राजनीति का घिनौना चेहराः किसान नहीं, अपनी जमीन बचाने की कवायद

गरीब, किसान, जमीन अधिग्रहण और उसके प्रभावों पर बहुत चर्चा हो रही है। जिसे देखो वहीं स्वयं को किसानो का सबसे बड़ा हमदर्द साबित करने में लगा है। भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर निर्णायक मुठभेड़ के लिए मंच तैयार है। सभी पक्ष  अपने तरकश में हर तीर लिए तैयार हैं। संसद में शोर है तो सड़के भी सूनी नहीं हैं। लगता है जैसे स्वयं को सबसे बड़ा किसान समर्थक साबित करने की कोई प्रतियोगिता चल रही हो। एक अनमने युवा दो महीने विदेश में कहीं अज्ञात स्थान पर छुट्टी बिताने के बाद घर लौटते ही भूमि अधिग्रहण कानून के विरूद्ध खूब दहाडें। वर्तमान सरकार को किसान विरोधी साबित करने में उन्होंने हर तरकश का सहारा लिया। पूंजीपतियों का कर्ज चुकाने वाला तो कभी सूट-बूट वाला घोषित करते हैं लेकिन न तो उन्होंने और न ही उनके अन्य साथियों के पास इस बात का कोई जवाब है कि किसानो की दुर्दशा का जिम्मेवार कौन? स्वतंत्रता के बाद अधिकांश समय उनके ही दल का शासन रहा है क्या इस स्थिति के लिए एक वर्ष से भी कम कार्यकाल वाली सरकार को एकमात्र दोषी ठहराया जा सकता है।
दिल्ली के नये शासकों से अपना घर संभाले नहीं संभल रहा। उनका मीडियाप्रेम तो नदारद है ही, उसे स्वयं से दूर रखने के पुलिस के निर्देश देने जैसे अनेक विवादों और  चहूं ओर आलोचनाओं, से जनता का ध्यान हटाने के लिए उन्हें भी किसानोें को ही मोहरा बनाने की सूजा तो उन्होंने भी किसान रैली का सहारा लिया लेकिन उस रैली में शामिल एक किसान द्वारा पेड़ पर फांसी लगाने की शर्मनाक घटना ने उन्हें बचाव की मुद्रा में ला दिया है। सब कुछ देखते सुनते हुए भाषण जारी रहे। जिन्होंने बिजली का कनेक्शन काटने के लिए बिजली के खंबे पर चढ़ने की गैर कानूनी परिपाटी शुरू की। उसका पत्रकार चेहरा भाजपा मुख्यालय की दीवार पर चढ़ने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर चुके हैं। लेकिन  कोई भी भाषण छोडकर पेड़ पर किसान को बचाने क्यों नहीं दौड़े? उसके फांसी पर लटक जाने के बाद भी केजरीवाल का भाषण जारी रहा। यदि वे प्रयास करते तो घटनाक्रम बादल सकता था। खुदकुशी करने से पहले पेड़ से एक चिट्ठी फेंकी थी जिसमें दौसा राजस्थान के गजेंद्र ने बेमौसम बारिश से बर्बाद हुई अपनी फसल की बर्बादी का जिक्र किया था।
अनेक लोगों को इस सारे मामले में किसी साजिश की बू आ रही है क्योंकि सुबह से ही माननीय मुख्यमंत्री जी का पुलिस को रैली से मीडियों को दूर रखने का निर्देश देना, जिसे पुलिस ने मानने से इंकार किया, चिट्ठी फेंकने के बावजूद कुछ न करना, जबकि वह चिट्ठी मंच तक पहुंच चुकी थी। फिर भी कुछ न करना। उसपर भी यह कहना कि उससे ‘अराजकता’ फैल सकती थी हास्यास्पद है।  मानों रैली उस दल के समर्पित और जिम्मेवार कार्यकर्ताओं की बजाय अराजक लोगों का जमावड़ा हो।   