हमारी धार्मिक सहिष्णुता और ओबामा का उपदेश -- डा. विनोद बब्बर


अपनी भारत यात्रा के अंतिम दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि हर व्यक्ति को किसी तरह के उत्पीड़न, डर या भेदभाव के बिना अपने धर्म का पालन करने का अधिकार है और भारत तब तक सफल रहेगा जब तक यह धार्मिक आधार पर विभाजित नहीं होता। बेशक मोदी के राजनैतिक विरोधियों की दृष्टि में ‘धार्मिक सहिष्णुता पर ओबामा का जोर कुछ और नहीं, बल्कि मोदी शासन के दौरान बढ़ रही धार्मिक असहिष्णुता का इल्ज़ाम हो।’ लेकिन  सदियों से धार्मिक सहिष्णु भारत की धरती से सीधे सऊदी अरब के दिवंगत शाह को  श्रद्धांजलि देने रियाद पहुंचे ओबामा को अपने वक्तव्य पर फिर से विचार की जरूरत अवश्य महसूस हुई होगी। भारत में स्कर्ट पहनने पर भी सम्मान पाने वाली मिशेल भारत छोड़ते समय आधी आस्तीन की ड्रेस पहने थीं लेकिन जब वह रियाद में जहाज से बाहर निकली तो पूरी आस्तीन की ड्रेस में दिखीं। उनके स्कार्फ न  पहनने का प्रभाव यह था कि ओबामा दंपती की नए शाह  से मुलाकात के दृश्य को वहां के सरकारी टीवी ने मिशेल ओबामा को धुंधला कर दिखाया। वहां महिलाओं को सिर से लेकर पांव तक कपड़े पहनने और सिर ढकने का नियम है। आश्चर्य है कि प्रेम के विश्व प्रसिद्ध प्रतीक ताज को देखने के कार्यक्रम को रद्द कर रियाद पहुंचे ओबामा  वहाँ धार्मिक स्वतंत्रता तो क्या  विदेशियों मेहमानों पर बंदिशों न लादने की नसीयत देने का नैतिक साहस तक नहीं जुटा सके। 
खैर बेशक ओबामा न जानते हों पर सम्पूर्ण विश्व की दृष्टि में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता को कानूनी ही नहीं  सामाजिक मान्यता प्राप्त है। अगर भारत की पहचान अनेकता में एकता वाले बहुसांस्कृतिक है तो इसका पूरा श्रेय इस देश की उदात्त एवं सहिष्णु परंपरा को जाता है। भारत दर्शन बिना किसी भेदभाव के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का उद्घोष करता है।  भारत में जन्मे हर धर्म, हर मत ने सहिष्णुता को प्राथमिकता दी है। सदियों का इतिहास गवाह है हमने कभी बल या छल से किसी पर अपने धार्मिक विचार नहीं थोपे। विदेशी आक्रांताओं ने हमारे हजारों मंदिरों को लूटा ही नहीं नष्ट तक किया और कुछ को अपने धार्मिक स्थलों में बदला। कुछ ऐसे अवशेष देश की राजधानी दिल्ली सहित सम्पूर्ण भारत में आज भी हैं। दूसरी ओर हमारा रिकार्ड बेहद उदार रहा है। हम हर नए विश्वास को आदर से ग्रहण करते रहे हैं। भारत में बनी पहली मस्जिद एक हिन्दु राजा ने बनाई थी। बेशक हर भारतीय किसी न किसी धर्म से जुड़ा है लेकिन आज भी मजारों पर जाने वालों में अधिकांश हिन्दू ही होते हैं। ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दो भगवान’ गांधी का प्रिय भजन था। पिछले दिनों हुए प्रदर्शन यदि कुछ कहते हैं तो ओबामा के अपने देश में आज भी भेदभाव होता है। वहां के प्रांतीय गवर्नर भारतवंशी बॉबी जिंदल और निक्की का ईसाई मत को स्वीकारना प्रमाण है कि वहां बहुमत के धार्मिक विश्वास को अपनाये बिना राजनीति संभव नहीं है। खुद बराक हुसैन ओबामा को अपने नाम के कारण बार-बार सफाई देनी पड़ती है जबकि भारत में एक नई अनेक राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, गवर्नर धार्मिक अल्पसंख्यक  हो चुके हैं।
शायद ओबामा या उनके देशवासी नहीं जानते एक अंग्रेज पादरी ने स्वामी श्रद्धानन्द को लिखा- “मैं धर्म प्रचार के लिये हिन्दी सीखना चाहता हूँ। इसके लिये मैं कुछ मास तक गुरुकुल कांगड़ी में रहने की अनुमति चाहता हूँ। आपको वचन देता हूँ कि वहाँ निवास के दौरान ईसाई धर्म का प्रचार बिल्कुल नहीं करुँगा।” कुछ दिन बाद पादरी महोदय को स्वामीजी का उत्तर मिला-“गुरुकुल में आपका स्वागत है और हमारे अतिथि बनकर रहेंगे। परन्तु यह भी वचन दीजिये कि गुरुकुल में आप ईसाई धर्म का प्रचार पूरी तरह करेंगे, जिससे हमारे छात्र महात्मा ईसा मसीह के जीवन तथा धर्म को भी जान सकें। धर्म आपस में बैर करना नहीं, प्रेम करना सिखाता है।” पादरी महोदय गुरुकुल आये तो स्वामीजी ने उनके लिए उचित व्यवस्था कर दी और पूर्ण सम्मान के साथ हिन्दी सीखने की सुविधा प्रदान की। गुरुकुल में उन पर किसी प्रकार का प्रतिबंध भी नहीं था। भारतीय धर्मों के बारे में पादरी महोदय की पूर्व धारणाएं मिट गई और वे स्वामीजी के भक्त बन गए।
