शिक्षा में सर्वत्र व्याप्त है व्यापम

 राजनीति का अपना चरित्र है। सत्ता में आने पर सभी अपनों को उपकृत करते हैं जबकि विपक्ष कोसता है। आरोप-प्रत्यारोप होते है। सत्ता परिवर्तन हो जाने पर भी मात्र भूमिकाएं बदलती है शेष यथावत रहता है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश में हुए ‘व्यापम्’ को लेकर खूब शोर हुआ। जबकि तथ्य यह है कि परीक्षाओं में गड़बड़ी और भ्रष्टाचार का प्रतीक बन चुका ‘व्यापम्’ केवल एक प्रदेश तक सीमित नहीं है। हालांकि उच्चतम न्यायालय ने इसकी सीबीआई जांच के आदेश दिये हैं परंतु  फिलहाल मामला ठण्डा होने के कोई आसार नहीं है। 
‘व्यापम्’ के सर्वत्र व्याप्त होने की पुष्टि करते ताजा समाचार के अनुसार मध्यप्रदेश के एक एसडीएम ने अपने दौरे के अवसर पर एक शिक्षक से स्कूल का नाम ब्लैकबोर्ड पर लिखने को कहा तो उसने ‘गवर्नमेंट मिडिल स्कूल’ में गवर्नमेंट गलत लिखा। जबकि उसी कक्षा के एक बच्चे ने उसे सही लिखा। एक स्कूल की अध्यापिका से ‘मिडिल’ की स्पेलिंग पूछी गई तो उसने हाथ जोड़ लिए।
केवल मध्यप्रदेश ही क्यों, कुछ समय पूर्व जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट ने भी ऐसा ही एक मामला सामने आया। दक्षिण कश्मीर के एक अध्यापक की नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने उसपर ‘अयोग्यता’ का आरोप लगाया तो कोर्ट ने उसेे अंग्रेजी से उर्दू और उर्दू से अंग्रेजी में अनुवाद के लिए एक आसान की पंक्ति दी जिसका वह अनुवाद नहीं कर सका। और तो और कश्मीर  का वह अध्यापक बेहद आसान सी परीक्षा में पास नहीं हो सका जब वह ‘गाय’ पर निबंध भी नहीं लिख सका था। गत शिक्षा सत्र की समाप्ति पर बिहार में सामूहिक नकल के चित्रों ने सभी को शर्मसार किया तो हाल ही में 1400 प्राथमिक टीचरों के इस्तीफे ने सभी को चौकाया जबकि उन्होंने किसी असंतोष के कारण ऐसा नहीं किया बल्कि कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए ऐसा किया क्योंकि पटना उच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा था कि फर्जी डिग्री से नौकरी पाने वाले टीचर अगर इस्तीफा  देते हैं तो उनके खिलाफ कोई नहीं कार्रवाई की जाएगी। ऐसा न करने वाले फर्जी डिग्रीधारी अध्यापकों से वेतन और भत्ते भी वसूले जाने सहित कड़ी कार्यवाही होगी। शेष राज्यों में भी स्थिति इससे बहुत भिन्न नहीं है। 
‘स्किल इण्डिया’ की तैयारी के बावजूद इस बात से कौन इंकार करेगा कि केवल महानगरों में ही नहीं, छोटे नगरों से गांवों तक प्राइवेट स्कूल बहुत तेजी से फल फूल रहे हैं। सरकारें लाख दावा करती रहें पर सरकारी स्कूल शिक्षा के स्तर को कायम नहीं रख सके हैं। उसमें अध्यापकों से ज्यादा दोष व्यवस्था का है क्योंकि मतदाता सूची निर्माण, मतदान, मतगणना, जनगणना के बाद प्रतिदिन ‘मिड डे मिल’ बांटने जैसे कार्यों में उन्हें लगाया जाएगा तो इससे बेहतर की आशा ही नहीं की जा सकती। उसपर किसी को फेल न करने की बाध्यता। किसी को बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी डांटना मना। क्या ऐसे शिक्षास्तर को ऊँचा उठाया जा सकता है? 
