ज्येष्ठ में बसंत

बसंत तो बसंत है, जब आता है तो बस छा जाता है। आखिर ऋतुराज जो ठहरा! इसके आते-ही प्रकृति की सुन्दरता, सुगंध, उल्लास, शुक-पिक का मधुर गायन सभी तक पहँुच ही जाता है। पर इधर कुछ बरसों से हमारे जीवन से बसंत गायब था। सुना था, बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप के कारण आतंकवाद बढ़ रहा हैं, इसलिए सीमाएं सील कर दी गई हैं, रेड अलर्ट घोषित कर दिया गया है। लगा जैसे किसी वर्दीधारी की संगीनों ने बसंत को भी शहर की सीमाओं में घुसने से रोक दिया हो। पर हरियाली-खुशहाली न सही, कोयल की कूक तो अवश्य सुनाई देनी चाहिए थी। 
हर साल समाचार-पत्रों और टी.वी. पर बसंत के आगमन का शुभ समाचार सुनकर हमारी आशा की कोंपलें फूटने लगतीं पर श्ीघ्र ही इन्हें मुरझाते देखकर दिल से एक टीस-सी उठती। उसे नहीं आना था, नहीं आया, बरसों से नहीं आया। पर दिल है कि मानता नहीं- ‘तेरे आने की क्या उम्मीद, मगर कैसे कह दूँ कि तेरा इंतज़ार नहीं।’
खूब सोचा, बार-बार सोचा। तब कहीं जाकर बसंत के ब्लैकआउट का कारण समझ में आया। पर ‘समझ’ कर भी ‘नासमझ’ बने रहे क्योंकि अब तक एक नहीं, कई गलतियाँ सामने थीं। खुदा झूठ न बुलवाए, हमारी गलतियाँ अब इतनी बड़ी हो चुकी थीं कि सिर चढ़ बोलने लगी थीं, लिहाज़ा, शांति गंवाने के बाद इज्जत गंवाने का खतरा मोल नहीं ले सके। इसलिए,  मौन की शरण ली। जीभ मौन रही! पर मस्तिष्क   मौन नहीं रहता। चाह कर भी बसंत पंचमी की उस रात को कभी नहीं भूल सके, जो  हमारे बसंत का बैरियर बन गई। 
गलत न समझंे, ब्राह्मणों ने ही बसंत पंचमी का मुहुर्रत सुझाया था। तब सेहरा सजाये, हाथ में तलवार लिए घोड़ी पर सवार किसी चक्रवर्ती राजा की तरह हम फूले नहीं समा रहे थे। पर जब लौटे, तो निहत्थे थे क्योंकि तलवार और घोड़ी गायब थी, मुकुट भी छिन चुका था। और हाँ, हमारी लगाम अब उनके ‘कर कमलों’ मंे सुशोभित थी। तख्तोताज बदल गया। कुछ ही दिनों तक घुंघरूओं की छनछनाहट रही जो  खनखनाहट के बाद शीघ््रा ही  खटर-पटर में बदल गई।  हम उनके ‘पैट’ होकर अपना सब कुछ गंवा बैठे।
हाय री किस्मत! हमारी खुशियाँ, हमारी कल्पना, हमारी कविता, हमारी महफिल, न जाने इतिहास के किन पन्नों तक सिमट कर रह गई? हमारी खिलखिलाहट तो क्या मुस्कराहट भी ईद का चाँद बन गई क्योंकि फोटो ख्ंिाचवाने के लिए उसे सुरक्षित रखना जरूरी था। 
हनी का मून कब हैरर हो गया, पता ही नहीं चला।  हमारी हर गतिविधि ‘अंडर वाच’ हो गई। घर से लेकर  दफ्तर तक, मौका-बेमौका झाड़, फटकार उन्होंने अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया। हम बॉस से लेकर बीबी तक की तिरछी नजरांें से अपने आप को बचाये रखने की कोशिश  करते रहे। पर ‘न्यूनतम दूरी’ के सिद्धांत पर चलते हुए उन्होंने हम पर अपना नियंत्रण बनाये रखा।
बाजार जाना हो या गाँव, उन्होंने इस ‘बेचारे’ को कभी अकेला नहीं छोड़ा क्योंकि थैला या बच्चे उठवाने के लिए एक सहायक की जरूरत रहती ही है। गलती बच्चों की हो, तो भी उनकी नज़रे-इनायत हम पर ही  होती। ऐसे में जब चारों तरफ ऐसी कड़ी चौकसी हो जहा परिंदा भी पर न मार सके, तो बसंत की क्या मजाल जो इस नाचीज़ के पास भी फटक जाता। 
सुना था, बारह बरस बाद तो कूड़े  के भी दिन बदलते हैं। पर उसे सत्य होते देखकर मुहावरो में हमारी आस्था बहुत बढ़ गई। हम दफ्तर से घर लौटे ही थे कि श्रीमतीजी ने खुशखबरी सुनाई- ‘मेरे भैया का खत आया है, अगले महीने उनकी बिटिया की शादी है, शादी की तैयारियों के लिए मुझे एक महीना पहले बुलाया है। इधर बच्चों की भी छुट्टियां हैं, तुम तो कभी कुछ सोचोगे नहीं। बेचारे बरसों से यहीं बोर हो रहे हैं, सोचती हूँ, इन्हें भी साथ ले जाऊँ। और हाँ, शादी से एक दिन पहले तुम भी आ जाना।’