हमारे यहां अनेक ऐसे नये मत पनपे, फले-फूले जो  सनातन परंपरा से बिल्कुल अलग विचार रखते थे। असहमति के बावजूद आपस में एक-दूसरे के प्रति आदर रखा गया। यहां तक कि ‘यावज्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा, घृतं पीबेत। भस्मीभूतस्य देह पुनरागमन कुतः।। यानी जब तक जियो सुख से जियो, ऋण लेकर घी पीओ, देह के नष्ट हो जाने के बाद इसकी वापसी कहाँ होगी।’ जैसी सनातन परंपरा के बिल्कुल विपरीत सोच  के बावजूद चार्वाक को ऋषि कहा गया। चीनी यात्री हुएनसांग और फाह्यान ने तत्कालीन भारतीय समाज की धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा हैं तो मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका में कुछ ऐसे ही उद्गार व्यक्त किये हैं। विजयनगर साम्राज्य के बारे में विदेशी यात्री डोमिंगो पेज लिखता है कि चाहे मूर हो, ईसाई हो, या अन्य मतावलंबी, राजा की नजरों में सब बराबर हैं। इराक के शाह शाहरूख के राजदूत अब्दुर्रज्जाक ने भी विजयनगर के राजाओं की धर्मनिरपेक्षता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
दुर्भाग्य की बात तो यह भी  है कि गुरु गोविंद सिंह, महाराणा प्रताप, शिवाजी सहित देश के महापुरूषों के बारे में स्वयं हमें भी सही जानकारी नहीं है। भारतीय संस्कृति के ये सभी पुरोधा किसी सम्प्रदाय अथवा धम के खिलाफ नहीं थे बल्कि जुल्म के खिलाफ थे। हम में से कितने लोग जानते हैं कि शिवाजी के सेनापति का नाम इब्राहिम गार्दी था जो पांच वक्त का नमाजी थी। महाराणा प्रताप की सेना में सरदार हकीम खान  सहित अनेक मुस्लिम थे तो गुरु गोविंद सिंह की सेना में अनेक पठान थे। उनके एक सेवक के विरूद्ध शिकायत आई कि वह दुश्मनों को भी पानी पिलाता है। लेकिन गुरु गोविंद सिंह जी ने उसे न केवल पानी पिलाने बल्कि उनके घावों पर मरहम लगाने की अनुमति दी।  
स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन उद्बोधन में दो बातों को विशेष रूप से रेखांकित किया था। एक- इस्लाम के प्रसार के समय भारत में आए पारसी तथा दूसरा- फिलीस्तीन में इस्लाम के उभार के बाद आने वाले यहूदी। यह ऐसी ही घटना थी जैसे आधुनिक काल में तब हुई जब दलाई लामा के नेतृत्व में बड़ी संख्या में तिब्बती बौद्ध धर्म मतावलंबियों ने भारत में शरण ली। भारत में पारसियों को शरण दिए जाने की जानकारी आठवीं शताब्दी के संजन अभिलेख से मिलती है वहीं केरल में ग्यारहवीं सीद का एक ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है जिसमें तत्कालीन राजा भास्कर रविवर्मन ने जोसेफ रब्बान नामक यहूदी को भूमि आवंटित की थी। 
यदि समकालीन परिस्थितियों की बात भी करें तो कौन नहीं जानता कि इस देश का विभाजन धार्मिक आधार पर किया गया। पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र बना लेकिन भारत हिन्दू बहुल्य होते हुए भी हिन्दू राष्ट्र नहीं बना क्योंकि सर्वधर्म समभाव सदियों से हमारी परम्परा रहा है। हाँ, इधर कुछ दशकों से तुष्टकिरण ओर वोटबैंक की राजनीति ने अवश्य विभाजन बढ़ाया है। यदि ओबामा के संदेश में अगर कोई बात ग्रहण करने योग्य है तो वह यही कि एकसमान कानून हो, वोट बैंक की राजनीति का अंत हो,  धार्मिक कट्टरता अस्वीकार्य हो। लेकिन क्या हम इस शुभकार्य के लिए तैयार हैं? क्या धार्मिक विभाजन को बढ़ावा देने वालो से राजनीति को मुक्त कराने की सोच भी सकते हैं? यदि हाँ, तो दुनिया की कोई शक्ति भारत को पुनः विश्वगुरु बनने से रोक नहीं सकती। और यदि दुर्भाग्य से हम इसके लिए तैयार नहीं है तो ओबामा तो क्या, ईश्वर भी हमारा भला नहीं कर सकता।     
और अंत में ओबामा से एक सवाल- मान्यवर, आपने रियाद का स्वाद भी चख लिया। हमारे माखनलाल चतुर्वेदी जी की ये पंक्तियां सुने और अच्छी तरह सोचकर बताये कि भारत को धार्मिक सहिष्णुता का उपदेश देना चाहिए या उससे कुछ सीखने की जरूरत है- 
मन्दिर में हो चांद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान।
मक्का हो चाहे वृन्दावन, होवें आपस में कुर्बा
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