आपदा प्रबंधन को जन-जन से जोड़ने की आवश्यकता

नेपाल और भारत के अनेक भागों में लगातार आ रहे भूकम्प के झटकांे ने जहां  भारी तबाही मचाई है, वहीं सभी की नींद उड़ा रखी है। हजारों असमय काल के ग्रास बने। दुःख की घड़ी में हमारे प्रधानमंत्री जी ने तत्काल राहत सामग्री तथा बचाव दल भेजकर सदियों से भारत मित्र नेपाल के प्रति सदभावना का संदेश दिया है। यूं तो सारा विश्व नेपाल की मदद के लिए सामने आ रहा है लेकिन जिस तत्परता से हमारे विमान, हैलिकोप्टर लगातार राहत सामग्री पहुंचा रहे हैं, बचाव टीमें दिन रात काम कर रही है, डाक्टरों के दल घायलों के उपचार में लगे हैं उसे आपदा प्रबंधन की हमारी क्षमता की परीक्षा भी माना जा सकता है। 
सच्चाई तो यह है कि अब प्राकृतिक आपदाओं तथा मानवीय मूल से होने वाली आपदाओं में जान-माल की क्षति का हमारा अपना रिकार्ड अच्छा नहीं माना जा सकता। गत वर्ष केदारनाथ में हुई दुर्घटना में हजारों का हताहत होना बेहद कष्टकारी अनुभव है। वास्तव में राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण तो हमने बना दिया क्योंकि राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण तो हमने बना दिया लेकिन इसके अधिकांश पद आज भी खाली है। ऐसे में उससे आम जनता में जागरूकता उत्पन्न करने की उममीद करें भी तो कैसे?  प्रभावी आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त है जागरूकता ताकि प्रभावित क्षेत्रों में तत्काल राहत कार्य आरम्भ किये जा सके। यहाँ जागरूकता का अर्थ केवल सरकारी एजेंसियों तक सीमित नहीं किया जा सकता बल्कि आम व्यक्ति में भी इस प्रकार की सोच और क्रियान्वयन की क्षमता होनी चाहिए।
यदि देश भर में मानवीय भूल से होने वाली आपदाओं जैसे रेल- दुर्घटनाओं आदि के बाद की स्थिति पर विचार करें तो एक बात समान रूप से उभरकर सामने आती है कि हर स्थान पर सरकारी एजेंसियों से पहली स्थानीय लोगों ने बचाव कार्य आरम्भ किये। फंसे, दबे हुए घायलों को सुरक्षित निकालने का कार्य बिना किसी तकनीकी ज्ञान के करना भारतीय लोगों की प्रकृति प्रदत्त योग्यता और साहसिक भावना है। लेकिन जब यही कार्य सरकारी एजेसियों द्वारा किया जाता है तो आपदा प्रबन्धन के आवश्यक तत्वों नियोजन, समुचित संचार व्यवस्था, समन्वय और नेतृत्व का अभाव हर जगह अनुभव किया जाता है। एक से अधिक एजेंसियां होने के कारण अपनी लापरवाही का दोष दूसरे पर मढ़ना आम बात है। 
यदि हम अपने संसाधनों की स्थिति को देखें तो भयावह तस्वीर उभरती है। हमारे देश का आधे से अधिक स्थान (59 प्रतिशत) भूकम्प के खतरे में है। 95 लाख हेक्टैयर भूमि बाढ़ की चपेट में आती है। जिससे सैंकड़ों साधनहीनों को प्राण ग्रवाने पड़ते हैं। आँधी, तूफान, चक्रवात, सुनामी के विनाश को भी इसमें शामिल कर दिया जाए तो तस्वीर काफी बदरंग नजर आने लगती है। इस स्थिति से बचाव के लिए तैनात लोग बहुत अधिक आपदाओं के होने को विनाश का जिम्मेवार ठहराकर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं लेकिन वे इस तथ्य की अनदेखी करते हैं जिसके अनुसार अमेरिका और जापान भूकम्प की सबसे ज्यादा मार झेलते हैं। भारत की तुलना में वहाँ का आंकड़ा काफी विस्तृत है लेकिन वहाँ जान-माल के नुकसान के आंकड़ा हमसे काफी कम है। वहाँ बहुमंजिला इमारतों पर भूकम्प का असर कम-से-कम पड़ता है क्योंकि वे सचेत हैं। उनके नियम- कानून व्यवहारिक हैं और उनका पालन लगभग शत-प्रतिशत होता है जबकि हमारी स्थिति इससे ठीक उल्ट है। यहाँ भी नियम -कानून कम नहीं है लेकिन भ्रष्टाचार के कारण उन्हें नजरअंदाज किया जाना आम बात है। 
