गुरु और अति निर्भरता
एक बार एक आचार्य से उनके एक शिष्य ने पूछा- आज आप हैं। हमारा मार्गदर्शन करते हैं। लेकिन प्रकृति के विधान के अनुसार एक दिन जब आप हमें छोड़कर चले जाएंगे, तब हमारा क्या होगा? इसपर आचार्य का जवाब था- तुमने सत्य कहा। एक दिन तुम्हें मुझसे मुक्त होना ही है तो क्यों न पहले से ही इसकी तैयारी की जाए। वास्तव में किसी पर निर्भरता हमें कमजोर और लापरवाह बनाती है। पूर्ण निर्भरता तो निकृष्टतम गुलामी है। हमें मिलकर ऐसे प्रयास करने चाहिए जिससे तुम अपने आपको मानसिक और वैचारिक रूप से इतने परिपक्व हो सको कि बिना किसी पर निर्भरता के निज स्वतंत्रता के लिए जी सको। यह सत्य है कि आरंभिक अवस्था में किसी न किसी की मदद आवश्यक होती है लेकिन उससे तुम्हारा बाहरी विकास ही होगा। अपने आतंरिक (मानसिक बौद्धिक) विकास के लिए तुम्हें अपने आप प्रयास करने होंगे। थोपा हुआ सत्य एक सीमा तक ही कारगर होता है। जिस तरह एक किताब या डायरी देकर किसी को उस विषय का विद्वान नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए उसे केवल उसी किताब डायरी पर निर्भर रहने की अपनी प्रवृति का त्याग करना होगा। दुनिया भर में अनेक पुस्तकालय है। इन पुस्तकालयों से बड़े हमारे अपने अनुभव है। याद रखो- इस संसार को बदलने की कुव्वत केवल उन्हीं लोगों में थी और रहेगी जो निर्भरता से बाहर निकले। उन्होंने नये प्रयोग किये। नये प्रयोगों ने ही दुनिया को नये आविष्कारों का लाभ दिया। यदि वे वैज्ञानिक भी अपने गुरु, अपने आचार्य के ही पिछलग्गू बने रहते तो निश्चित रूप से उनका ज्ञान अपने गुरु से कमतर ही रहता जबकि अच्छा शिष्य वह है जो अपने गुरु से प्राप्त ज्ञान को लगातार बढ़ाये। क्या श्रीकृष्ण संदीपन से अधिक प्रभावी हुए या नहीं? स्वामी विवेकानंद अपने गुरु से अधिक लोगो के द्वारा पहचाने जाते हैं या नहीं? किसी भी गुरु का गुरुत्व उसके शिष्यों द्वारा उससे प्राप्त ज्ञान को बढ़ाने में ही होता है। अपने अनुभवों का भंडार बढ़ाकर ही तुम ज्ञान रूपी चेतना से तारतम्य बना सकते हो। यदि तुम मुझसे ही बंधे रहोंगे। मुझसे पूछकर ही हर कार्य करोंगे तो निश्चित हे कि गुरु तुम्हारे पांव की बेड़ी बन जाएगा। जबकि गुरु मानसिक, बौद्धिक विकास का स्रोत होता है। तुम मेरी उपस्थिति में ही अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के लिए प्रयत्नशील रहो ताकि मेरी उपस्थिति- अनुपस्थिति रका कोई अर्थ शेष न रहे।
बहुत सटीक बात कहीं उन श्रद्धेय आचार्य जी ने। लेकिन आज हम देख ही रहे हैं चहूं ओर बहुत तेजी से बढ़ रहे धर्मगुरू तो इससे ठीक उलट बात कहते हैं। शिष्य को सब काम छोड़कर गुरु के दरबार में हाजिरी भरने का आदेश देना क्या उसका शोषण नहीं है? गुरु मार्गदर्शक है। पर दुनिया का कोई सच्चा मार्गदर्शक किसी को बांधता नहीं है बल्कि उसे हर परिस्थिति में जीना सिखाता है। उसे निरंतर आगे बढ़ने का उत्साह और ज्ञान देता है। ज्ञान अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का नाम ह। ज्ञान न तो बंधता और न ही बांधता है। यदि हम स्वयं को बांध रहे हैं अर्थात स्थाई निर्भरता की ओर ले जा रहे हैं तो क्या हम ज्ञानवान कहे जा सकते है? गुरु को अपने हृदय में अनुभव करते हुए उसके दिए ज्ञान को गुणात्मकता देना ही जीवन है अन्यथा गुरु के गुरुत्व पर प्रश्न चिन्ह लगेगा। प्रश्नचिन्ह लगना भी चाहिए क्योंकि हर युग की अपनी आवश्यकताएं होती है। अपने शिष्य को भविष्य की आवश्यकताओं और खतरों के प्रति तैयार न करने वाला उसका शुभचिंतक भी नहीं हो सकता तो फिर उसे मार्गदर्शक अथवा गुरु कहा भी जाए तो कैसे? -- विनोद बब्बर 9868211911

गुरु और अति निर्भरता
Reviewed by rashtra kinkar
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