलिसिया छवि से महंगाई, कालाधन तक न जाने कौन-कौन से आरोपों के तीर हैं। ऐसे लोग भी हैं जो भाजपा की हार पर खुश तो हैं लेकिन एकतरफा परिणामों से दिल्ली विधानसभा में विपक्ष की लगभग गैरमौजूदगी से भी चितिंत हैं। स्थिति ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ वाली हैं। 
 कुछ ही महीनों पहले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटे जीतने तथा 70 में से 60 विधानसभा सीटों पर आगे रहने वाली भाजपा का मात्र 3 सीटों पर सिमट जाना आश्चर्यजनक लगता है लेकिन यह भी सत्य है कि मोदी  से आम कार्यकर्ता तक किसी को भाजपा की जीत का विश्वास नहीं था। इसीलिए तो पार्टी के हडबड़ाहट में अनेक गलतियां की। राजनैतिक जुमलेबाजी कुछ भी हो लेकिन किरण बेदी की योग्यता और क्षमता असंदिग्ध है परंतु एक महीने से भी कम समय शेष रहते बिना किसी तैयारी उन्हें लाना ‘आत्मघाती गोल’ ही तो था। पहले से ही अनेक गुटों में बंटी पार्टी लगभग दिशाहीन हो गई। रही सही कसर टिकटों के बंटवारे ने पूरी कर दी। दलबदलुओं अवसरवादियों को पार्टी में शामिल करना जैसे वर्षों सत्ता का सुख लेते हुए भाजपा को ‘गरियाने’ वाली पूर्व केन्द्रीय मंत्री जो मात्र कुछ घंटे पहले ही पार्टी में आई थी उसे टिकट देना राजनैतिक के किस अध्याय की ‘शुचिता’ थी इसपर पार्टी के मठाधीशों को अवश्य देश की जनता का ज्ञानवर्द्धन करना चाहिए।
इस बात से शायद ही किसी को असहमति होगी कि चुनाव के मौके पर अनेक तरह के वादे किये जाते हैं। हर बार मात्र कुछ वादे ही पूरे किये जाने के योग्य होते हैं।  अपूर्ण वादों पर तरह-तरह की बहानेबाजी होती ही है। लेकिन पहली बार ऐसा हुआ है कि वादे करने वाले दल का अध्यक्ष ही वादों को ‘चुनावी जुमलेबाजी’ का नाम देकर स्वयं को पाक साफ साबित करने की बजाय पार्टी की संभावनाओं को ‘साफ’ करता नजर आया और उसपर उनके आका सहित पार्टी से कहीं कोई आवाज तक नहीं उठती। इसे पार्टी की कार्यशैली में गिरावट कहा जाए या उसके नेताओं का बड़बोलापन इसे स्पष्ट किये बिना पार्टी के पांवों की बेड़ियां उसे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ने देगी। पार्टी से सरकार तक के कामकाज में पारदर्शिता का अभाव अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न करता है। बदलते दौर में राजनीति में सफलता के लिए नेतृत्व के स्तर पर सजगता के साथ-साथ संवेदनशीलता होना चाहिए। कोई भी सफलता केवल उसकेे नेता के करिश्मे का परिणाम नहीं होती, उसमें कार्यकर्ताओं की साधना का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यदि कोई पार्टी नींव के पत्थरों रूपी अपने कार्यकर्ताओं के जर्जर रहते मजबूती बने रहने का दिवा स्वप्न देखती है तो उसे आत्महन्ता बनने से कौन रोक सकता है?
