विशेषधिकार या सभी को समान न्याय?-- डा. विनोद बब्बर
कोई भी सभ्य समाज नियम- मर्यादाओं का पालन किये बिना नहीं चल सकता। बेशक हर व्यक्ति के कुछ अधिकार हैं लेकिन हर अधिकार कर्तव्य पालन से जुड़ा हुआ है। यदि समाज किसी व्यक्ति विशेष को अपना स्नेह, समर्थन प्रदान करता है या कोई साधन संपन्न हैं तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वह सैलेब्रिटी होकर कानून से परे हैं। भारतीय संविधान तो कानून की समानता का उद्घोष करता है लेकिन यदाकदा ऐसे उदाहरण भी सामने आते हैं जिनसे आम आदमी के दिल में बनी न्यायपालिका और मीडिया की छवि प्रभावित होती है तो उस प्रभावशाली अपराधी के पक्ष में अनाप शनाप बोलने वाले चाटुकारों के प्रति आक्रोश उमड़ना स्वाभाविक है।
13 वर्ष पहने एक अभिनेता शराब पीकर फुटपाथ पर सो रहे लोगों को अपनी गाड़ी से कुचल देता है। उसके खून की जांच से स्वीकृत सीमा से ज्यादा शराब की मात्रा होने की पुष्टि हुई। उस समय उसी गाड़ी में मौजूद पुलिस द्वारा प्रदान किये गए सुरक्षा गार्ड ने अदालत में दिए अपने बयान में शराब पीकर तेज गाड़ी चलाने की पुष्टि करते हुए कहा कि उसने खुद सलमान को धीरे गाड़ी चलाने के लिए कहा था। उसपर भी यह सिद्ध हो चुका है कि वह बिना ड्राइविंग लाइसेंस के गाड़ी चला रहा था। इन तमाम सबूतों के बाद उस घटना के 12 साल बाद अचानक दोषी के पारिवारिक ड्राइवर का स्वयं को दोषी बताना अदालत को धोखा देने की कोशिश सरीखा था लेकिन माानीय न्यायालय ने तमाम तरह के दबावों, तर्कों को अस्वीकार करते हुए दोषी को पांच साल की सजा सुनाकर सर्वथा उचित ही किया है। लेकिन देश का इलैक्ट्रोनकि मीडिया जिस तरह से इस मामले को सुबह से उछाल रहा था उससे मीडिया के कर्तव्यों के प्रति बहस एक बार फिर तेज होनी चाहिए।
इससे बात से शायद ही किसी की असहमति हो कि केवल इस अभिनेता ही नहीं, बल्कि दुनिया के किसी भी बड़े से बड़े क्रूरतम अपराधी को भी जब अदालत सजा सुनाती है तो उसके परिजनों, मित्रो और शुभचिंतकों का दुःखी होना स्वाभाविक है। यह समय धैर्य और विवेक की परीक्षा का होता है। ऊपर की कोर्ट में अपील करना उनका अधिकार है। उसपर किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती लेकिन यदि कोई अनावश्यक भावातिरेक में आकर पीड़ित पक्ष को कोसने लगे तो वह पक्ष भी निश्चित रूप से दण्ड के योग्य है। जैसाकि इस मामले में अभिनेता के गायक मित्र ने सड़क पर फुटपाथ पर सोने को मजबूर मृतक के प्रति सहानुभूति प्रकट करने की बजाय आपत्तिजनक टिप्पणी करते हुए शालीनता की सभी सीमाएं तोड़ते हुए कहा, ‘कुत्ता रोड पर सोएगा तो कुत्ते की मौत ही मरेगा। रोड गरीब के बाप की नहीं है। जब मेरे पास घर नहीं था तो मैं स्टेशन पर सोया था, लेकिन सड़क पर कभी नहीं सोया।’ वह मानसिक रोगी यहीं नहीं रूका। उसके अनुसार, ‘रोड और फुटपाथ पर सोने का शौक है? तुम अपने गांव क्यों नहीं चले जाते जहां कोई गाड़ी तुम्हें नहीं मारेगी।’, ‘अगर सूइसाइड क्राइम है तो सड़क पर सोना भी जुर्म है। स्टारडम के लिए संघर्ष कर रहे 80 पर्सेंट लोग कभी फुटपाथ पर नहीं सोए।’
ऐसी टिप्पणी करने वाला मूर्ख शायद नहीं जानता कि जिस तरह कोई जेल नहीं जाना चाहता ठीक उसी तरह कोई भी फुटपाथ पर सोना नहीं चाहता। परंतु परिस्थितियां उसे मजबूर कर सकती है। कोई साधारण बुद्धि का व्यक्ति भी इन परिस्थितियों से बाहर निकलने के लिए मानवीय मूल्यों के त्याग की बात नहीं सोचता। यदि कोई स्वयं को कानून या मानवता से ऊपर समझता है तो कानून और समाज का यह कर्तव्य है कि उसे उसकी औकात बताये।
