किस हाल में हैं हमारे बुजुर्ग-- डा. विनोद बब्बर

पाषाण काल से आधुनिक सभ्यता तक का सफर मानवीय संबंधों के परस्पर आकर्षण की गाथा है। आदिमानव से परिवार और समाज की ओर बढ़ना रिश्तों के कारण हीं संभव हुआ, जिसने दुनिया की तस्वीर ही बदल दी। अपने परिवार और निकटजनों के जीवन को सुखकर बनाने के लिए, तो कभी रिश्तों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करने के लिए मनुष्य ने क्या नहीं किया। ‘आसमान से तारे तोड़ लाने’ की बात अकारण नहीं है। वास्तव में, आज की समस्त भौतिक सुख-सुविधाएं और नित नये आविष्कार मानवीय संबंधों से, संबंधों द्वारा, संबंधों के लिए ही तो है। दुनिया से कटे एक-अकेले व्यक्ति को धन कमाने, महल खड़ा करने और नये-नये आविष्कारों का जरूरत ही नहीं होती। इतनी महिमा होते हुए भी आज इन्हीं संबंधों की नींव पर खड़ा समाज और समाज की मर्यादा और शांति खतरे में है।
पिछले दिनों दिल्ली के नांगलोई में 75 साल की मुन्नी बेगम को उनके तीन बेटे जंजीर से बांधकर रखते थे। पिछले कई महीनांे से सर्दी, गर्मी और बरसात में खुले आसमान के नीचे रह रही उस बुजुर्ग को एक एनजीओ की सूचना पर पुलिस ने बेटों पर केस दर्ज किया। वास्तव में अपनी तरह की कोई इकलौती धटना नहीं है। ऐसा ही मामला पिछले दिनों दिल्ली हाई कोर्ट में सामने आया।  75 से अधिक वर्ष के बूढ़े माँ-बाप को घर निकाल बाहर करने वाले मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने वकील से पूछा कि बेटा कहाँ है, तो उसने कहा कि वह शिरडी दर्शन को गए हैं। इस पर कोर्ट ने टिप्पणी  की कि लोग कितनी अजीब पूजा करते हैं, एक तरफ अपने माँ-बाप को घर से निकाल देते हैं और फिर पूजा करने शिरडी आदि पूजा-स्थलों पर जाते हैं। वकील ने कोर्ट को बताया कि बेटे को संयुक्त हिन्दू परिवार के कानून के तहत सम्पत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए। इस पर कोर्ट ने वकील को कड़ी फटकार लगाते हुए संयुक्त हिन्दू परिवार का मतलब समझाते हुए कहा कि जब आप अपने माता-पिता के प्रति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते हैं, तो आपका संपत्ति में कोई हक नहीं हो सकता। 
प्रकृति का फूल, समय के साथ अपने यौवन की सुगंध पाता है तो संध्याकाल में मुरझाहट दिखाने  लगता है। लेकिन उन्हें पैरो तले रौंदा नहीं जाता। हमारी संस्कृति में बढ़ती उम्र के साथ-साथ सम्मान भी बढ़ता जाता था, उनका समाज में रुतबा था और उनकी बात मानी जाती थी। लेकिन पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, विखण्डित होते संयुक्त परिवार, शहरीकरण,  उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से आत्मकेन्द्रित होते समाज में उनके अस्तित्व को नकारना शुरू कर दिया है। समाज में यह आम धारणा बनती जा रही है कि बुजुर्ग फालतू प्राणी हैं। उनकी उपेक्षा होने लगी है। अनुपयोगिता का अहसास एक वृद्ध को जहाँ गतिशील सामाजिक जीवन से काट कर रख देता है वहीं उसके सामने सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करने की समस्या भी आ खड़ी होती है। लगता है जैसे उनकी दशा उस कैलेण्डर जैसी हो गई है जिसे नये वर्ष आते ही रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाता है या फिर कापी किताबों पर जिल्द चढ़ाने के काम में लिया जाता है। शहर के हर पार्क में किसी तरह समय बिताने को अभिशप्त इन बूढ़ों की दशा को आप लाख पीढ़ियों का अंतर कह कर टालने की कोशिश करे लेकिन यह सीधे-सीधे अहसान फरामोशी है। 
