श्री वर्धमान स्वामिने नमः

पिछले दिनो डा. देवेन्द्र कुमावत जी के निमंत्रण पर  भीलवाड़ा से लगभग 30 किमी दूर गंगापुर- भीलवाड़ा हाई-वे पर स्थित श्री विनायक विद्यापीठ, भक्तिपुरम भुणास जाने का एक और अवसर मिला। इस परिसर में प्रवेश करते ही सामने श्री विनायक जी की भव्य प्रतिमा है तो दूसरी ओर श्री राधाकृष्ण का मंदिर है। महावीर विक्रम बजंरगी भी वहां विराजमान है।महात्मा बुद्ध, महाराणा प्रताप, स्वामी विवेकानंद, गुरुदेव रविन्द्रनाथ  टैगोर, सहित अनेक संतों की मूर्तियों इस परिसर को शिक्षा के साथ-साथ आध्यात्म के केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित करती है।  इसी परिसर में वहां संतप्रवर श्री पद्मभुषण विजय के नेतृत्व में श्री वर्धमान स्वामी की भव्य प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा का त्रिद्विवसीय समारोह आयोजित किया गया था। गुजरात से पूज्य स्वामी डा. गौरांगशरण देवाचार्य, धुले महाराष्ट्र से महामंडलेश्वर स्वामी परमानंद सरस्वती जी भी पधारे। इस अविस्मरणीय अवसर पर संतों से बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला तो जैन सम्प्रदाय को और निकट से जानने का अवसर भी मिला। हमेशा की तरह करोई के महाराज शिवदान सिंह से साहित्यिक चर्चा हुई तो सौम्यता की प्रतिमूर्ति अशोक व्यास जी से आत्मा-परमात्मा, इतिहास भूगोल पर खूब बाते हुई। यह अवसर उपलब्ध कराने के लिए विनायक विद्यापीठ के अधिष्ठाता डा. देवेन्द्र कुमावत जी का आभार। सुंदर व्यवस्था के लिए यशस्वी यश कुमावत -कुमार अरविन्दम को स्नेहाशीष!
जैन सम्प्रदाय के संत अपने कठोर त्याग, तपस्या के जाने जाते हैं। अपने बचपन में देखा केशलोचन का दृश्य मुझे भुलाये नहीं भूलता। अनेक जैन परिवारों मंे भी अनेक बार जाना-आना हुआ। अहिंसा और अपरिग्रह की नींव पर खड़ा यह मेहनती लेकिन कुशाग्रबुद्धि सम्प्रदाय आपेक्षाकृत संपन्न है। मंदिर महोत्सव में प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के अंतिम दिन श्री वर्धमान स्वामी की प्रतिमा कोे हाथी पर सवार कर वरघोड़ा (शोभायात्रा) निकाला गया। वहीं बैंड बाजे, ढोल, नाचना गाना जो हिन्दू मंदिरों में प्राण-प्रतिष्ठा के अवसर पर होते है। कहीं कोई अंतर नहीं। अपने तुच्छ राजनैतिक लाभ के लिए कुछ भी करने वाले राजनेताओं की बुद्धि पर आश्चर्य हुआ कि जैन मत को हिन्दू दर्शन से अलग घोषित कर क्यों अल्पसंख्यक सम्प्रदाय का दर्जा दिया गया। उससे भी अधिक आश्चर्य अपने जैन बंधुओं पर हुआ जिन्होंने समाज को बांटने के इस प्रयास का खुलकर विरोध नहीं किया। स्वयं मेरे पुत्र सम मुनीष गोयल की पत्नी जैन परिवार से हैं। ऐसे एक नहीं, अनेको उदाहरण है जहां  रोटी और बेटी की सांझ हैं तो फिर हम अलग कैसे हुए? देवेन्द्र जी ने त्याग मूर्ति महावीर और वि6म बजंरगी महावीर के भक्तों को निकट लाने का जो प्रयास किया है उसके लिए वे अभिनंदन के पात्र हैं। मगर इतना ही काफी नहीं है। जैन नेतृत्व को इस महत्वपूर्ण विषय पर अपनी बेबाक राय के साथ राजनेताओं की चाल को नाकाम करने के लिए सामने आना चाहिए। जय जिनेन्द्र!
--विनोद बब्बर, संपादक राष्ट्र-किंकर 09868211911
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