विजेता दल ने महीनों पहले अपने उम्मीदवार घोषित कर प्रचार आरंभ कर दिया जबकि भाजपा आखिरी दिन तक अनिश्चय में रही। ऐसे लोगों को भी टिकट से नवाजा गया जो आम जनता तो दूर जिसे कार्यकर्ताओं भी नहीं जानते थे। जबकि केजरीवाल अनधिकृत कालोनियों में रहने वाले गरीबों और असंगठित क्षेत्र के कामगार मजदूरों से रेहड़ी-पटरी वालांे को अपने विश्वास में लेने में सफल रहे। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते गए मैट्रो से हर बस स्टैंड रेलवे स्टेशन पर टोपी लगाये आप कार्यकर्ता जनता से सीधा संवाद स्थापित कर जनता के मन सरकार की कॉर्पाेरेट समर्थक-आम आदमी विरोधी छवि बनाने में लगे रहे। जबकि भाजपा ने अपने जमीनी कार्यकर्ताओं की भी अनदेखी की। यह तो अंतिम दौर में मातृ संस्था ने स्थिति संभाली जिससे भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव  में प्राप्त 33.07 प्रतिशत के मुकाबले इस बार भी 32.2 प्रतिशत मत पा सकी। उसके लिए कांग्रेस के वोट बैंक का आम आदमी पार्टी को हस्तांतरण विनाशकारी रहा। एक तरह से भाजपा का ‘कांग्रेस मुक्त दिल्ली’ का सपना स्वयं उसे ही मंहगा पड़ा जो 2013 के विधानसभा चुनावों में 26,75,857 वोटों के मुकाबले इस बार  28,91,510 वोट यानि 2,15,653 वोट अधिक लेकर भी साफ हो गई। 
जहां पार्टी को अपने ही कुछ नेताओं के अति ‘अहम’ के कारण इस शर्मनाक स्थिति का सामना करना पड़ा वहीं यह ‘वहम’ भी उन्हें ले डूबा कि कभी भी चुनाव जीत सकते हैं। अगर तिकड़म से सरकार बनाने की कोशिशों की बजाय  लोकसभा के तुरंत बाद चुनाव होते तो नजारा बदला होता। वैसे नगर निगम के अकुशलता, नकारात्मक प्रचार, समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी,  नेता पुत्रों-भाईयों को अनावश्यक महत्व पर चिंतन के साथ-साथ अपने प्रेरणापुरुष अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन भी सदा याद रखना चाहिए, ‘मैं चाहे कितना भी बड़ा नेता सही लेकिन बिना कार्यकर्ताओं के निगम का चुनाव भी नहीं जीत सकता।’
यूं विजेता दल भी कोई दूध का धुला नहीं है। उसने राजनीति के हर दांव को आजमाया। छतरपुर,  महरौली सहित अनेक स्थानों पर प्रत्याशियों की छवि के बजाय उनकी क्षमता को अधिमान दिया। नतीजे आने के बाद खुद पार्टी के संस्थापक सदस्य शांति भूषण के अनुसार- ‘पार्टी में 15-20 विधायकों की छवि खराब है। उन पर कई आरोप हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि केजरीवाल ऐसे दागी विधायकों को मंत्री नहीं बनाएंगे।’ उन्होंने पार्टी  में अंदरूनी सुधार की जरूरत पर भी बल दिया। इससे पूर्व भी प्रचार अभियान से संसाधनों तक आगे होते हुए भी अपनी छवि को बरकरार रखने में सफलता ने उसे इस अकल्पनीय सफलता तक पहंुचाया। सफलता सफलता होती है। उसका सम्मान होना चाहिए। उन्हें अपने आपको साबित करने का भरपूर अवसर मिलना ही चाहिए। 
यूं तो कोई भी परिणाम सभी को संतुष्ट नहीं कर सकता परंतु हार या जीत में सभी के लिए कुछ न कुछ अवश्य होता है। दिल्ली का फैसला यदि केजरीवाल के लिए सत्ता का ताज लाया है तो भाजपा के लिए ताज से भी ज्यादा कीमती सबक लेकर आया है। भाजपा को हराना किसी नई पार्टी के बस की बात नहीं थी, उसे उसके अपनो ने ही डुबोया है। चुनाव परिणाम का संदेश साफ है कि एक अथवा दो व्यक्ति विभिन्नताओं वाले इस देश को जीत नहीं सकते। 
कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रहे मोदी जी को  भाजपा मुक्त दिल्ली की तस्वीर देखकर यह स्वीकार करना होगा है कि देश को प्रधानंमत्री चाहिए- परिधान मंत्री नहीं। एक ही दिन में कई-कई बार कपड़े बदलकर फैशन शो सा माहौल बनाते हुए ‘मुझे सफाई पसंद है’ जैसे जुमले उछालने वालांे को अपने देशवासियों को दिन में कम से कम एक बार ढ़ंग के कपड़े बदलने लायक बनाये बिना अपनी इस अति के लिए जवाब तलब कौन करेगा? एक गरीब चायवाला जिसने जिंदगी को बहुत करीब से देखा है और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक भी बना उसे सादगी लेकिन सजगता का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। क्या वह बता सकते है कि फटे  मैले परिधान किसे  पसंद है? किसे गरीबी में रहना पंसद है? उन्हें केवल दिल्ली ही नहीं शेष देश को भी अपने व्यवहार से सबकी अपेक्षाओं -उम्मीदों पर खरा उतरने में कोई कोर कसर उठा न रखने का संदेश देना होगा। दुनिया किसी चित्र को नहीं चरित्र को पूजती है। 
सबक तो केजरीवाल के लिए भी कम नहीं है। प्रचंड बहुमत ने अब उनके लिए किसी बहाने की गुजांइश छोड़ी ही नहीं है। लगभग असंभव जैसेे वादे पूरे करने के लिए उन्हें इसबार टकराव नहीं, समन्वय के रास्ते पर चलना पड़ेगा। ‘भगौड़ा’ कहने वालों की धारणा बदलने के लिए ‘धरने’  पर नहीं ‘करने’ पर डटना होगा। कानून बनाने, बदलने की प्रक्रिया पसंद हो या न हो लेकिन उन्हें स्वीकार्य करना ही चाहिए। बेशक ‘लोकराज’  लोकलाज से चलता है लेकिन नियम-कानूनों को पैरों तले नहीं रौंदा जा सकता। फिलहाल सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना। जयहिंद!
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