ऐसा नहीं है कि समाज में ऐसे परिवार बिल्कुल नहीं हैं जहाँ वृद्धों को पूरा सम्मान मिलता हो। लेकिन ऐसे परिवारों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। हाँ, यह भी संभव है कि कुछ तथाकथित आधुनिक लोग जो एक ओर संयुक्त परिवार के लाभ तो लेना चाहते हैं लेकिन उसके विखंडन का दोष  बुजुर्गों की रोक टोक पर डालकर अपना दामन बचाना चाहते हो। लेकिन वे अपने बचपन को याद नहीं करना चाहते जब वे हमारी हर जिद्द पूरा करने को तैयार रहते थे। हमारी हर मुस्कान पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले अपनी हर थकान भूलकर हमारे पीछे भागते थे। हमें जरा सी खरोंच भी लग जाती थी तो उनकी नींद हराम हो जाती थी। ऐसे लोग क्यों नहीं समझना चाहते कि बुढ़ापा एक तरह से बचपन का पुनरागमन ही तो  है। आज जब वे शरीर से अशक्त और मन से बेचैन है तो क्या हमें अपने अपना कर्तव्य भूला दे? क्या उन्हें सम्मान देने की रस्म अदायगी भर करते रहना चाहिए? क्या उन्हें उपेक्षित कर मृत्यु से पूर्व ही ‘भूत’ बनाना उचित है?
 वृद्धावस्था जीवन का अखिरी चरण है, परिवार में ऐसा वातावरण बनाएं जिससे घर में बुजुर्ग को सम्मान मिल सके क्योंकि इस स्थिति में सभी को पहुँचना है, इस बात का अहसास सभी नवयुवकों को करना चाहिए। वृद्धों के पास अनुभवों, संस्मरणों, स्मृतियों के विशाल भण्डार होते हैं। उनके अनुभव हमारे लिए अमूल्य धरोहर हैं जिन्हें संजोकर रखना हमारा कर्तव्य है। साथ ही सरकार का भी यह परम कर्तव्य है कि वृद्धावस्था पेंशन, उनके पुनर्वास की योजनांए आदि बनाकर उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करें।
 जीवन में सबसे उत्तम कर्म है माता-पिता की सेवा करना। माता-पिता की सेवा भगवान की पूजा करने के बराबर है। मनुस्मृति के अनुसार- जो लोग नित्य प्रति अपने वृद्धजनों का सम्मान एवं अभिवादन करते हैं, उनके यश, विद्या, आयु और बल-बुद्धि की अभिवृद्धि होती हैं। महात्मा चाणक्य ‘वृद्ध सेवाय विज्ञाननम्’ अर्थात वृद्धजनों की सेवा से विशेष ज्ञान एवं विज्ञान की प्राप्ति होती है का उद्घोष करते हैं। हमारे शास्त्रों में माता-पिता और गुरू की बड़ी महिमा बताई गई है। जो तीनों का आदर, सम्मान व सेवा करके उन्हें प्रसन्न करता है, वह तीनों लोकों को जीत लेता है और अपने शरीर से दिव्यमान होता हुआ सूर्यादि देवताओं के समान स्वर्ग में आनन्द लेता है। 
औसत आयु में वृद्धि के साथ ही, देश में बूढ़ों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है। जब तक उनका शरीर चलता है वे भार नहीं होते। पर अशक्त होने या विपन्न होने की दशा में वे परिवार पर भार बन जाते हैं। परिवारों के टूटने पर दादा-दादी, माता -पिता तक का बँटवारा होने लगा है। उनकी छोटी-छोटी जरूरतों को लेकर भी अक्सर कलह होने लगती है। यह विचारणीय है कि आखिर हमारी संवेदनाएं इतनी मृतप्रायः क्यों और कैसे हो गई कि हमारी नन्हीं- नन्हीं उंगलियों को थामने वाले हाथ  खुद किसी के सहारे की तलाश में भटकें। क्या यह हमार कृतघनता नहीं कि हम उनके बुढ़ापे की लाठी बनने की बजाय बहाने तलाशने में अपनी शान समझते हें। आखिर  हम अपने जिन बुजुर्गों का श्राद्ध अत्यंत श्रद्धापूर्वक करते हैं, उनकी मृत्यु के पश्चात् बड़े-बड़े मृत्यु भोज  आयोजित करते हैं, पर जीते-जी उनकी सुध नहीं लेते?  इतना सब कुछ होने पर भी हम, हमारा समाज और हमारी सरकारें राष्ट्र की इस अमूल्य धरोहर के प्रति अनमने क्यों है? कोई समाज अपने बुजुर्गों का तिरस्कार करके महान नहीं बन सकता है। क्या ठीक नहीं कहा है किसी कवि ने:-
पत्थर के अब मकान बनाने लगे हैं लोग, दिल के मकान किंतु गिराने लगे हैं लोग।
रखते हैं अपने बच्चों से जो सुख की कामना, बूढ़ों को मगर रोज़, रूलाने लगे हैं लोग।।
किस हाल में हैं हमारे बुजुर्ग-- डा. विनोद बब्बर किस हाल में हैं हमारे बुजुर्ग-- डा. विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 00:24 Rating: 5

1 comment

  1. बहुत सुन्दर, पढ़ा जाने वाला लेख...
    बधाई!!

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