जहां तक इस मामले के निपटारे में 13 साल लगने का प्रश्न है, इसे आदर्श स्थिति नहीं कहा जा सकता। लेकिन कमोवेश यही स्थिति सारे देश की है। दशकों मामलों का लटके रहना जहां पीड़ित को न्याय से दूर रखता है वहीं आरोपी भी तारीख दर तारीख अदालतों के चक्कर लगाते हुए वकीलों के तर्को के बीच अनिश्चय में रहता है। सभी का समय ही नहीं कीमती संसाधन भी लगते हैं। अनेक बार तो न्याय की इंतजार इस जीवन के बाद भी जारी रहती है। लेकिन इस मामले में जहां एक ओर 13 वर्षों का इंतजार है तो दूसरी ओर फैसले के विरूद्ध हाई कोर्ट के फैसले में जिस तरह की चुस्ती-फूर्ति दिखाई गई वह अनेक सवाल खड़े करती है। जैसे जिला अदालत द्वारा दोपहर बाद सजा सुनाने के बाद फैसले की प्रति प्राप्त कर एक जाने-माने वकील का मुंबई हाईकोर्ट में अंतरिम जमानत की याचिका दायर करना। माननीय अदालत में तत्काल सुनवाई के बाद लगभग पांच बजे अंतरिम जमानत दिया जाना। हाई कोर्ट के आदेश की प्रति तत्काल जारी होना जबकि शाम को आए फैसलों की प्रति अगले दिन दी जाती है। उसके बाद की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। जिला अदालत 5.30 बजे तक ही कार्य करती है परंतु माननीय न्यायाधीश महोदय द्वारा आदेश की प्रति के इंतजार में 6.20 तक अदालत में उपस्थित रहकर दोषी को घर जाने देना कुछ यक्ष प्रश्न हमारे सामने उपस्थित करता है। क्या किसी प्रभावशाली व्यक्ति के लिए नियमों को नरम किया जा सकता है या अब भविष्य में सभी के लिए ऐसा ही होगा? क्या सामान्य मामलों के निपटारे के लिए भी माननीय न्यायाधीश महोदय निर्धारित समय के बाद उपस्थित रहते हैं या भविष्य में रहेंगे। यदि वे सभी के लिए ऐसा करते हैं तो उनका अभिनंदन होना चाहिए तथा देश के सभी न्यायालयों को भी उनका अनुशरण करते हुए बढ़ते न्यायिक बोझ को घटाने के लिए आगे आना चाहिए।
सड़क दुर्घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ रही हैं अतः इन्हें रोकने के उपाय करने के साथ-साथ इनके उचित समाधान-निपटान की प्रक्रिया को एक निश्चित समयसीमा अथवा कुछ तारीखों तक सीमित करने की आवश्यकता है। पीड़ित पक्ष को समय पर न्याय और उचित मुआवजा न मिलना उसके साथ हुई दुर्घटना का विस्तार है। ऐसे मामलों में झूठी गवाही देकर दोषी को बचाने का प्रयास करने वाले व्यक्ति को भी कानून के सिकंजे में लाना चाहिए।
यह सत्य है कि सूचना प्राप्त करना सभी का अधिकार है लेकिन सूचना देने के नाम पर कुछ भी परोसना कहां तक उचित है। एक घटना अथवा दुर्घटना को कितना समय दिया जाए इसकी भी कोई मर्यादा होनी चाहिए। आज सलमान तो इससे पहले संजय के मामले को मीडिया द्वारा ज्यादा उछालने पर सवाल उठ रहे है तो इस दोनो के मामले में प्रशासन और कानून की उदारता कोई नजीर न बने यह सुनिश्चित किये बिना हम यह दावा नहीं कर सकते कि कानून की नजर में अमीर-गरीब, सक्षम- असहाय, प्रभावशाली -साधारण व्यक्ति एक समान हैं।
केन्द्र न्यायिक सुधार सहित अनेक सुधारों की दिशा में पहल कर रहा है। पिछले दिनो कानून में परिवर्तन कर न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए व्यवस्था को सरल बनाया लेकिन उस कानून को ही चुनौती दी गई है जिससे बढ़ते मामलों के निपटारे की आशा धूमिल होती है। अतः इस मामले को देश की सर्वोच्च अदालत को प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई करनी चाहिए ताकि देश के संविधान और कानून में आम आदमी की आस्था को कतई ठेस न पहुंचे। दुर्भाग्य से यदि न्याय के नाम पर केवल तारीख ही बंटती रही और प्रभावशाली लोग विशेष व्यवस्था के अंतर्गत लाभांवति होते रहे तो हो सकता तो कुछ दूसरे लोग भी हीं कहेंगे जो एक मित्र ने कहा है-
बड़े लोगों के साथ पतंग उड़ा लो।
उसके बाद कहीं भी गाड़ी हांक लो।
फुटपाथ पर।
सोते हुए मजदूर की खाट पर।
गरीब दूल्हे की बारात पर।
सब माफ है। गर महंगा वकील साथ है।
विशेषधिकार या सभी को समान न्याय?-- डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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... इस मामले से सामान्य नागरिक को न्याय मिलने की उम्मीद धूमिल हुई है. न्याय-व्यवस्था पर कार्य किये जाने की आवश्यकता.
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