भटके ‘आप’ --- दिल्ली का दर्द सुनेगा कौन

दिल्ली देश की राजधानी है या विवादों का केन्द्र? देश भर के लोग अपनी समस्याएं लेकर दिल्ली आते हैं परंतु दिल्ली अपना दर्द लेकर कहां जाएं। राजनीति के बारे में कहा जाता है, ‘पोलिटिक्स्स इज टू कंट्रोल दी क्राइसेस’ लेकिन दिल्ली के हालात को देखकर राजनीति की नई परिभाषा है, ‘पोलिटिक्स्स इज टू क्रिएट दी क्राइसेस’ जी हाँ, आज दिल्ली अपने राजनैतिक आकाओं द्वारा उत्पन्न की जा रही समस्याएं से परेशान है। संविधान के पालन की शपथ लेकर कुर्सी पर बैठे लोग ही संविधान की अनदेखी कर रहे है। ऐसा करना शायद उनकी राजनैतिक विवशता हो सकता है लेकिन अपने तुच्छ राजनीतिक हितों के लिए दिल्ली को विवश करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं हो सकता। 
देश-विदेश से प्रतिदिन लाखों लोग दिल्ली आते हैं। कोई दिल्ली देखने आता है तो कोई अपने जौहर दिखाने। रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आने का सिलसिला बरसो से जारी है लेकिन आज दिल्ली की फिजाएं बदली हुई है। यहां बेशक ‘आप’’ की हकूमत हो लेकिन ‘आप’ बहुवचन से एकवचन में परिवर्तित हो चुका है। उस ‘एक’ के पास वादो की पिटारी थी। उसने सब विभाग अपने साथियों में बांट दिये। वादों को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल राजनीति को गर्म करने का जिम्मा संभाले हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी स्वयं को संविधान से ऊपर मान रहे हैं। वे एक केन्द्र शासित राज्य और पूर्ण राज्य के कर्तव्यों और अधिकारों में अंतर को जानने की जरूरत नहीं समझते।  इसी व्यवस्था के अंतर्गत 15 साल तक शीला दीक्षित ने बिना किसी विवाद के कार्य किया। बेशक शीला दीक्षित के अंतिम कार्यकाल को दिल्ली की जनता ने नकार दिया हो लेकिन इससे किसे इंकार होगा कि लगातार 15 वर्ष तक उन्हें यह जिम्मेवारी जनता ने ही सौपी थी। क्या अपने राजनैतिक विरोधी से कुछ सीखना अपराध है? क्या अच्छाई को दरकिनार करने से बड़ा भ्रष्टाचार कोई दूसरा हो सकता है? स्वयं को नौसिखिया बताने वाले का संभलकर चलने की बजाय हमेशा मुठभेड़ की मुद्रा में रहने  पर सवाल उठना जायज ही तो है। 
जहां तक दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का प्रश्न है। इसके दो पहलू हैं- संवैधानिक और व्यावहारिक।  पूर्ण राज्य बनने पर पुलिस व्यवस्था और ज़मीन के तमाम अधिकार राज्य सरकार के पास चले जाएंगे। जिससे केन्द्र सरकार को प्रशासनिक दिक्कतें आ सकती है। संसद, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केंद्र की सरकार, उच्चतम न्यायालय, तीनों सेना अध्यक्ष सहित अनेक संस्थान, दुनियाभर के देशों के दूतावास दिल्ली में हैं, जिनकी जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ केंद्र सरकार की है। अगर कोई अडियल और अव्यवहारिक व्यक्ति दिल्ली का रहनुमा बन गया तो उसके क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, उनकी कल्पना ही सिहरन पैदा करती है। शायद इसी कारण लंबे समय से लंबित पूर्ण राज्य की मांग पूरी नहीं की गई जबकि यह मांग लगभग हर दल की रही है और अवसर मिलने के बावजूद उसे पूरा न करने वाले भी सभी दल रहे हैं। स्पष्ट है कि राजनैतिक लाभ के लिए मांग करने वाले विपक्षी नेता और जिम्मेवारी के पद पर विराजमान व्यक्ति का नजरिया अलग होता है। 
दुनिया के किसी भी संघीय प्रजातंत्र में देश की राजधानी पूर्ण राज्य नहीं होती है। संविधान सभा में जब दिल्ली को राजधानी बनाने पर चर्चा हुई तब विश्वभर के संघीय राष्ट्रों की परिस्थितियों का विश्लेषण किया गया था। जिन देशों के मॉडल को प्राथमिकता दी गई, उनमें अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश शामिल थे। अमरीकी राजधानी वाशिंगटन दिल्ली की तरह संघ सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है, इसलिए इस पर नियंत्रण कांग्रेस (अमरीकी संसद) का है। स्थानीय पुलिस मेयर और नगरपालिका के नियंत्रण में है। हालांकि वाशिंगटन का कुछ हिस्सा संघीय सुरक्षा एजेंसीओं ( उदाहरण यूनाइटेड स्टेट कपिटोल पुलिस) के अधिकार क्षेत्र में आता है। इसके पीछे धारणा यह है कि संघीय व्यवस्था के अंतर्गत यदि राष्ट्रीय राजधानी किसी राज्य के अधिकार क्षेत्र में होगी तो राज्य मुश्किलें खड़ी कर सकता है। इसमें कोई आश्चर्य की बता नहीं है कि आज भी अमेरिका की शक्तिशाली कांग्रेस (संसद) वाशिंगटन डी. सी. के स्थानीय मुद्दों पर भी फैसले लेती हैं, जिसे स्थानीय मेयर व प्रशासन सहजता से लागू करते हैं। क्या हम इससे कुछ सबक नहीं ले सकते? दिल्ली के अधिकारों को स्पष्ट परिभाषित किया जाना चाहिए। ताकि वर्तमान में हुए अशोभनीय दृश्य दोहराये न जाये।
पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाता है तो दो सरकारों के बीच टकराव की स्थिति आ सकती है, जो देश हित में नहीं है। यदि एक ही जगह दो शक्ति केंद्र बन जाते हैं तो इससे विपरीत़ परिस्थितियां भी उत्पन्न हो सकती हैं। केंद्र और राज्य के बीच विवाद के कई मामले सामने आ चुके हैं तथा इसे राष्ट्रीय राजधानी में नहीं होने दे सकते।
केवल दिल्ली ही नहीं, पुडुचेरी भी एक केंद्र शासित प्रदेश है। वहां के मुख्यमंत्री भी इस व्यवस्था में सुधार चाहते हैं लेकिन वहां कभी भी टकराव की स्थिति नहीं आई तो इसका श्रेय उनके जनप्रतिनिधियों को दिया जाना चाहिए। यह बेहद कष्टकारी है कि दिल्ली में अधिकारियों की तैनाती और तबादले को लेकर शुरु हुई तनातनी देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंची।   विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर नियमों और प्रावधानों का अपने ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया लेकिन उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद भी यथार्थ को स्वीकार न करने की जिद्द बरकरार है। राज्य के संवैधानिक प्रमुख उपराज्यपाल की सलाह तो दूर उन्हें सूचित किए बिना भ्रष्टाचार निरोधक शाखा (एसीबी) में उत्तर प्रदेश के इंकार के बाद बिहार पुलिस के कुछ अधिकारियों  को  शामिल करना इसका ताजा प्रमाण है। बिहार भी इंकार करता तो क्या नवाज शरीफ से बात की जाती?  उन्हें समझना चाहिए इससे बहुत सन्देश गया. आप सबसे पहले  जिम्मेदार नागरिक हो-- मुख्यमंत्री या विपक्षी या कुछ और उसके बाद हो   
यह बात अपनी जगह बिल्कुल सही है कि किसी भी राज्य की सरकार को अपने कामकाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए उचित वातवरण मिलना चाहिए लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कोई स्वयं को संविधान से भी बड़ा समझने की गुस्ताखी करें। जहां भी समस्याएं हैं, अधिकारों की कमी है, वहां संवाद अथवा कूटनीति से समाधान के प्रयास होने चाहिए। केजरीवाल को समझना चाहिए कि  लोकतंत्र और मुठभेड़ एक दूसरे के पूरक नहीं, परस्पर विरोधी है।  कुछ पर आरोप, कमरे पर ताला लगाकर आखिर वे क्या संदेश देना चाहते थे?
किसी भी सरकार के लिए वर्तमान परिस्थितियों में अपने अधिकतम वादे पूरे करना संभव है। जैसे बिजली, पानी के बिल माफ या आधा करने के लिए इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। ंअगर आपको नए स्कूल, कॉलेज, अस्पताल बनाने हैं, वाई-फाई फ्री करना है, शहर को  विश्वस्तरीय सुविधाएं देनी हैं तो कौन आपको रोक सकता है। एक तरफ तो केजरीवाल स्वयं 30-40 प्रतिशत वादे ही पूरे करने को पर्याप्त मानते हैं जबकि दूसरी ओर 80 प्रतिशत वादे तो इसी ढ़ांचे के अंतर्गत पूरे किये जा सकते हैं।
 प्रशासनिक दृष्टिकोण से दिल्ली लगातार अनिश्चितताओं का शिकार रही है। 1951 में इसे राज्य का दर्जा दिया गया लेकिन 1955 में इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाकर विधानसभा के बदले महानगर परिषद दी गई। जहां मुख्यमंत्री के बदले मुख्य कार्यकारी पार्षद और मंत्री को कार्यकारी पार्षद का दर्जा था। 38 बरस के इन्तजार के बाद 1993 में एक बार फिर विधानसभा का गठन हुआ जो आज भी जारी है। स्पष्ट है कि कोई भी व्यवस्था अंतिम नहीं हो सकती। समय, काल, परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन संभव है। परिवर्तन के लिए सभी को मिलकर प्रयास करने चाहिए ओर अपनी असफलता का दोष दूसरो पर लादने और टकराव की प्रवृत्ति का त्याग करना चाहिए। कभी अपनों से भिड़ंत, कभी सरकारी अमले से भिड़त की अपनी आदत को फिलहाल किनारे करते हुए सभी को साथ लेकर चलने की कला केजरीवाल जी को विकसित करनी चाहिए। लोकतंत्र में मीडिया को पांचवां स्तम्भ कहा गया है। फर्ज याद दिलाने पर हवालात दिखाने का इरादा जताकर जो अपयश अर्जित किया है उसे धोने के लिए   केजरीवाल को दिल्ली के इतिहास में एक नया और शानदार अध्याय लिखने के लिए मिले अवसर का सदुपयोग करना चाहिए। इसी में उनके अपने दल का हित, दिल्ली का हित है और देश का हित है। केवल नाम से ही ‘आम आदमी’ नहीं हो सकते। उसके लिए ‘आप’ में आम आदमी जैसा धैर्य भी तो होना चाहिए।
--विनोद बब्बर संपर्क-09868211911
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