खुदकुशी से पहले ही एक नेता का ट्वीट, दो बार चुनाव लड़ चुके व्यवसायी गजेन्द्र की स्थिति उतनी खराब न होना जैसे तथ्य किसी असली कहानी को सामने लाने की मांग करते हैं। किसानों की समस्याओं के नाम पर अपनी जमीन तलाशने वाली राजनीति के इस घिनौने चेहरे को सामने लाकर आत्महत्या के लिए उकसाने वालों को दंडित किया जाना चाहिए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि किसान का अपने पुरखों की जमीन से भावनात्मक लगाव होता है। लेकिन इस बात से भी भला किसे इंकार होगा कि परिवार बढ़ने के साथ जमीन का बंटवारा हुआ। थोड़ी जमीन उस पर भी तरह-तरह की समस्याएं, आज खेती लाभकारी नहीं रह गई है। केवल खेती पर निर्भर परिवार का आर्थिक रूप से कमजोर रहना एक कड़वा सत्य बन चुका है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस देश में अन्नदाता की स्थिति बहुत खराब है। देश का बच्चा-बच्चा जानता है (पर हमारे नेता नहीं जानते) कि 5 ंहेक्टेयर वाले किसान से एक चतुर्थ श्रेणी सरकारी कर्मचारी का जीवन -स्तर बेहतर है। आज तक की सभी सरकारों ने विदेशी कम्पनियों के लिए लाल कालीन बिछाये। उन्हें न्यूनतम मुनाफे की गारंटी दी। पर देश की रीढ़ किसानों के लिए क्या किया? महंगा बीज, महंगी खाद, डीजल, पानी, मजदूरी की लागत के बाद कभी मौसम की मार तो कभी बम्पर फसल के कारण उचित मूल्य मिलना किसान को बर्बाद कर रहा है। सरकारें न्यूनतम खरीद मूल्य तो तय कर देती है। परंतु लेवी केन्द्रों पर फसल खरीदने में सौ बहाने बनाकर लौटा दिया जाता है ताकि बाहर सक्रिय दलाल उनसे औने-पौने दामों में अनाज खरीदकर उसी केन्द्र पर दे सकें और अफसर-दलाल फल-फूल सकें। हमारी लोकप्रिय सरकारें किसानों की कितनी हमदर्द है, इसकी एक बानगी विदेशों से घटिया अनाज को चार गुणा अधिक कीमत पर आयात करना हैं। देश की विकास दर बढ़ाने के लिए कभी योजना आयोग तो आज नीति आयोग के एसी कमरों में पसीना बहाने वाले नहीं जानना चाहते कि किसान की स्थिति लगातार रसातल में जा रही है। महंगाई न बढ़ जाए, इसलिए किसान को अधिक दाम न देने वाले विदेशियों से महंगा खरीद कर सबसिडी देते हैं परंतु अपने भूूमि पुत्रों की चिंता नहीं करते।
एक सवाल जो सभी को इस देश के राजनीतिज्ञों से पूछना चाहिए कि जब इस देश के सभी स्कूल, कालेज, यहाँ तक कि उच्च शिक्षा संस्थान जैसे आई.आई.टी.,मेडिकल कालेजों, इंजीनियरिंग कालेजों को सरकारी सहायता दी जाती है तो किसान को सहायता देने से गुरेज क्यों? डाक्टर, वकील, इंजीनियर सरकारी सबसिडी से पढ़ लिख कर विदेश की सेवा करते हुए धन कमा सकता है, तो इस देश की सेवा करने वाले किसान को ज्यादा मूल्य देकर उसे बाद में सबसिडी देकर बेचने में कैसा विरोध? यदि सरकार सचमुच देश का भला करना चाहती है, तो देश की रीढ़ किसान की रक्षा किये बिना कुछ भी संभव नहीं है। किसान भूखा रहकर भी स्वाभिमान नहीं छोड़ता। बैंकों का कर्ज लेकर डकारने वाले नेता उद्योगपति ही होते हैं। इसलिए प्राइवेट फाइनेंसर नेताओं को ऋण नहीं देते। बेशक हजारांे स्वाभिमानी  किसान आत्महत्या कर चुके हों। पर कर्ज़ से डूबे किसी नेता अथवा उद्योगपति द्वारा आत्महत्या का अब तक कोई समाचार नहीं है।