यह सुखद समाचार पाकर रात भर खुशी से सो न सका। इकलौता विधायक होते हुए भी मुख्यमंत्री बनने पर मधुकोड़ा को इतनी खुशी  नहीं हुई होगी। अगले ही दिन, अपने मायके रवाना होने से पहलेे उन्होंने ढ़ेरांे हिदायतें दे डालीं-ऐसे करना, ऐसे मत करना, ध्यान रखना, लापरवाही मत करना और न जाने कितने तरह के आर्डर जारी करते हुए, उन्होने अपने तेवर दिखायंे। उधर गार्ड ने हरी झंडी दी और इधर हमने हाथ हिलाकर अपनी ड्यूटी निभाई। घर लौटते हुए हमारा मन मास्टर के छुट्टी पर होने से स्कूल बच्चों या बॉस के गैरहाजिर होने पर दफ़तर के बाबू की तरह बेकाबू हो रहा था।
ऐसी नींद आई कि अगली सुबह पता ही नहीं चला कि दूधवाला कब घंटी बजा-बजा कर लौट गया। आखिर क्यों न होता, हर रोज़  ब्रह्म मुहूर्त से बजने वाला ‘राग ज्वाल लपटी’ आज नहीं था। रविवार था, दफ्तर की छुट्टी थी। पर पता नही,ं शर्माजी को किसने यह जानकारी दे दी, उन्होंने फोन पर ‘स्वतंत्रता दिवस’ की बधाई देते हुए शाम को एक गोष्ठी का सुझाव दिया और सभी पुराने मित्रों को आमंत्रित करने का जिम्मा भी खुद संभाल लिया।
वाह! क्या आनंद आया, बरसों बाद फिर वही कल्पना, वही कविता, वही शमा, वही रोशनी और वही हम.....! बसंत तो सचमुच आन पहुँचा था। मयूर न सही, खुशियों, और ठहाकों से मन मयूर जरूर नाच उठा। शेरो-शायरी हुई, खूब जमकर हुई क्योंकि शेरनी का कहीं कोई खौफ नहीं था। 
अगली सुबह से बटर स्लाइस और दूध का नाश्ता, दोपहर में साथियों के लंच बाक्स में हमारा हिस्सा और शाम को किसी न किसी गोष्ठी-पार्टी में दावत उड़ाना रोज का काम बन गया। जिंदगी के मायने ही बदल गये। अब देर से घर लौटने पर सी.बी.आई. की इनवेस्टिगेशन नहीं होती थी और न ही कालर पर लगे निशान या कमीज़ से चिपके लम्बे बाल, किसी प्रयोगशाला जाँच के लिए भेजे जाते थे, अब यह सिलसिला बंद हो गया। लगा जैसे पिंजरा टूट गया हो और उसमे कैद पंछी मुक्त आसमान में विचरण कर रहा हो। 
भाव, भाषा और भोजन में हुआ बदलाव पतलून की कसी कमर से लेकर बदले हुए व्यक्तित्व की दर्पण में गवाही देने लगा। ज्येष्ठ की लू भी हमारे लिए मलयागिरि की सुगंध समीर हो गई थी। 
पर भाग्य को हमारी खुशियाँ कब भायीं? अभी 15 ही दिन बीते थे कि एक टेलीग्राम मिला। कांपते हाथों से उसे खोलते हुए मन किसी आशंका से भयभीत था। आशंका सत्य निकली, उसमें लिखा था- ‘शादी अगली बसंत पंचमी तक स्थगित, कल लौट रही हूँ, स्टेशन पर पहुँचों- आपकी-----. ’
अचानक कूलर की हवा से ठण्डक गायब हो गई, गैलरी में रखे गमलों का हुलिया बदल गया। पौधे मुरझा गये, फूल झड़ने और सड़ने लगेे। कार का हार्न अब फिर से कर्कश लगने लगा क्योंकि ‘फिर वही शाम, वही गम, वही तन्हाई थी, गम याद दिलाने को वे खुद ही चली आई थी।’ 
मेरा बसंत तो गायब हो चुका था। पर मुझे अपने से ज्यादा चिंता उस बेचारे की थी जिसका बसंत फिलहाल तो बच गया। पर बकरे का यार कब तक खैर मनाएगा? बसंत पंचमी के बाद उसका बसंत भी बंधक बन जाएगा। बिल्ली के भाग्य से यदि छिक्का टूट भी गया, तो ज्येष्ठ की गर्मी में ही टूटेगा, जब बच्चों की छुट्टियां होगी। मैडम  गाँव जाएंगी। तभी सीलबंद सीमाएं खुलेगी, रेड अलर्ट हटेगा और बसंत को मौका मिलेगा, अंदर झांकने का। लेकिन पर खतरा तो फिर भी बना ही रहेगा। जानेे कब वे लौट जाएँ, बसंत बने ज्येष्ठ को फिर से भयावह बनाने के लिए। ओह! बेचारा बसंत....!-- -विनोद बब्बर 09868211911 

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