भवन निर्माण को आधुनिक तकनीक से जोड़ने की आवश्यकता है। फिलहाल आधुनिक सुविधाओं से युक्त नई बनी बहुमंजिली इमारतें भी भूकम्प से सुरक्षित नहीं कही जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त अनाधिकृत कालोनियों में वोट बैंक के कारण भवन निर्माण नियमों की लगातार अनेखी की जाती है। कहीं तंग गलियां तो कही सुविधाओं के बिना आसमान छूती इमारते। पर्यावरण के प्रति असंवेदनहीनता, पाताल में जाते जल की चिंता आखिर हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा।
दिल्ली सहित लगभग सभी नगरों, महानगरों में होने वाले समारोहों की बात करें तो बढ़ती आबादी के बावजूद शादी अथवा अन्य समारोहों के लिए स्थान बढ़ाने की जरूरत नहीं समझ गई। यहाँ सामुदायिक भवनों की संख्या बहुत कम है, उस पर भी अधिकांश बदहाल हैं क्योंकि रखरखाव सरकारी ठर्रे पर होता है जबकि उनके साथ बने प्राईवेट बैन्केट हाल चमाचम दिखाई देते हैं। क्या यह अंतर प्रबंधन का है? यदि हाँ तो क्या इन सामुदायिक भवनों को भी निजी हाथों में सौंपकर सरकार द्वारा तय दर पर आम जनता को उपलब्ध करवाने की सोच हमारे प्रशासन को नहीं है? सामुदायिक भवनों के अतिरिक्त कुछ पार्कों और मैदानों में सरकारी एजेंन्सियों को भारी- भरकम शुल्क चुकाने के बाद टेंट लगाकर समारोह आयोजित किए जा सकते हैं। वहाँ भी एक साथ चार से छः समारोह होते हैं। सभी का खाना वहीं बनता है। ऐसे में जरा सी चूक बहुत बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकती है।
प्रश्न यह है कि लोग करें तो आखिर क्या करें? छोटी-तंग गलियों में टेंट लगाकर जैसे-तैसे काम निकालने वाले स्वयं भी परेशान होते हैं तो दूसरी ओर क्षेत्र के लोगो का रास्ता रुकता है तो उन्हें अनेक अन्य तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ता हैं लेकिन सभी चुपचाप सहन करते हैं क्योंकि आज जरूरत उसकी है तो कल हमे भी यही सब करना पड़ेगा। ऐसे स्थानों पर ईश्वर न करे, कोई दुर्घटना हो जाए तो बचाव दल का पहुँचना भी आसान नहीं हो सकता।
ऐसे में प्रश्न यह भी हो सकता है कि क्या ऐसे समारोहों का आयोजन बंद कर दिया जाए? इसका उत्तर निश्चित और निर्विवाद रूप से ‘न’ ही होगा क्योंकि उत्सव -समारोह भारतीय संस्कृति के प्राण हैं। इनके बिना हम समाज की कल्पना नहीं कर सकते इसलिए हर कालोनी कम-से-कम दो सामुदायिक भवन बनने चाहिए। इनके लिए पर्याप्त स्थान न होने पर कॉलोनी को नियमित करने का कार्य सोच- समझकर किया जाना चाहिए। 
यह सामान्य सा बात है कि जहाँ मामूली सी लापरवाही भी होगी, दुर्घटना संभव है। अतः आपदा प्रबन्धन की तैयारी भी होनी चाहिए। लेकिन आपदा प्रबन्धन तभी सफल हो सकता है जब जन-जन में चेतना हो, इसके लिए स्कूली पाठ्यक्रमों में इसे आवश्यक विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। समय- समय पर टेªनिंग कैम्पों का आयोजन कर ऐसे समय होने वाले तनाव से बचने को राष्ट्र की भावी पीढ़ी के चरित्र में शामिल किया जाना चाहिए। इस विषय पर जापान से प्रेरणा ली जा सकती है। कुछ माह पूर्व आये सुनामी ने भारी तबाही मचाई लेकिन जापानियों ने कुदरत के इस प्रकोप का जिस दिलेरी और कौशल से मुकाबला किया, वह काबिले तारीफ है। बिना किसी की सहायता लिए उन्होंने सबकुछ पहले से भी बेहतर बनाकर अपने आपदा प्रबंध कौशल एवं अपने राष्ट्रवादी चरित्र को एक बार फिर से प्रमाणित किया। आपदा बेशक एक असामान्य घटना होती है लेकिन इसके चिन्ह मानव मन को आसानी से सामान्य नहीं होने देते। विज्ञान ओर तकनीक आपदा