हमारे पूर्वज मनीषियों के अनुसार वास्तविक शिक्षा वह है जिससे व्यक्ति के चरित्र का निर्माण हो। वेद मन्त्रों में ‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमयः’ का उद्घोष है। तो भर्तृहरी ने नीतिशतक में कहा है- ‘शिक्षा विहीन साक्षात् पशुः पुच्छ विषाणहीनः’ यह हमारे विद्वान ऋ़षियो का तप और ज्ञान था कि प्राचीन समय में हमारा देश शिक्षा का केन्द्र था। दुनिया भर से लोग तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला में अध्ययन के लिए आते थे। 
निश्चित रूप से किसी भी समाज को आइना दिखाने का काम शिक्षा ही करती है। अतः कोई भी विकासशील राष्ट्र जो अग्रणीय स्थान पाने का जोश दिखा रहा हो, शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न उठना ही चाहिए। हमारे एक भी विश्वविद्यालय के विश्व रैकिंग में स्थान न पाने को हम पक्षपातपूर्ण बता कर स्वयं को संतुष्ट हो सकते है। परंतु कड़़ी परीक्षाओं से गुजरते हुए चुने गए रूड़की आईआईटी के उन 73 छात्रों के बारे में क्या कहा जाए जिन्हें बहुत खराब प्रदर्शन करने के कारण निकाल दिया गया है। यदि यह भी शिक्षा के स्तर पर हमें जगाने में असफल रहता है तो भगवान भी हमारी मदद नहीं कर सकता। आखिर यह कैसी शिक्षा प्रणाली और कैसा इसका तंत्र है कि उसका सारा जोर योग्यता और ज्ञान पर नहीं अपितु अंकों पर हैं। वस्तुनिष्ठ परीक्षा प्रणाली की सीमाएं सामने आने के बावजूद उसके सुधार की जरूरत पर चर्चा गायब है। दुर्भाग्य की बात है कि व्यापम पर राजनैतिक शोर तो बहुत हुआ लेकिन इन तमाम परिस्थितियों पर कहीं कोई चर्चा तो दूर सुगबुगाहट तक दिखाई नहीं देती।  
दुर्भाग्य की बात है कि पश्चिम का अंधानुसरण करते हुए भी हम  किसी जनरल को रक्षामंत्री, डाक्टर को स्वास्थ्य मंत्री, शिक्षाविद् को शिक्षामंत्री का दायित्व देने का बोध नहीं है। इसीलिए  राजनीतिक लोग शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने की बातें तो अक्सर करते हैं पर शिक्षा के बाजारीकरण को रोकने पर कभी कोई गंभीरता नहीं दिख सके। निजी और सरकारी स्कूल वर्ग विभाजन का कारण बन रहे है। बेशक सभी प्राईवेट स्कूलों का स्तर बहुत अच्छा नहीं है परंतु व्यवस्था समाज के बीच खाईं बन रही है। ऐसे में प्रश्न यह है कि यदि केवल अपना नाम लिखना -पढ़ना ही साक्षरता का मापदंड होगा तो शिक्षा के स्तर पर चर्चा होनी भी चाहिए अथवा नहीं।
यह बात से इंकार नहीं कि हमारे यहां का शैक्षणिक परिदृश्य  बदला हैं। सरकारी से अधिक निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ सी आई है। हर साल लाखों डाक्टर, इंजीनियर तैयार होते हैं। लॉ और एमबीए जैसे अनेकानेक कोर्स पास करने वालों की संख्या भी लाखों में होती है। परंतु गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले करोड़ों लोगों के बच्चों का शिक्षा के स्तर क्या है, इसपर चुप्पी क्यों? क्या शिक्षा व उनका जीवन स्तर सुधारे बिना भारत का विकास संभव है?
देश आजादी की अड़सठवीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। क्या हम अपने दिल पर हाथ रखकर इस बात से इंकार कर सकते हैं कि  आजतक हम जाति से ऊपर नहीं उठ सके है। जनगणना से अधिक जोर जातिगणना के आंकड़ों पर है। साक्षरता से सजातीयता प्रिय होने के कारण शिक्षा के स्तर पर चर्चा की जरूरत महसूस नहीं होती। शायद उन्हें निरक्षर रखकर शासन करने की सोच बदली नहीं है।   यह विशेष स्मरणीय है कि सन् 1911 में महान देशभक्त श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का बिल पेश किया था तो ग्यारह हजार बड़े जमींदारों के हस्ताक्षरों वाली याचिका में कहा गया था कि ‘अगर गरीबों के बच्चे स्कूल जाएंगे तो जमींदारों के खेतों में काम कौन करेगा।’
 बेशक स्वतंत्रता के इन वर्षों में शिक्षण संस्थानों की संख्या बढ़ी  है। लेकिन सूचना क्रांति के इस दौर में आज भी देश के एक चौथाई स्कूलों में भी कम्प्यूटर उपलब्ध  नहीं है। ढेरों पद रिक्त हैं। ऐसे में गुणवत्ता की चिंता करे भी तो कौन? शिक्षा के स्तर पर चर्चा अधूरी और निरर्थक रहेगी यदि हम देश के शिक्षकों की दशा और दिशा को अनदेखा करें। क्या यह सत्य नहीं कि हमारी नई पीढ़ी डाक्टर, इंजीनियर, सीए, आईएएस, आईपीएस, जज, मैजिस्टेट तो बनना चाहती है पर शिक्षक नहीं बनना चाहती। यदि प्राथमिकता नहीं, ‘कहीं नहीं तो यहीं सहीं’ की मजबूरी से कोई शिक्षक बनता है तो स्पष्ट है कि समाज और सरकारें शिक्षक के प्रति कहीं अन्याय कर रही है। शिक्षक दिवस आ रहा है। कुछ को पुरस्कार, शेष की प्रशंसा, भविष्य निर्माता का संबोधन होगा। परंतु इतना काफी नहीं है। शिक्षा के ढ़ांचे में अमूल-चूल परिवर्तन किये बिना विश्वगुरु तो बहुत दूर की कोढ़ी है, हम न तो शिक्षा का स्तर सुधार सकता है और न ही हम ‘डिजिटल इण्डिया’ और  ‘स्किल्ड इण्डिया’ को सफल साकार बना सकते हैं।
इस बात से शायद ही कोई असहमति का दुस्साहस कर सके कि फर्जी डिग्री, अयोग्य शिक्षक, अनुशासनहीन छात्र, व्यापम घोटाले जैसे कारक प्रमाण हैं कि हमारी शिक्षा पद्धति में खोट है। ऐसे में अगर स्तरविहीनता है, अनैतिक ढ़ंग से चुनाव, परीक्षा और भर्ती के जारी रहेगी। भ्रष्टाचार, अपराध और असुरक्षा को खत्म करने की बातों पर तालियां बेशक बजे लेकिन इसे वास्तविकता के धरातल पर हटाया  नहीं जा सकता। ऐसे में सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि क्या हमारे नीति निर्माता शिक्षा को मात्र नौकरी पाने का माध्यम बनाने की बजाय चरित्र निर्माण का माध्यम बनाने की आवश्यकता महसूस कर भी रहे है या वे अभी भी अपनी ‘हवा-हवाई’ दुनिया में ही विचरण कर रहे हैं।
  विनोद बब्बर -09868211911
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