दरअसल कुर्सी में ही दोष है। जो जीवनभर किसान हित हैं हैं  वे सत्ता के आकर पिछली सरकारों के पदचिन्हों पर चलने लगते हैं और कल के पापी यानि ‘सरकार’  अब विपक्षी बनकर विरोध का कर्मकांड निभाते हुए रैलियां करते है। कौन नहीं जानता, हर रैली पर करोड़ो का खर्च आता है। परिवहन, ठहरने की व्यवस्था, भोजन, बोतल, पंडाल मैदान। यदि इसी पैसे से किसानो के लिए कुछ किया जाता तो स्थिति में बहुत बदलाव आ सकता था। पर राजनीति राजनीति है। समाज सेवा नहीं है। कुछ करने   की बजाय कुछ करते हुए दिखने का अभिनय राजनीति है। ऐसे में बहुत संभव है कि अपने खेल के लिए किसी पक्ष द्वारा गजेन्द्र को उकसाया गया हो। 
जहां तक अर्थशास्त्रियों का सवाल है, उनका जमीनी सच्चाई से कोई संबंध नहीं होता। वे आंकड़ों के खेल में माहिर होते है। अपनी खाल बचाने के लिए ये लोग कभी इसको तो कभी उसको बलि का बकरा बनाने से नहीं चूकते। यह सही है कि देश के विकास, नये उद्योग, सड़के, स्कूल, अस्पताल आदि बनाने के लिए जमीन चाहिए। दिल्ली में भी जिन्होंने सैंकड़ो नए स्कूल खोलने का वादा किया था वे भी जमीन की कमी का रोना रो रहे है तो दूसरी ओर अधिग्रहण का विरोध भी कर रहे हैं। सरकार को भूमि अधिग्रहण के संबंध में विवेक से काम लेना चाहिए। खेती की जमीन की बजाय पहले बंजर जमीन का उपयोग करना चाहिए। पूंजी निवेश के लिए सारी दुनिया में अलख जगाने वाले किसान की भूमि अधिग्रहण की बजाय उसे भी प्रस्तावित उद्योगों में साझीदार बनाकर उसकी जीविका सुनिश्चित करने पर विचार क्यों नहीं करते?  बेशक मौसमचक्र के गड़बड़ होने से तैयार फसल को भारी नुकसान हुआ है लेकिन देश के अधिसंख्यक लोगों को मोदी सरकार की सक्रियता से बहुत आशाएं हैं। परंतु स्वयं को सबसे बड़ा किसान समर्थक साबित करने की होड़ के खोखलेपन से अनेक आशंकाएं भी हैं। दुर्भाग्य से यदि इस बार भी औपचारिकताओं का झुंझुना पकडाया गया तो इस देश का भला भगवान भी नहीं कर सकते क्योंकि उसे तो हमने पहले ही पत्थर बना चुके है।
__डा. विनोद बब्बर 09868211911 

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1 comment

  1. शर्मनाक हादसे पर शर्मनाक राजनीति... जहाँ तक बात भूमि-अधिग्रहण की है तो ... हो सकता है कि प्रधानमंत्री की भूमि-अधिग्रहण पर साफ़ नियत हो, किन्तु यह बात पूर्णतः सत्य है कि देश के किसानों को वह इस मामले में विश्वास में लेने की जरा भी कोशिश नहीं कर रहे हैं. आखिर, उन्हें इतनी जल्दी क्यों है? अभी उन्हें आये १ साल भी नहीं हुए हैं, और वह भूमि-अधिग्रहण पर इतनी कन्फ्यूजन के साथ आगे क्यों बढ़ रहे हैं. इस बिल को लेकर हम जैसे थोड़े बहुत अख़बार पढने वालों को भी डर लग रहा है. किसान तो छोडिये, अपनी पार्टी के सांसदों के सर पर भी तलवार रखकर मोदी जबरदस्ती क्यों कर रहे हैं? आज एक किसान मरा है और उसने साफ़ ज़िक्र किया है भूमि-अधिग्रहण को लेकर. देश के किसानों को आखिर प्रधानमंत्री क्यों नहीं विश्वास में लेना चाहते, उनसे आधा-अधूरा और अपुष्ट संवाद करके वह इस कन्फ्यूजन को क्यों बढ़ा रहे हैं??

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