प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लाटूर, उत्तराखंड, गुजरात के भूकम्पों से मची तबाही की याद आज भी डराती है लेकिन गुजरात ने इससे सीख लेते हुए अपने प्रबन्धन को बेहतर बनाया है। सैंकड़ों किलोमीटर की समुद्री सीमा तथा भूकम्प के मामले में संवेदनशील क्षेत्र में होने के कारण आपदा प्रबन्धन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। वहाँ प्रबन्धन दल के पास 20 मीटर गहरे दबे मनुष्य की दिल की धड़कन सुनने वाले यंत्र हैं, लगातार 12 घंटे गोताखोरी के दौरान ऑक्सीजन देने वाला श्वसन यंत्र है, पानी के अन्दर, भूमि में गहरे तक की तस्वीरे लेने वाला प्रणाली है। हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट है जो मजबूत छत या फर्श को तोड़कर अथवा गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का कार्य करता है। अति आधुनिक अग्निशमन प्रणाली है जो विशेष प्रकार के उपकरणों से लैस हैं ये प्रणाली सामान्य से कई गुना कम पानी में भी प्रभावी साबित होती है। जरूरत है अमेरिका जैसे देशों से भी सीख ली जाए जहाँ लाइन थ्रोइंग गन से बाढ़ में अथवा ऊँची बिल्डिंग पर फंसे व्यक्ति तक गन से रस्सा पहुँचा कर सुरक्षित बचाने की प्रणाली भी है।
आपदा प्रबंधन की अनुपस्थिति समस्त उपलब्धियों पर पानी फेर सकती है। इसीलिए आज की सबसे बड़ी जरूरत है देश में एकाधिक आपदा प्रबंधन  विश्वविद्यालय आरंभ किये जाये। जहां  इंजीनियरों, डाक्टरों, अफसरों, जनप्रतिनिधियों का ऐसी टेªनिंग दी जाए जो विषम से विषम परिस्थितियों में भी मजबूत मनोबल व पूरी क्षमता से कार्य कर सकंे।  इस कार्य में अन्य स्वयंसेवी संगठनों, एनसीसी, एनएसएस, सिविल डिफेंन्स, होमगार्ड, कॉलेज छात्रों को भी शामिल किया जाना चाहिए। अभी स्थिति यह है कि प्राकृतिक आपदा से ज्यादा क्षति उसके बाद होती है। जैसे बाढ़ में जो जन, धन, फसल की क्षति हुई सो हुई लेकिन पानी उतरते ही बीमारियों का प्रकोप कहर बरपाता है। अनेक बार तो राहत कार्यों के नाम पर अपने घर भरने तथा बंदरबांट के समाचार भी मिलते है। इसे राष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाए। नियम विरुद्ध कार्य को अनदेखा करने वालों को कठोरतम सजाओं का प्रावधान हो। ऐसे मामले बरसों नहीं, हफ्ते-दो हफ्ते में निपटाने की जरूरत है ताकि आपदा का विस्तार करने वालों को संकुचित किया जा सके।
यह सर्वविदित है कि हमारा अपना आधा भूभाग प्राकृतिक आपदाओं के संभावित क्षेत्र में है लेकिन विकास के नाम पर जिस तरह मनमानी की गई उससे समस्त भूभाग ही आपदा को आमंत्रण देता नजर आता है। इसके अतिरिक्त धार्मिक स्थानों, मेलों में भगदड़ हो या तंग बस्तियों में अग्निकांड, सड़क पर होने वाली दुर्घटनाएं, जहरीली शराब के प्रयोग से होनी वाली जन हानि को रोकने के लिए स्थाई व्यवस्था करनी चाहिए। आपदा प्रबंधन से सबंधित  प्रशिक्षित अभियान पूरे वर्ष जारी रहने चाहिए। इसे स्कूल- कालेज सहित समाज के हर वर्ग तक पहुंचाने की दिशा में पहल करनी चाहिए ताकि संकट के ऐसे क्षणों में अनावश्यक घबराहट की बजाय हमें क्या करना चाहिए इसका व्यवहारकि ज्ञान सभी को हो। फिलहाल भूकम्प में आहतों सभी की आत्मा की शान्ति की प्रार्थना करते हुए परमपिता परमात्मा से  आपदा प्रबन्धन के प्रति समस्त मानव मात्र को जागरूक होने का विवेक प्रदान करने की कामना। ओम शांति शांति शांति! -- डा. विनोद बब्बर

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1 comment

  1. सामयिक लेख हेतु हृदय से साधुवाद

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